कल संजीव तिवारी की पोस्ट पढ कर लगा कि इन सब फ़ालतू विवादों मे समय नष्ट नही करना चाहिये और मैने इस पर एक शब्द भी नही लिखने का फ़ैसला ले लिया।और आज पंकज के रोचक अनुभव देखे तो होश उड़ गये।उन्होने मीट मे आपस की बातचीत तो लिखी मगर साथ मे भी ये भी लिख दिया कि बैठक के गुप्त उद्देश्य से एक ब्लागरों के एक बड़े वर्ग को परेशानी थी और वे इससे दूर रहे।ऐसा लगा की कोई शानदार रबड़ी-मलाई के ऊपर मरी हुई छिपकली रख कर सर्व कर रहा हो।न चाह कर भी इस बारे मे फ़िर से लिखना पढ रहा है क्योंकि आरोप मामूली नही गंभीर है।अब आप लोग ही बताईये भला ब्लागरों की सामान्य मेल-मुलाकात वाली बैठक के क्या गुप्त उद्देश्य हो सकते हैं?
मैने पंकज जी का नाम पहली बार अपनी पोस्ट मे लिखा है वो भी इसलिये कि कुछ लोगों को बिना नाम की ये पहेली समझ नही आ रही थी और कुछ लोग जानना चाहते थे कि किसने क्या कहा?बस इसलिये मैने आज पंकज जी के नाम से ये पोस्ट शुरू की है।जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं कि ये मीट महज़ कुछ ब्लागरों के आपस मे मिलने का प्रोग्राम था जो बाद मे ब्लागर मीट मे बदल गया।इसकी शुरुआत राजकुमार ग्वालानी और पाब्ला जी के बीच फ़ोन पर हुई बातचीत से हुई।राजकुमार ने पाबला जी से बहुत दिनों से मुलाकात नही होने का ज़िक्र किया तो उन्होने भिलाई के साथियों समेत रायपुर आने की बात कही।इस पर राजकुमार ने उन्हे निमंत्रण दे दिया और ललित के साथ मिलकर कार्यक्रम तय कर लिया।किसी कारण से मैं उस दिन व्य्स्त था सो उन्होने कार्यक्रम आगे बढा दिया और फ़िर वो दूसरे इतवार को हुआ।इस लिहाज़ से ब्लागर मीट के आयोजक हुये राजकुमार,ललित शर्मा और पाब्ला जी।
इसके बाद डा महेश सिन्हा ने सारे कार्यक्रम को सुव्यवस्थित करने के मुझे निर्देश दिये जिसके बाद मीट के लिये ब्लागरों से सम्पर्क और उन्हे निमंत्रण देने का काम किया बी एस पाब्ला जी,संजीव तिवारी और संजीत त्रिपाठी ने,उनका साथ दिया डा महेश सिन्हा ने।सब ने खूब मेहनत की और छत्तीसगढ के ब्लागरों का एक डाटा भी तैयार किया।करीब अस्सी लोगो के बारे जानकारी मिली और उनमे से कुछ ने बाहर होने की सूचना दी और कुछ ने आने की सहमती।सम्पर्क का काम जिस टीम ने किया उनमे से पाब्ला जी के पास पूरा डाटा अभी भी उपलब्ध है जिसे ज़रुरत हो वो उनसे पूछ सकता है।
अब जिस मीट की रूपरेखा राजकुमार,ललित और पाबला जी ने तय की हो तो उस मीट का अगर कोई गुप्त उद्देश्य होगा तो वो उन्हे ही पता होगा और इसलिये पंकज को पता लगे इस गुप्त उद्देश्य के बारे मे उन्हे बताना चाहिये।कायदे से तो पंकज के सारे सवालों का जवाब भी उन्हे ही देना चाहिये मगर जब किसी ने कुछ नही कहा तो मुझे जवाब देना पड़ा क्योंकि मैने उस मीट के लिये प्रेस क्लब जैसा अच्छा स्थान उपलब्ध कराने की गलती की थी।गल्ती की थी सो भुगत रहा हूं,सब ने मीट की रिपोर्ट पोस्ट की और मैं सफ़ाई कर रहा हूं।खैर गलती एक बार होती है बार-बार नही।वैसे भी पिछली पोस्ट मे मिली एक सलाह मुझे जम गई जिससे मिलना हो अकेले मिलो।सो अब जिससे मिलेंगे अकेले ही मिल लेंगे।ये गुप्त एजेंडा लेकर किसी मीट मे शामिल नही होंगे।हां ब्लागस पर एक वर्कशाप के आयोजन का फ़ैसला जो पिछली मीट मे खुलेआम लिया गया था उसे ज़रूर ज़ल्द ए ज़ल्द पूरा कर देंगे और उसके बाद चल अकेला चल अकेला।
पंकज अवधिया को लगता है कि ब्लागर मीट का कोई गुप्त उद्देश्य था और इसलिये एक बड़ा वर्ग उससे दूर रहा!पाब्ला जी,राजकुमार और ललित बाबू आप लोगो को बताना चाहिये सच क्या है?
