Monday, November 3, 2008

गावं क्या तुम बदल रहे हो?

दीवाली के बाद से मैं गावं-गावं घूम रहा हूं। छुट्टियां मनाने के लिये मैने गावं को ही चुना।पर यहां ऐसा लग रहा है कि गावं बदल गये हैं।यूं भी कह सकते हैं कि गांव बुढे हो रहे हैं।बचपन मे बहुत सी दीवाली मैने गावं मे ही मनाई है,उनकी यादें आज भी दिल-दिमाग मे रची बसी है।गावं की दीवाली कुछ-कुछ वैसी ही रही,मगर गावं अब थके-थके दम तोडते बुढे से लगे। ऐसा लगा जवान हो रहे आस-पास के कस्बो और शहरो की उन्हे नज़र लग गई हो।

गांव की सुबह आज भी कुछ-कुछ वैसी ही है,मगर बद्लाव के निशान छिपाये नही छिपते।सुबह ठ्ण्डी-ठण्डी शुद्ध हवा आज भी बहती है,आंगन मे चिडिया वैसे ही चहकती है,गिलहरी वैसे ही दौड्ती है,मगर घर का आंगन वैसा महकता नही है जैसा गोबर से लिपने के बाद महका करत्ता था।मुझे याद है सुबह-सुबह दो बडी मट्की मे गोबर के पानी का घोल बनाकर उसे बाहर के आंगन मे छिडक कर पुरे आंगन को लिपा जाता था। शुरू-शुरू मे खराब लगता था बाद मे वो खुश्बु अच्छी लगने लगी।कुछ घरों मे ज़रुर वो सिलसिला जारी है,मगर कुछ घरों मे उसकी कमी खली।

घर के पीछे के वटे,खुले हिस्से मे बैठ्कर सुबह का नाश्ता करना भी याद बन कर रह गया।पिछे रहने वाली वच्छिला (वत्सला)आजी(दादी)भी अब नही रही। नीम के पेड की छांव मे बैठ कर गुनगुनाती धूप मे बेफ़िक्र होकर चिवडा-लड्डू खाना अब शायद वैसा मज़ा नही देगा।पीछे बने पानी गरम करने के लिये बने चूल्हे गुज़रे ज़माने की बात हो चूके है।पानी गरम करना तो दूर अब तो कुछ घरों मे खाना भी चुल्हे पर नही बनता। चूल्हे पर बने खाने का स्वाद अब सिर्फ़ याद बन कर रह गया है।वो फ़ूकनी से फ़ूंक-फ़ूक कर चुल्हे सुल्गाती नानी का पल्लू से धूआं उडाना और आखों मे भर आये पानी की याद,ये चुगली करती है कि गांव अब पहले जैसे नही रहे।

दिन भी अब चहल-पहल वाले नही रहे।अधिकांश लोग शहर मे रहने लगे हैं।दोपहर तो बेहद सूनी-सूनी लगी।शाम को भी गोठान से लौटती गायों की घण्टियों और बछडों के घुंघ्रूओं की मिठी-मीठी स्वर-लहरी सुनाई नही पडी न ही उनके लौटने से उठता धूल का गुबार नज़र आया।रात तो शायद पहले भी जल्द गहराती थी और आज भी जल्द ही गहराती है।मगर रात को इतना सन्नाटा नही पसरा करता था।देर रात तक कंही -कंही रेडियो बजते रहते थे। विविध भारती से देर रात बजने वाले हिट गीत अब सुनाई नही पडते। घरों मे च्लता टीवी चीख-चीख कर कहता है कि हां गांव अब बदल गये हैं ।तरक्की सिर्फ़ शहरो के लिये नहि है गांव का भी उनपर हक़ है।एक बार लगा ज़रुर की बात तो सच है,मगर फ़िर सोचा किस कीमत पर मिल रही है ये तरक्की।शहरों की जवानी की कीमत पर गांवो के बुढापे और एकाकीपन की कीमत पर्। और भी बहुत से सवाल उमडते-घुमडते रहे दिमाग मे।मगर सोते समय लगा कि भले ही बहुत कुछ बदला हो मगर रात की वो शांति वैसी ही है।झींगुरो की गुनगुन,किटों का अद्भूत संगीत,सर पर साफ़-सुथरा आसमान चटख चांदनी ये तो वैसी ही है।यही सोच कर मैने दिल को तसल्ली दी।पता नही कब नींद लग गयी। हां यहां सोने के लिये गोली खाने की ज़रुरत भी शायद ही महसूस होती होगी।सुबह नींद खुली तो दूधवाले की आवाज़ से नही,चिडियों के सुमधुर संगीत से।

18 comments:

सुशील छौक्कर said...

मैं गाँव की याद के कारण वहाँ गया था। कुछ चीजें खीचंकर ले गई थी पर जब वहाँ तो वो चीजें गायब हो चुकी थी। खैर तरक्की होनी चाहिए पर जैसी होनी चाहिए नही हो रही बैशक वो गाँव हो या शहर।

ghughutibasuti said...

