छत्तीसगढ़ की राजधानी में सरकारी और प्राइवेट डाक्टरों के मिलेजुले खेल में एक नन्हीं बच्ची की जान ले ली। जो कुछ यहां हुआ वो केवल डॉक्टरी पेशे नहीं बल्कि इंसानियत के माथे पर कलंक से कम नहीं है। अपनी मासूम बच्ची को लेकर उसका गरीब बाप इस डाक्टर से उस डाक्टर के दरवाजे एड़िया रगड़ता रहा। उसकी मिन्नतें, फरियाद कोई काम नहीं आई। तीन महीने तक इलाज के लिए तरसती बच्ची का मर्ज बढ़ता चला गया और आखिर उसकी जान चली गई।
दो वर्ष की मासूम आरती को दुनिया देखने से पहले ही दुनिया से विदा लेना पड़ गया। उसका दोश सिर्फ इतना था कि वो एक गरीब ग्रामीण परिवार में पैदा हुई जिसके पास मामूली बीमारी व इलाज कराने के लिए भी पैसे नहीं थे। डाक्टरों की लापरवाही और असंवेदनशीलता के बीच तीन महीनों तक आरती बीमारी से जूझती रही और आखिर में उसने इस निर्दयी जमाने से विदा ले लेना ही बेहतर समझा।
आरती के मामले को गौर से देखा जाये तो ढेरों सवाल उठ खड़े होते हैं और ऐसा लगता है कि आरती मरी नहीं बल्कि उसे मार डाला गया। राजधानी रायपुर जिले के कसडोल कस्बे के सुखलाल बंजारे की बेटी थी आरती। उम्र महज दो साल। आरती को सुखलाल ने तेज बुखार की शिकायत के बाद इलाज के लिये राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल डॉ.भीमराव आम्बेडकर अस्पताल में लाया था। 11 मार्च 2008 को उसकी बेटी आरती को वार्ड क्रमांक एक में भर्ती कर लिया गया।
उसके बाद चालू हुआ लापरवाही और असंवेदनशीलता का नंगा नाच जो उसकी मौत के बाद ही थमा। 45 दिनों तक डाक्टर आरती का पता नहीं कैसा इलाज कर रहें थे। इन 45 दिनों में उसकी बीमारी बढ़ती चली गई और नौबत आपरेशन तक आ गई। उसे वार्ड एक से वार्ड 21 रिफर कर दिया गया और यहां बताया गया के उसके सिर का आपरेशन होगा। अस्पताल में न्यूरोसर्जन नहीं होने की वजह से आपरेशन मानसेवी डाक्टर आपरेशन करेंगे।
इस वार्ड में आठ दिन गुजर जाने के बावजूद न आपरेशन हुआ और न उसका इलाज शुरू हा पाया। इस दौरान आरती का मजबूर बाप डाक्टरों की तलाश में भटकता रहा लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। हताश सुखलाल बंजारे ने मानसेवी डॉक्टर के निजी नर्सिंग होम में जाकर उनसे मुलाकात की और अपनी बेटी का हाल सुनाया।
यहां से आरती की फुटी तकदीर में और छेद हो गये। मानसेवी डॉक्टर ने इलाज का खर्च 40 हजार रूपये बताया और असमर्थतता जताने पर उसे वापसी का रास्ता दिखा दिया। इसके बाद सुखलाल ने फिर से सरकारी अस्पताल के डाक्टरों से मिन्नतें करनी शुरू की। तब डॉ. फुलझले ने उसे एक जूनियर डॉक्टर के साथ मानसेवी डॉक्टर के पास भेजा और उसकी मदद करने की सिफारिश कर दी। ये सिफारिश कथित मानसेवी डॉक्टर साहब को बुरी लगी और वे भड़क इलाज करने से साफ इंकार कर दिया।