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Wednesday, February 3, 2010
Monday, February 1, 2010
ब्लागर मीट के बाद पता चला कि पार्क मे बैठ कर मूंगफ़ली और चना खाने वाले ही ईमानदार होते हैं,और समोसा उससे तो अब नफ़रत हो गई है!
रायपुर मे पहली बार राज्य स्तर की ब्लागर मीट की कोशिश की गई।कुछने इसे सफ़ल माना और कुछ ने……।खैर ये अच्छे संकेत है कि वैचारिक स्वतंत्रता के दूत ब्लागरों ने वैचारिक मतभेद भी खुल कर ज़ाहिर किये।सब कुछ ठीक रहा लेकिन जिस मीट को होने के पहले ही प्रायोजित बता कर असफ़ल करने की कोशिश की गई,उसके होने के बाद भी एकाध ब्लागर का सुर वैसा ही रहा।ये बात कुछ हज़म नही ठीक वैसे ही जैसे उन्हे मीट मे नाश्ते मे दिया गया समोसा हज़म नही हुआ।
खैर ये सब मुझे कहना नही चाहिये लेकिन बहुत दिनों से देख रहा हूं कि इस पर तरह-तरह के विचार सामने आये तो मुझे लगा कि मेरे मन मे धमाचौकड़ी मचा रहे विचारों को भी मन की कैद से मुक्ति मिलनी चाहिये और ब्लाग जगत के अनंत कैनवास पर मनचाहे ढंग से पसरने का मौका भी मिलना चाहिये।सो मै भी हाज़िर हूं अपने अनुभव लेकर।मैने मीट के शुरू होते ही ये साफ़ कर दिया था कि किस तरह से इसके प्रायोजित होने का दुष्प्रचार किया जा रहा है।और ये भी बता दिया था कि आयोजन प्रेस क्लब का है और नाश्ते की मिठाई डा महेश सिन्हा लाये हैं।मैं आपको बता दूं कि रायपुर प्रेस क्लब अपना हाल तमाम साहित्यिक और समाज सेवा से जुडी अन्य गतिविधियों के लिये निशुल्क उपलब्ध कराता है।पुस्तको का विमोचन भी यंहा होता है और कविता-पाठ से लेकर साहित्य पर गोष्ठी भी होती है।और इससे पहले भी यंहा ब्लागर इकट्ठा हो चुके हैं।
रहा सवाल इस मीट का तो, उसका स्वरूप वैसा नही था जैसी मीट हुई।वो महज कुछ ब्लागरों के आपस मे मिलने का कार्यक्रम था और ये तय हुआ था राजकुमार ग्वालानी,ललित शर्मा और बी एस पाब्ला जी के बीच्।राजकुमार ने पाब्ला जी को फ़ोन लगाया था और बातचीत के दौरान उसने बहुत दिनों से मुलाकात नही होने की बात कही।पाब्ला जी ने कहा जब चाहे मिल लेते हैं तो राजकुमार ने रविवार का दिन तय कर लिया और पाब्ला जी को रायपुर बुला लिया क्योंकि इससे पहले हम सब लोग भिलाई जा कर बेहद आत्मीय स्वागत का मज़ा ले चुके थे।राजकुमार ने मुझे बताया कि ऐसा कार्यक्रम तय हुआ है तो मैने भी हां कर दी और स्थान नीयत किया गया प्रेस क्लब।उसके बाद कौन आ रहा है और कार्यक्रम कैसा होगा ये हम लोगों को किसी को नही पता था।
इत्तफ़ाक़ से रविवार को प्रेस क्लब मे एक आवश्यक बैठक हो गई और उसके बाद मुझे पार्षदों के सम्मान समारोह मे जाना था।सो मैने राजकुमार से बैठक मे न आ पाने के लिये क्षमा मांग ली और सारी व्यवस्था प्रेस क्लब मे कर देने की बात कही।पता नही क्यों राजकुमार ललित शर्मा और पाब्ला जी को लगा कि मैं नही रहुंगा तो मज़ा नही आयेगा और उन्होने बैठक स्थगित करके अगले रविवार के लिये टाल दी।ये उन लोगों का मेरे लिये प्यार था और ये उनका बडप्पन भी जिसका मैं हमेशा आभारी रहुंगा।लगता है भूमिका कुछ ज्यादा बड़ी हो गई दरअसल उस सम्मेलन से जुड़ी भावनायें भी बहुत थी शायद इसलिये ऐसा हो रहा है।
