माईक पाण्डेय ने एक सवाल के जवाब मे बताया कि हाथी वापस लौट रहे है अपने मूल स्थान की ओर्।उन्होने बताया कि छतीसगढ मे हाथीखोल नाम की जगह होना यंहा हाथियों के बहुतायत का सबूत है।उन्होने बताया कि 250 साल पहले सारे देश मे सबसे ज्यादा हाथी छत्तीसगढ मे ही होते थे।इस पर मैने उन्हे ऐतिहासिक स्थल मल्हार के बारे मे बताया कि वंहा हाथी के चित्र वाले सिक्के मिले है और बताया जाता है कि उस काल मे भारत मे हाथियो के व्यापार के लिये ये ईलाका मशहूर था।
हाथियो के उत्पात से छत्त्तीसगढ मे अब तक़ 100 से ज्यादा आदमी मर चुके हैं। करोडो रूपये की सम्पत्ति और फ़सल नष्ट हो चुकी है।100 से ज्यादा गांव बुरी तरह प्रभावित हैं। और हाथी हर साल की स्थाई समस्या हो गई है।
माईक ने कहा कि सारी समस्या हमारी खडी की हुई है। हाथियों को जंहा वे है,वंहा उनकी पसंद का खाना नही मिलता इसलिये वे यंहा चले आते हैं।जंगल काटोगे तो भुगतना तो पडेगा ही।उन्होने कहा प्रणियो मे मनुष्य सबसे बाद मे आया लेकिन अपनी असीमित ताक़त के बल पर वो मनमनी करता रहा है जिसके दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं।तितली और मधुमख्खी का उदाहरण देते हुये उन्होने कहा कि ये अगर दुनिया से खतम हो जाये तो कुछ समय बाद मनुष्य अपने आप खतम हो जायेगा,क्योंकि तितली और मधुमख्खी के नही होने से परागण रुक जायेगा।
हाथी को दुनिया का सबसे पहला खेती करने वाला बताते हुये माईक ने कहा कि हाथी कभी पेड से पूरे फ़ल नही तोडता।वो अच्छे और पके फ़ल खाता है और 60 किलोमीटर दुर जाकर उसे बाहर निकाल देता है।उस्के गोबर मे बिना पचे हुये बीज अंकुरित होते है और धिरे धीरे पेड मे बदल जाते है।वो पेड की कमज़ोर डंगाल तोडता है जिससे वंहा से नई कोंपले और शाखा फ़ूटती है।
उन्होने हाथी को इंसान का सबसे बडा दोस्त बताया।उनका कहना था कि हाथी भुख से व्याकुल होकर छत्तीसगढ कि ओर चला आता है और सरगुजा ईलाके मे आदिवासियो के यंहा जमा महुये की गंध उन्हे अपनी ओर खींच लेती है।इस समस्या से बचने के लिये कारीडोर बनाये जायेंगे।इसका नक्शा अमेरीकी सेटेलाईट ली मदद से सर्वे करके तैयार किया गया है।कोशिश ये की जायेगी की हाथियो के लौटने के रास्ते मे आने वाले गांवो के बाहर ट्रेंच खोदी जाय और उसके दूसरी ओर कटहल और महुआ के पेड लगाये जायें।इसके अलावा ट्रेण्ड हथियो की मदद से उत्पाती हाथी पर नियण्त्रण पाया जाय्। अमूमन झुण्ड मे एक ही हाथी उत्पाती होता है जिसे देखकर दुसरे भी वैसा ही करते हैं। माईक अपनी योजना मे कितने सफ़ल होते है ये तो समय बतायएगा मगर उनकी सेवाओ का लाभ सरकार कितना उठा पाती है ये भी देखने वाली बात होगी।
18 comments:
वातानूकुलित कमरो मे जब तक हाथियो के तांडव की चर्चा होती रहेगी तब तक कुछ नही होगा। हाथी विशेषज्ञ हाथियो की तरह ही छ्त्तीसगढ मे आते-जाते रहते है पर सिवाय चर्चा के कुछ नही होता। हाथी के लिये कटहल और महुआ की बात करते है पर उन सौ से अधिक प्रकार की वनस्पतियो को शायद ये नही जानते है जो हाथी को कटहल और महुआ से अधिक पसन्द है। माइक पांडेय, मुख्यमंत्री जी और वन अधिकारी आपस की चर्चा मे तब तक सफल नही हो पायेंगे जब तक कि आम जनता को भी विचार विमर्श मे शामिल नही किया जायेगा। हाथियो के उत्पात के भुक्तभोगी फारेस्ट गार्ड जितना हाथी के बारे ठोस सलाह दे सकते है उतनी शायद अफसर भी न दे पाये।
क्या छत्तीसगढ़ में हाथियों का उत्पात उत्तर-पूर्वांचल के हाथियों से भी ज्यादा होता है? अच्छी जानकारी मिली। अवधियाजी की टिप्पणी ज्ञानवर्धक है और संबंधित लोगों का ध्यानाकर्षण चाहती है।
माइक इस उम्र में भी स्लिम हैं...आपका अपने बारे में क्या ख्याल है?