डसके बाद तो बंजारे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टुट पड़ा। रात को 11 बजे उन्हें वार्ड से रवानगी का फरमान सुना दिया गया। रोता गाता सुखलाल की अस्पताल के ही एक अन्य डॉक्टर ने मदद की और आधी रात को अस्पताल छोड़कर जाने की बजाए फिर से वार्ड क्रमांक एक में रख लिया। यहां आरती फिर पड़ी रही और कुछ दिनों बाद जब उसकी तबियत बिगड़ी तो सुखलाल फिर उस मानसेवी डॉक्टर साहब की शरण में गया। इस बार डॉक्टर ने डॉक्टर होने की गर्मी कुछ ज्यादा ही दिखा दी। सुखलाल को डॉक्टर की सिफारिश के ताने के साथ नेताओं की सिफारिश से भी काम नहीं बनने की चेतावनी दे दी गई। और साथ ही एक डॉक्टर ने एक गरीब मरीज का इलाज नहीं करने का हिटलरी फरमान भी सुना डाला। मिन्नतें भी काम नहीं आई उल्टे उसे आरती की चिंता छोड़ दूसरा बच्चा पैदा करने की सलाह दे दी गई। एक डॉक्टर के मुॅह से ऐसी बात निकलेगी, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।
खैर डॉक्टर का रवैया देखकर सुखलाल ने अपने क्षेत्र के विधायक राजकमल ंसिंघानिया को सारी बात बताई। गुस्से से बौराए विधायक ने प्रेस कान्फ्रेंस बुलाई और उसके बाद अस्पताल में धरना दे दिया। उनके धरने के बाद अस्पताल प्रशासन की बेहोशी टुटी मगर वो पूरी तरह होश में नहीं आया। 13 मई को फिर से आरती को भर्ती किया गया। दो-तीन दिनों में आपरेशन करने का आश्वासन दिया गया। लेकिन आपरेशन हुई डेढ़ हफ्ते बाद और तब तक दर्द से तड़पती आरती उस राह तक चल पड़ी थीं जहां से कोई वापस नहीं आया।मासूम आरती को तो पता नहीं चला कि उसकी बीमारी के इलाज में क्या परेशानी हुई। एक डॉक्टर नहीं, अस्पताल नहीं बल्कि एक राज्य सरकार की व्यवस्था को नंगा करके रख दिया है आरती की मौत ने। ऐसे में डॉक्टरों को अगर मरीज के रिश्तेदार पीटतें हैं, अस्पताल में तोड़-फोड़ करते है तो फिर उन्हें सुरक्षा कवच की जरूरत क्यों पड़ती है। बहुत समय नहीं गुजरा है जब लोग डॉक्टरों को ीागवान मानते थे। सीमित साधनों में हाने वाले इलाज से ठीक होने वाला मरीज उसके परिजन डॉक्टर को भगवान का दर्जा देकर उसे डॉक्टर की कृपा मानते थे। दुर्भाग्य की बात है कि बहुत कम समय में डॉक्टरों ने अपना दर्जा खो दिया। अब कोई नहीं कहता है कि जाने दीजिए डॉक्टर साहब, भगवान की मर्जी ! आपने तो अपनी तरफ से पूरी मेहनत की। अब तो सीधे मामला उपभोक्ता फोरम से लेकर पुलिस और अदालत तक चला जाता है। इस बदलाव के लिये समाज में आई नैतिक गिरावट जितनी जिम्मेदार है उससे ज्यादा जिम्मेदार है डॉक्टर खुद। खासकर हाल ही में राज्य बने छत्तीसगढ़ की राजधानी में इलाज के लिए आई आरती की मौत के लिए जिम्मेदार लोग। चाहे वो सरकारी अस्पताल में डॉक्टरों की कमी हो, डॉक्टरों की लापरवाही हो या मानसेवी डॉक्टरों का लालच।
दो वर्ष की मासूम आरती को दुनिया देखने से पहले ही दुनिया से विदा लेना पड़ गया। उसका दोश सिर्फ इतना था कि वो एक गरीब ग्रामीण परिवार में पैदा हुई जिसके पास मामूली बीमारी व इलाज कराने के लिए भी पैसे नहीं थे। डाक्टरों की लापरवाही और असंवेदनशीलता के बीच तीन महीनों तक आरती बीमारी से जूझती रही और आखिर में उसने इस निर्दयी जमाने से विदा ले लेना ही बेहतर समझा।
आरती के मामले को गौर से देखा जाये तो ढेरों सवाल उठ खड़े होते हैं और ऐसा लगता है कि आरती मरी नहीं बल्कि उसे मार डाला गया। राजधानी रायपुर जिले के कसडोल कस्बे के सुखलाल बंजारे की बेटी थी आरती। उम्र महज दो साल। आरती को सुखलाल ने तेज बुखार की शिकायत के बाद इलाज के लिये राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल डॉ.भीमराव आम्बेडकर अस्पताल में लाया था। 11 मार्च 2008 को उसकी बेटी आरती को वार्ड क्रमांक एक में भर्ती कर लिया गया।