खैर मैं आता हूं अब असली मुद्दे पर।तो ब्लागर मीट के बाद एक ब्लागर भाई के अनुभवों ने तो मुझे ज़मीन ट्च कर दिया।मुझे आज तक़ पता ही नही था कि अगर आप बैठक मे मूंगफ़ली या चनाबूट(हरे चने की गड्डी)नही खाते हैं तो आप ईमानदार नही कहला सकते।साला इतने साल से ईमानदार कहलाने के लिये दर-दर भटक-भटक के सर्टिफ़िकेट ढूंढ रहा था,मुझे नही मालूम था कि वो पार्क की घास पर बैठ कर चना खाने मात्र से मिल जाता है।जय हो ब्लाग जगत की।इतना महान ज्ञान और इतना आसान तरीका।हम मूर्ख हैं जो आज तक़ क्लब के बगल के पार्क मे बैठ कर एक ठो फ़ोटो नही खिंचवा पाये।अब सारे फ़ोटोग्राफ़रो को कह दिया है हमारा चना खाते हुये फ़ोटो ही खिंचा जाये और छापा जाये।
उन्ही महान और अनुभवी ब्लागर के ज्ञान भंडार से मुझे ये भी पता चला कि उस दिन मीट मे नाश्ते मे दिया गया समोसा उन्हे नही पचा।बाकि लोगों को तो पच गया और अगर ऐसा हुआ है तो वे किस श्रेणी मे आते है इस बारे मे उन विद्वान महोदय से जानने मिलेगा शायद।एक बात और उन्होने साधारण सी बैठक को भव्य आयोजन भी बता दिया।रोज़ सैकड़ो कप चाय प्रेस क्लब मे बनती है और निशुःलक पिलाई जाती हैं।नाश्ते मे एक समोसा,दो बिस्किट,थोड़े से आलू चिप्स और एक पीस मिठाई थी।ऐसा प्रेस क्लब हर आयोजन मे करता है और इसे भव्य तो कतई नही कहा जा सकता।मिठाई के बारे मे पहले ही बता दिया गया था कि ये डा महेश सिन्हा लायें है और 50 लोगों के लिये समोसा बिस्किट और चिप्स पर जितना खर्च हुआ होगा उतना तो शायद साधारण से साधारण आदमी भी अपने घर आये मेहमान पर खर्च कर सकता है।मात्र कुछ सौ रूपये लगे होंगे जिसे प्रेस क्लब ने खर्च किये।इसमे उन सज्जन को जब धन्ना सेठ के रूपये की बू आई तो मुझे उन्की इस मनुष्यों मे नही पाई जाने वाली इन्द्रिय पर खूब जलन हुई।और एक बात और उन्हे शायद इसलिये वो समोसा पचा नही,लेकिन उन्होने वो समोसा छोड़ा नही पूरा खाया।
अकेले वो ही थे जिन्हे ऐसा लगा कि कोई उन्हे एक समोसा खिलाकर पुतलियों की तरह नचा सकता है।वे किसी धन्ना सेठ के हाथो न नाचना चाहते है और न दूसरे ब्लागरों को नाचते देखना चाहते हैं।मुझे याद है इससे पहले भी उन्हे कई बार बुलाया गया मगर उन्होने आना ज़रूरी नही समझा और इस बार आये भी पता नही क्या-क्या उन्हे नज़र आ गया जो किसी और को नज़र नही आया।उदाहरण के लिये उन्हे ब्लागर मीट मे स्कूल के समय की गुटबाज़ी याद आ गई।ये उनका कहना और इससे ही समझ मे आ जाता है कि उन्हे स्कूल के समय से ही गुटबाज़ी की आदत है और वे इसे न तो भूले है और न भूलना चाहते हैं।पता नही उन्हे किस व्यक्ति के व्यापारिक उद्देश्य और निजी खुन्नस नज़र आ गई और कैसे और किसने उसे छतीसगढ से जोडा?खैर जो स्कूल के समय से गुटबाज़ी करता आ रहा हो उसके अनुभव सिर्फ़ और सिर्फ़ गुटबाज़ी के काम ही आयेंगे।अभी तक़ छतीसगढ के ब्लागरों मे गुटबाज़ी नही है लेकिन इनके अनुभव शायद ये महान और पवित्र काम भी कर देंगे।कहने को अभी और भी बहुत कुछ है लेकिन सब एक बार मे नही।मिलते है एक कमर्शियल ब्रेक के बाद। हम सब समोसा खाने वालों को तो उन्होने व्यापारिक उद्देश्य के लिये किसी धन्ना सेठ के इशारे पर नाचने वाली पुतली कह ही दिया है। और हां उन्हे आज भी छतीसगढ की पहली ब्लागर मीट का इंतज़ार है तो देर किस बात की दोस्त दम है तो करवा के देख लो हम भी आयेंगे और चना ही खा लेंगे मगर खाने के बाद ये नही कहेंगे कि साला चना पचा नही। हा हा हा हा।