bahut kuchh jankari mili aapke lekh se
जानकारी तो अच्छी है ,अवधिया जी की बातों से पूर्ण सहमति -आश्चर्य है कि मात्र एक बच्चा वह भी साल भर में केवल एक बार देने के बाद और जंगलों के कटते जाने की बाद भी हांथी अभी भी काफी हैं -यह तो छुपा हुआ वरदान है ! मेरे एक सर्वेक्षण के अनुसार कैन्त का बीज तो बिना हाथी के पेंट उसके फल को पहुंचे ठीक से अंकुरित ही नहीं होता -जैसे कैवलेरिया के पौधे डोडो के खात्में के बाद विलुप्त हो गए कहीं कैन्त (कपित्थ ) भी उसी राह पर न हो -जबकि यह फल हांथी को बहुत प्रिय है -कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणं -क्या कहना है अवधिया जी इस पर आपको ! यह मेरा अपना प्रेक्षण है क्या आप इससे सहमत हैं -मायिक पांडे जी से भी पून्छियेगा पुडसकर जी अगर वे चले न गए हों !
pankaj ji ki rai se ittefaq
बिल्कुल सही कह रहे हैं आप. हकीकत से वातानुकुलित कमरे की मिटिंग वाकिफ़ नही करा सकती.
रामराम.
'हाथी कभी पेड से पूरे फ़ल नही तोडता।वो अच्छे और पके फ़ल खाता है'--जानकारी के लिए आभार!
अवधिया जी का कथन सही है
पंकज जी सार गर्भित कह गये है ....
माननीय अरविन्द जी, हमारे यहाँ इसे कैथ या कैथा कहते है। यह निश्चित ही हाथियो का पसन्दीदा फल है। कैथा के बारे मे छत्तीसगढ मे समृद्ध पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान है। कैथा के पेड अभी भी छत्तीसगढ के उन भागो मे फल-फूल रहे है जहाँ से हाथी जा चुके है। बन्दर जैसे कुछ दूसरे जीव भे कैथा पसन्द करते है। हम लोगो ने प्रयोगशाला स्तर पर कैथा के अंकुरण पर अध्ययन किया है और नये पौधे तैयार करने मे सफलता प्राप्त की है। छत्तीसगढ मे कैथा के पेड कम हो रहे है पर इसका मुख्य कारण जलाउ लकडी के लिये इसके पेडो को काटना है।
छत्तीसगढ की 'ट्री शेड थेरेपी' मे कैथा की छाँव बहुत उपयोगी मानी जाती है। मधुमेह के रोगियो को भी दिन के विशेष समय इअकी छाँव मे बैठने के लिये कहा जाता है। नीचे कुछ चित्रो की कडियाँ है जो कैथा से सम्बन्धित है।
http://ecoport.org/ep?SearchType=pdb&PdbID=69419&subjectType=E&subjectId=6093
http://ecoport.org/ep?SearchType=pdb&PdbID=69411&subjectType=E&subjectId=6093
http://ecoport.org/ep?SearchType=pdb&PdbID=69385&subjectType=E&subjectId=6093
अरे जब तक इंसान इन जानवरो के घर को तोडेगा, तो यह बेचारे खाने के लिये बस्ती की तरफ़ ही तो आयेगे, बाकी अवधिया जी से पुर्ण्तया सहमत है.
अच्छा तो है लोहे से लोहे को कटा जाता है बिगडैल हाथी पर काबू तो पाया जा सकता है .
अच्छी खबर है छत्तीसगढ़ की ओर हाथी लौट रहे हैं। उन का स्वागत तो करना पड़ेगा। यह लक्ष्मी के वहाँ होने की साक्ष्य है।
अवधिया जी की बात से सहमत हैं। होना भी पड़ेगा, वे विषय पंडित हैं।
अवधिया जी से पूरी सहमति..
अच्छी जानकारी दी है। अवधिया जी की बातों से पूर्ण सहमति।
gyanvardhak lekh hai.bahut khubsurat likha hai aapne.kabhi mere blog par bhi aayen.
www.salaamzindadili.blogspot.com
हाथियों के बारे में ये सब तो पता ही नहीं था....जानकारी देने के लिए धन्यवाद.....साथ ही पंकज अवधिया जी का भी आभार करता चलूँ, बहुत सार्थक मुद्दा उठाया है उन्होनें.....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
माईक जी तो मिसाल है
उनकी बातें बेमिसाल हैं
वे जितना बताते हैं
उस पर अमल हम
कहां कर पाते हैं
सिर्फ जान पाते हैं
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