बदलाव ही जीवन है । गाँव हों या शहर हर समय बदलते ही रहते हैं । फिर यादें तो रहती ही हैं न बिन बदली । मेरा गाँव भी बदल गया होगा,शायद कभी देख पाऊँ ।
घुघूती बासूती

ताऊ रामपुरिया said...

हां यहां सोने के लिये गोली खाने की ज़रुरत भी शायद ही महसूस होती होगी।सुबह नींद खुली तो दूधवाले की आवाज़ से नही,चिडियों के सुमधुर संगीत से।
अनिल जी गाँव चाहे जितने भी बुढे हो गए हो पर अब भी कुछ बात तो है की हस्ती मिटती नही गाँवों की ! जाने क्यूँ हमेशा मन करता है सब छोड़ छाड़ कर आ अब लौट चले पर फ़िर वही जो आपने लिखा है ! बहुत सुंदर लिखा आपने ! शुभकामनाएं !

रंजू भाटिया said...

वह गांव अब सिर्फ़ किस्से बन कर रह गए हैं .अच्छा लिखा है आपने

समीर यादव said...

हाँ बदल गए हैं.... अनिल भाई ! और अब यह आप जैसे सुधिजनों के पोस्ट, आलेखों में ही नजर आया करेगा. मैं अभी दीपावली पर अपने गाँव गया था, वहाँ सारे मूल संस्कार मोडिफाइड होकर निभाये जा रहे थे ...जिस पर कभी चर्चा करूँगा.

seema gupta said...

" very nice artical whih is very true and near to life.... sach kha hai badlav hee neeytee hai, bachpan mey jo village dekhe thy aaj vha ka njara hee alag hai... pehcan hee nahee aatey... apke is post ne bhut saree puranee yaden taja kr dee hain.... accha lga pdh kr.."

Regards

रंजना said...

सच कहा आपने......गाँव को शहर की नज़र लग गई..
वो जो पीछे छूट गया,उन सुनहली यादों को संजोये रखने के लिए बेहतर है कि यादों में ही गुम रहा जाए,क्योंकि अब गाँवों का वह अपनापन पराया हो गया है,कहीं खो गया है,उसमे वह पुराणी सोंधी खुशबू ढूँढने पर जब नही मिलती तो मन बड़ा भारी हो जाता है.सो बेहतर है उस और रुख न ही किया जाए.

Arvind Mishra said...

अब ये आप पर निर्भर करता है की आप गाँव से अपेक्षा क्या करते हैं -अगर आपकी सचमुच कोई अपेक्षा नही है तो गाँव से बढ़कर आज कोई भी रिटायरिंग और कोम्फोर्ट जोन नही है !

दीपक said...

और बहुत कुछ बदल गया है अनिल जी !!क्या कहे !

Gyan Dutt Pandey said...

कुछ बदला है कुछ वही है। गनीमत है कि गांव अभी भी पहचान आता है।

समयचक्र said...

समय बदल गया है आजकल गाँव भी आधुनिकता की दौड़ में शहरों से कम नही है पर आज भी गाँवो में जो असीम शान्ति प्राप्त होती है . शहरों में भागमदौड़ की जिंदगी वह शान्ति प्राप्त नही होती है .

दिनेशराय द्विवेदी said...

मैं ने गांव देखे हैं, कभी कभी वहाँ रहने का सुख भी देखा है। अभाव में भी गांव का अपना एक आकर्षण रहा। लेकिन अपना पैतृक कस्बा और वे भी जहाँ जहाँ मुझे रहने का अवसर मिला सब के सब बदल गए हैं।
पर वैसे नहीं जैसा हम सोचा करते थे।

राज भाटिय़ा said...

मुझे तो गाव से बहुत ही लगाव है, ओर मै यहां भी एक छोटे से गाव मै ही रहता हू, लेकिन यहां के गाव ओर भारत कै महानगरो मै भी दिन रात का फ़र्क है, आप का लेख पढ कर मुझे मेरा बचपन याद आ गया जब हम छुट्टियो मै गाव मै जा कर छुप छुप कर शरारते किया करते थे.
धन्यवाद

Udan Tashtari said...

सच में बहुत बदल गया है.आप अपने इस यात्रा के संस्मरण कलमबद्ध करते रहें. आनन्द आ रहा है.

योगेन्द्र मौदगिल said...

Beshak.....
di panktiyan arz kartaa hoon ki

गांव भी अब तो शहर होने लगे
धूल, धूआं, फैक्टरी ढोने लगे
saadhuwaad

sandhyagupta said...

Gaon tezi se badal rahe hain lekin badlao ki disha nirsh karti hai.

guptasandhya.blogspot.com

पत्रकार said...

गांव तो बदले ही हैं साथ ही मैं गांव से दूर रह कर खुद में भी परिवर्तन महसूस कर रहा हूं। शहर धीरे-धीरे अलग दिशा में ले जा रहा है

डॉ .अनुराग said...

न अब गाँव वैसे रहे न अब गाँव-वाले