खैर ये सब मुझे कहना नही चाहिये लेकिन बहुत दिनों से देख रहा हूं कि इस पर तरह-तरह के विचार सामने आये तो मुझे लगा कि मेरे मन मे धमाचौकड़ी मचा रहे विचारों को भी मन की कैद से मुक्ति मिलनी चाहिये और ब्लाग जगत के अनंत कैनवास पर मनचाहे ढंग से पसरने का मौका भी मिलना चाहिये।सो मै भी हाज़िर हूं अपने अनुभव लेकर।मैने मीट के शुरू होते ही ये साफ़ कर दिया था कि किस तरह से इसके प्रायोजित होने का दुष्प्रचार किया जा रहा है।और ये भी बता दिया था कि आयोजन प्रेस क्लब का है और नाश्ते की मिठाई डा महेश सिन्हा लाये हैं।मैं आपको बता दूं कि रायपुर प्रेस क्लब अपना हाल तमाम साहित्यिक और समाज सेवा से जुडी अन्य गतिविधियों के लिये निशुल्क उपलब्ध कराता है।पुस्तको का विमोचन भी यंहा होता है और कविता-पाठ से लेकर साहित्य पर गोष्ठी भी होती है।और इससे पहले भी यंहा ब्लागर इकट्ठा हो चुके हैं।
रहा सवाल इस मीट का तो, उसका स्वरूप वैसा नही था जैसी मीट हुई।वो महज कुछ ब्लागरों के आपस मे मिलने का कार्यक्रम था और ये तय हुआ था राजकुमार ग्वालानी,ललित शर्मा और बी एस पाब्ला जी के बीच्।राजकुमार ने पाब्ला जी को फ़ोन लगाया था और बातचीत के दौरान उसने बहुत दिनों से मुलाकात नही होने की बात कही।पाब्ला जी ने कहा जब चाहे मिल लेते हैं तो राजकुमार ने रविवार का दिन तय कर लिया और पाब्ला जी को रायपुर बुला लिया क्योंकि इससे पहले हम सब लोग भिलाई जा कर बेहद आत्मीय स्वागत का मज़ा ले चुके थे।राजकुमार ने मुझे बताया कि ऐसा कार्यक्रम तय हुआ है तो मैने भी हां कर दी और स्थान नीयत किया गया प्रेस क्लब।उसके बाद कौन आ रहा है और कार्यक्रम कैसा होगा ये हम लोगों को किसी को नही पता था।
इत्तफ़ाक़ से रविवार को प्रेस क्लब मे एक आवश्यक बैठक हो गई और उसके बाद मुझे पार्षदों के सम्मान समारोह मे जाना था।सो मैने राजकुमार से बैठक मे न आ पाने के लिये क्षमा मांग ली और सारी व्यवस्था प्रेस क्लब मे कर देने की बात कही।पता नही क्यों राजकुमार ललित शर्मा और पाब्ला जी को लगा कि मैं नही रहुंगा तो मज़ा नही आयेगा और उन्होने बैठक स्थगित करके अगले रविवार के लिये टाल दी।ये उन लोगों का मेरे लिये प्यार था और ये उनका बडप्पन भी जिसका मैं हमेशा आभारी रहुंगा।लगता है भूमिका कुछ ज्यादा बड़ी हो गई दरअसल उस सम्मेलन से जुड़ी भावनायें भी बहुत थी शायद इसलिये ऐसा हो रहा है।
खैर मैं आता हूं अब असली मुद्दे पर।तो ब्लागर मीट के बाद एक ब्लागर भाई के अनुभवों ने तो मुझे ज़मीन ट्च कर दिया।मुझे आज तक़ पता ही नही था कि अगर आप बैठक मे मूंगफ़ली या चनाबूट(हरे चने की गड्डी)नही खाते हैं तो आप ईमानदार नही कहला सकते।साला इतने साल से ईमानदार कहलाने के लिये दर-दर भटक-भटक के सर्टिफ़िकेट ढूंढ रहा था,मुझे नही मालूम था कि वो पार्क की घास पर बैठ कर चना खाने मात्र से मिल जाता है।जय हो ब्लाग जगत की।इतना महान ज्ञान और इतना आसान तरीका।हम मूर्ख हैं जो आज तक़ क्लब के बगल के पार्क मे बैठ कर एक ठो फ़ोटो नही खिंचवा पाये।अब सारे फ़ोटोग्राफ़रो को कह दिया है हमारा चना खाते हुये फ़ोटो ही खिंचा जाये और छापा जाये।
उन्ही महान और अनुभवी ब्लागर के ज्ञान भंडार से मुझे ये भी पता चला कि उस दिन मीट मे नाश्ते मे दिया गया समोसा उन्हे नही पचा।बाकि लोगों को तो पच गया और अगर ऐसा हुआ है तो वे किस श्रेणी मे आते है इस बारे मे उन विद्वान महोदय से जानने मिलेगा शायद।एक बात और उन्होने साधारण सी बैठक को भव्य आयोजन भी बता दिया।रोज़ सैकड़ो कप चाय प्रेस क्लब मे बनती है और निशुःलक पिलाई जाती हैं।नाश्ते मे एक समोसा,दो बिस्किट,थोड़े से आलू चिप्स और एक पीस मिठाई थी।ऐसा प्रेस क्लब हर आयोजन मे करता है और इसे भव्य तो कतई नही कहा जा सकता।मिठाई के बारे मे पहले ही बता दिया गया था कि ये डा महेश सिन्हा लायें है और 50 लोगों के लिये समोसा बिस्किट और चिप्स पर जितना खर्च हुआ होगा उतना तो शायद साधारण से साधारण आदमी भी अपने घर आये मेहमान पर खर्च कर सकता है।मात्र कुछ सौ रूपये लगे होंगे जिसे प्रेस क्लब ने खर्च किये।इसमे उन सज्जन को जब धन्ना सेठ के रूपये की बू आई तो मुझे उन्की इस मनुष्यों मे नही पाई जाने वाली इन्द्रिय पर खूब जलन हुई।और एक बात और उन्हे शायद इसलिये वो समोसा पचा नही,लेकिन उन्होने वो समोसा छोड़ा नही पूरा खाया।
अकेले वो ही थे जिन्हे ऐसा लगा कि कोई उन्हे एक समोसा खिलाकर पुतलियों की तरह नचा सकता है।वे किसी धन्ना सेठ के हाथो न नाचना चाहते है और न दूसरे ब्लागरों को नाचते देखना चाहते हैं।मुझे याद है इससे पहले भी उन्हे कई बार बुलाया गया मगर उन्होने आना ज़रूरी नही समझा और इस बार आये भी पता नही क्या-क्या उन्हे नज़र आ गया जो किसी और को नज़र नही आया।उदाहरण के लिये उन्हे ब्लागर मीट मे स्कूल के समय की गुटबाज़ी याद आ गई।ये उनका कहना और इससे ही समझ मे आ जाता है कि उन्हे स्कूल के समय से ही गुटबाज़ी की आदत है और वे इसे न तो भूले है और न भूलना चाहते हैं।पता नही उन्हे किस व्यक्ति के व्यापारिक उद्देश्य और निजी खुन्नस नज़र आ गई और कैसे और किसने उसे छतीसगढ से जोडा?खैर जो स्कूल के समय से गुटबाज़ी करता आ रहा हो उसके अनुभव सिर्फ़ और सिर्फ़ गुटबाज़ी के काम ही आयेंगे।अभी तक़ छतीसगढ के ब्लागरों मे गुटबाज़ी नही है लेकिन इनके अनुभव शायद ये महान और पवित्र काम भी कर देंगे।कहने को अभी और भी बहुत कुछ है लेकिन सब एक बार मे नही।मिलते है एक कमर्शियल ब्रेक के बाद। हम सब समोसा खाने वालों को तो उन्होने व्यापारिक उद्देश्य के लिये किसी धन्ना सेठ के इशारे पर नाचने वाली पुतली कह ही दिया है। और हां उन्हे आज भी छतीसगढ की पहली ब्लागर मीट का इंतज़ार है तो देर किस बात की दोस्त दम है तो करवा के देख लो हम भी आयेंगे और चना ही खा लेंगे मगर खाने के बाद ये नही कहेंगे कि साला चना पचा नही। हा हा हा हा।
Tuesday, January 19, 2010
लाख चाह कर भी मैं बात नही कर पा रहा हूं ब्लाग परिवार के सदस्यों से!
इतने सुविधाभोगी हो गये हम कि लगता है सुविधाओं के गुलाम हो गये हैं।अब देखिये ना मैं नये साल पर और उसके बाद मकर संक्रांति पर ब्लाग परिवार के अपने रिश्तेदारों से बात करना चाहता था मगर चाह कर भी नही कर पाया।इसमे समय जैसी बेशकीमती चीज़ की कमी आड़े नही आई,आड़े आई तो बस हमारी सुविधाओं पर निर्भर रहने की गुलामप्रवृत्ति।मैं बात कर रहा हूं संचार सुविधाओं की।टेलीफ़ोन के बाद आये मोबाईल फ़ोन ने हमे अपना इतना आदि बना दिया है कि ऐसा लगता है कि अब उसके बिना गुज़ारा मुश्किल हो गया है।
जीं हा मोबाईल के कारण ही मैं अपने ब्लागर रिश्तेदारों से बात नही कर पाया।मेरा मोबाईल खो गया और उसी के साथ-साथ पिछले दस-बार्ह सालों से इकट्ठा किये गये नम्बर भी।अब इसे मेरी अलाली कहिये या अज्ञान मैने कभी उन नम्बरों की सीडी बना कर सुरक्षित रखने के बारे मे सोचा तक़ नही।नतीज़ा अब पछतावे का होत है जब चोर ले गया मोबाईल।मैं आज-तक़ मोबाईल फ़ोन बदलने के साथ ही नम्बरों को उस्मे ट्रांसफ़र करवाता आ रहा हूं।फ़ोन विक्रेता जीतू(यंहा की जानी-मानी शाप तोहफ़ा का मालिक है वो) बार-बार कहता रहा कि सारे फ़ोन नम्बर कम्प्यूटर मे स्टोर कर ले पर यंहा तो आत्मविश्वास म्यूनिसीपाल्टी के बिना टोंटी वाले नल की तरह बह रहा था,सो उसकी बात नही मानी,और अब माथा पकड़ कर बैठें हैं।
जब दोस्तों को भी पता चला कि मेरा फ़ोन चोरी हो गया है तो उन्होने उस चोर को ढूंढ कर ईनाम देने का प्रस्ताव रख दिया।उन लोगों को कहना था कि राक्षस(यानी मैं)का फ़ोन चुराना बड़े कलेजे का काम है ऐसे बहादुर का सम्मान किया जाना चाहिये।खैर अब फ़ोन जा चुका है और उसके साथ ही सारे नम्बर भी।अब याद करो तो भी नम्बर याद नही आते और नम्बर बदलने वाले दोस्तों का नम्बर तो सोच भी नही सकते।1250 फ़ोन नम्बर थे उस फ़ोन में।डबल सीम का फ़ोन लेने के बाद उसमे एक फ़ोन पर बात करते समय दूसरे का एंगेज़ होना और उस पर आई काल को खूद काल करना अखरता था।फ़िर एक नम्बर जानने वाले को दूसरे नम्बर से लगाओ तो उसका जवाब होता था मैने तो आपको काल किया ही नही।फ़िर अपना नाम बताओ तो अरे हां भाईसाब या अरे हां सर या अबे तू से शुरू होता था बातचीत का सिलसिला।कई बार अन्जान नम्बर को देख कर उसे याद करने कोशिश और चिड़चिड़ाना,ये सब देख कर सब दोस्त यही सलाह देते थे कि डबल सीम वाले एक फ़ोन की बजाये दो अलग फ़ोन रखो तो झंझट से बचोगे।सही कहते थे वो और उनकी सलाह पर मैने एक नया फ़ोन लेकर दोनो फ़ोन अलग कर लिये थे।इस बार जीतू की दुकान मे भीड होने के कारण नम्बर बाद मे ट्रांसफ़र करा लूंगा सोच कर दूसरे फ़ोन मे नम्बर नही सेव करवा पाया था और दूसरा फ़ोन चोरी हो गया।
टेलीफ़ोन के ज़माने मे मुझे याद है सारे दोस्तो और रिश्तेदारों के अलावा भी मुझे सरकारी दफ़्तरों और नेताओं के नम्बर मुंह-जबानी याद थे।नम्बर याद रखना मेरा शौक था और मैं पाकेट टेलिफ़ोन डायरी तक़ नही रखता था।दोस्तों को या अख़बार के दफ़्तर मे भी किसी को नम्बर पूछना होता था सीधे मुझसे पूछ लेते थे।टेलिफ़ोन डाय्रेक्ट्री नही हूं बे कह कर मैं नम्बर बता कर खुश होता था।कहने का मतलब ये कि उस समय दिमाग पर भी ज़ोर दिया जाता था क्योंकि टेलिफ़ोन मे नम्बर सेव नही होते थे।लेकिन मोबाईल फ़ोन के आते ही नम्बर याद रखने की आदत छूटती चली गई और फ़ोन कान्टेक्ट मे असीमित नमब्र सेव करने की सुविधा भी मिलने लगी और नम्बर डाय्ल करने की खटखट से भी बचाव होने लगा।सो लोग मोबाईल पर निर्भर होने लगे और मैं भी।
अब फ़ोन चोरी होने के बाद हालत ये है कि रायपुर मे आयोजित ब्लागर मीट मे उपस्थित नही हो पाने की सूचना देने के लिये मुझे राजतंत्र वाले साथी ब्लागर राजकुमार ग्वालानी का नम्बर प्रेस क्लब के स्टाफ़ से लेना पड़ा।फ़िर पाब्ला जी से बात करने के लिये राजकुमार से उनका नम्बर लेना पड़ा।टंकी पर चढे अजय झा का नम्बर नही होने के कारण उनसे नीचे उतरने के लिये फ़ोन पर चर्चा नही कर पाया।ब्लागर भाई कुलवंत हैप्पी के एसएमएस को नम्बर फ़ीड़ नही होने के कारण पह्चान नही पाया और सुबह-सुबह उन्हे एसएमएस के नम्बर पर फ़ोन लगा कर उनकी नींद खराब कर दी।ऐसे बहुत से प्राब्लम रिश्तेदारों से बात करने मे भी आ रहे थे।उनके नम्बर तो मैने छोटे भाई से ले लिये पत्रकार साथियों के नम्बर प्रेस क्लब की डाय्रेक्टरी से ले लिये प्राब्लम आ रहा है तो बस अपने ब्लागर साथियों के नम्बर इक्ट्ठा करने में।सोचा सबसे अलग-अलग नम्बर मांगने से अच्छा है कि एक पोस्ट इस पर लिख मारूं और बात नही कर पाने का दर्द बयां करने के साथ ही उनसे उनके नम्बर भी मांग लूं।सो भाईयो और बहनो जिन्हे ऐसा लगता हि कि मुझे नम्बर दे देने चाहिये दे सकते हैं,चाहे कमेण्टस के जरिये या फ़िर मेल से।जो नम्बर दे उसका भला और जो ना दे उसका भी भला।
भूल सुधार आदरणीय खुशदीप जी ने इस बारे मे ध्यान दिलाई कि मैंने नम्बर तो मांगे लेकिन अपना नम्बर और ई-मेल एड्रेस नही दिया जिस पर नम्बर भेजा जा सके,सो भाई खुशदीप की आज्ञा का पालन करते हुये मैं अपने नम्बर दे रहा हुं।
09827138888 और 09425203182
ई-मेल एड्रेस है. मेरे खयाल से अब किसी को परेशानी नही होना चाहिये।वैसे सबसे पहले अनूप शुक्ल जी ने नम्बर भेज दिया और उन्ही से आदरणीय ज्ञान जी का नम्बर भी मिल गया।आदरणीय डा महेश सिन्हा भैया और खुशदीप का भी नम्बर मिल गया।जिन्होने दिया उनका भला और जो देने वाले हैं उनका भी और जो नही देंगे उनका भी।
anil.pusadkar@gmail.com
जीं हा मोबाईल के कारण ही मैं अपने ब्लागर रिश्तेदारों से बात नही कर पाया।मेरा मोबाईल खो गया और उसी के साथ-साथ पिछले दस-बार्ह सालों से इकट्ठा किये गये नम्बर भी।अब इसे मेरी अलाली कहिये या अज्ञान मैने कभी उन नम्बरों की सीडी बना कर सुरक्षित रखने के बारे मे सोचा तक़ नही।नतीज़ा अब पछतावे का होत है जब चोर ले गया मोबाईल।मैं आज-तक़ मोबाईल फ़ोन बदलने के साथ ही नम्बरों को उस्मे ट्रांसफ़र करवाता आ रहा हूं।फ़ोन विक्रेता जीतू(यंहा की जानी-मानी शाप तोहफ़ा का मालिक है वो) बार-बार कहता रहा कि सारे फ़ोन नम्बर कम्प्यूटर मे स्टोर कर ले पर यंहा तो आत्मविश्वास म्यूनिसीपाल्टी के बिना टोंटी वाले नल की तरह बह रहा था,सो उसकी बात नही मानी,और अब माथा पकड़ कर बैठें हैं।
जब दोस्तों को भी पता चला कि मेरा फ़ोन चोरी हो गया है तो उन्होने उस चोर को ढूंढ कर ईनाम देने का प्रस्ताव रख दिया।उन लोगों को कहना था कि राक्षस(यानी मैं)का फ़ोन चुराना बड़े कलेजे का काम है ऐसे बहादुर का सम्मान किया जाना चाहिये।खैर अब फ़ोन जा चुका है और उसके साथ ही सारे नम्बर भी।अब याद करो तो भी नम्बर याद नही आते और नम्बर बदलने वाले दोस्तों का नम्बर तो सोच भी नही सकते।1250 फ़ोन नम्बर थे उस फ़ोन में।डबल सीम का फ़ोन लेने के बाद उसमे एक फ़ोन पर बात करते समय दूसरे का एंगेज़ होना और उस पर आई काल को खूद काल करना अखरता था।फ़िर एक नम्बर जानने वाले को दूसरे नम्बर से लगाओ तो उसका जवाब होता था मैने तो आपको काल किया ही नही।फ़िर अपना नाम बताओ तो अरे हां भाईसाब या अरे हां सर या अबे तू से शुरू होता था बातचीत का सिलसिला।कई बार अन्जान नम्बर को देख कर उसे याद करने कोशिश और चिड़चिड़ाना,ये सब देख कर सब दोस्त यही सलाह देते थे कि डबल सीम वाले एक फ़ोन की बजाये दो अलग फ़ोन रखो तो झंझट से बचोगे।सही कहते थे वो और उनकी सलाह पर मैने एक नया फ़ोन लेकर दोनो फ़ोन अलग कर लिये थे।इस बार जीतू की दुकान मे भीड होने के कारण नम्बर बाद मे ट्रांसफ़र करा लूंगा सोच कर दूसरे फ़ोन मे नम्बर नही सेव करवा पाया था और दूसरा फ़ोन चोरी हो गया।
टेलीफ़ोन के ज़माने मे मुझे याद है सारे दोस्तो और रिश्तेदारों के अलावा भी मुझे सरकारी दफ़्तरों और नेताओं के नम्बर मुंह-जबानी याद थे।नम्बर याद रखना मेरा शौक था और मैं पाकेट टेलिफ़ोन डायरी तक़ नही रखता था।दोस्तों को या अख़बार के दफ़्तर मे भी किसी को नम्बर पूछना होता था सीधे मुझसे पूछ लेते थे।टेलिफ़ोन डाय्रेक्ट्री नही हूं बे कह कर मैं नम्बर बता कर खुश होता था।कहने का मतलब ये कि उस समय दिमाग पर भी ज़ोर दिया जाता था क्योंकि टेलिफ़ोन मे नम्बर सेव नही होते थे।लेकिन मोबाईल फ़ोन के आते ही नम्बर याद रखने की आदत छूटती चली गई और फ़ोन कान्टेक्ट मे असीमित नमब्र सेव करने की सुविधा भी मिलने लगी और नम्बर डाय्ल करने की खटखट से भी बचाव होने लगा।सो लोग मोबाईल पर निर्भर होने लगे और मैं भी।
अब फ़ोन चोरी होने के बाद हालत ये है कि रायपुर मे आयोजित ब्लागर मीट मे उपस्थित नही हो पाने की सूचना देने के लिये मुझे राजतंत्र वाले साथी ब्लागर राजकुमार ग्वालानी का नम्बर प्रेस क्लब के स्टाफ़ से लेना पड़ा।फ़िर पाब्ला जी से बात करने के लिये राजकुमार से उनका नम्बर लेना पड़ा।टंकी पर चढे अजय झा का नम्बर नही होने के कारण उनसे नीचे उतरने के लिये फ़ोन पर चर्चा नही कर पाया।ब्लागर भाई कुलवंत हैप्पी के एसएमएस को नम्बर फ़ीड़ नही होने के कारण पह्चान नही पाया और सुबह-सुबह उन्हे एसएमएस के नम्बर पर फ़ोन लगा कर उनकी नींद खराब कर दी।ऐसे बहुत से प्राब्लम रिश्तेदारों से बात करने मे भी आ रहे थे।उनके नम्बर तो मैने छोटे भाई से ले लिये पत्रकार साथियों के नम्बर प्रेस क्लब की डाय्रेक्टरी से ले लिये प्राब्लम आ रहा है तो बस अपने ब्लागर साथियों के नम्बर इक्ट्ठा करने में।सोचा सबसे अलग-अलग नम्बर मांगने से अच्छा है कि एक पोस्ट इस पर लिख मारूं और बात नही कर पाने का दर्द बयां करने के साथ ही उनसे उनके नम्बर भी मांग लूं।सो भाईयो और बहनो जिन्हे ऐसा लगता हि कि मुझे नम्बर दे देने चाहिये दे सकते हैं,चाहे कमेण्टस के जरिये या फ़िर मेल से।जो नम्बर दे उसका भला और जो ना दे उसका भी भला।
भूल सुधार आदरणीय खुशदीप जी ने इस बारे मे ध्यान दिलाई कि मैंने नम्बर तो मांगे लेकिन अपना नम्बर और ई-मेल एड्रेस नही दिया जिस पर नम्बर भेजा जा सके,सो भाई खुशदीप की आज्ञा का पालन करते हुये मैं अपने नम्बर दे रहा हुं।
09827138888 और 09425203182
ई-मेल एड्रेस है. मेरे खयाल से अब किसी को परेशानी नही होना चाहिये।वैसे सबसे पहले अनूप शुक्ल जी ने नम्बर भेज दिया और उन्ही से आदरणीय ज्ञान जी का नम्बर भी मिल गया।आदरणीय डा महेश सिन्हा भैया और खुशदीप का भी नम्बर मिल गया।जिन्होने दिया उनका भला और जो देने वाले हैं उनका भी और जो नही देंगे उनका भी।
anil.pusadkar@gmail.com
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राजकुमार ग्वालानी।
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