उसके बाद चालू हुआ लापरवाही और असंवेदनशीलता का नंगा नाच जो उसकी मौत के बाद ही थमा। 45 दिनों तक डाक्टर आरती का पता नहीं कैसा इलाज कर रहें थे। इन 45 दिनों में उसकी बीमारी बढ़ती चली गई और नौबत आपरेशन तक आ गई। उसे वार्ड एक से वार्ड 21 रिफर कर दिया गया और यहां बताया गया के उसके सिर का आपरेशन होगा। अस्पताल में न्यूरोसर्जन नहीं होने की वजह से आपरेशन मानसेवी डाक्टर आपरेशन करेंगे।
इस वार्ड में आठ दिन गुजर जाने के बावजूद न आपरेशन हुआ और न उसका इलाज शुरू हा पाया। इस दौरान आरती का मजबूर बाप डाक्टरों की तलाश में भटकता रहा लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। हताश सुखलाल बंजारे ने मानसेवी डॉक्टर के निजी नर्सिंग होम में जाकर उनसे मुलाकात की और अपनी बेटी का हाल सुनाया।
यहां से आरती की फुटी तकदीर में और छेद हो गये। मानसेवी डॉक्टर ने इलाज का खर्च 40 हजार रूपये बताया और असमर्थतता जताने पर उसे वापसी का रास्ता दिखा दिया। इसके बाद सुखलाल ने फिर से सरकारी अस्पताल के डाक्टरों से मिन्नतें करनी शुरू की। तब डॉ. फुलझले ने उसे एक जूनियर डॉक्टर के साथ मानसेवी डॉक्टर के पास भेजा और उसकी मदद करने की सिफारिश कर दी। ये सिफारिश कथित मानसेवी डॉक्टर साहब को बुरी लगी और वे भड़क इलाज करने से साफ इंकार कर दिया।
डसके बाद तो बंजारे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टुट पड़ा। रात को 11 बजे उन्हें वार्ड से रवानगी का फरमान सुना दिया गया। रोता गाता सुखलाल की अस्पताल के ही एक अन्य डॉक्टर ने मदद की और आधी रात को अस्पताल छोड़कर जाने की बजाए फिर से वार्ड क्रमांक एक में रख लिया। यहां आरती फिर पड़ी रही और कुछ दिनों बाद जब उसकी तबियत बिगड़ी तो सुखलाल फिर उस मानसेवी डॉक्टर साहब की शरण में गया। इस बार डॉक्टर ने डॉक्टर होने की गर्मी कुछ ज्यादा ही दिखा दी। सुखलाल को डॉक्टर की सिफारिश के ताने के साथ नेताओं की सिफारिश से भी काम नहीं बनने की चेतावनी दे दी गई। और साथ ही एक डॉक्टर ने एक गरीब मरीज का इलाज नहीं करने का हिटलरी फरमान भी सुना डाला। मिन्नतें भी काम नहीं आई उल्टे उसे आरती की चिंता छोड़ दूसरा बच्चा पैदा करने की सलाह दे दी गई। एक डॉक्टर के मुॅह से ऐसी बात निकलेगी, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।
खैर डॉक्टर का रवैया देखकर सुखलाल ने अपने क्षेत्र के विधायक राजकमल ंसिंघानिया को सारी बात बताई। गुस्से से बौराए विधायक ने प्रेस कान्फ्रेंस बुलाई और उसके बाद अस्पताल में धरना दे दिया। उनके धरने के बाद अस्पताल प्रशासन की बेहोशी टुटी मगर वो पूरी तरह होश में नहीं आया। 13 मई को फिर से आरती को भर्ती किया गया। दो-तीन दिनों में आपरेशन करने का आश्वासन दिया गया। लेकिन आपरेशन हुई डेढ़ हफ्ते बाद और तब तक दर्द से तड़पती आरती उस राह तक चल पड़ी थीं जहां से कोई वापस नहीं आया।मासूम आरती को तो पता नहीं चला कि उसकी बीमारी के इलाज में क्या परेशानी हुई। एक डॉक्टर नहीं, अस्पताल नहीं बल्कि एक राज्य सरकार की व्यवस्था को नंगा करके रख दिया है आरती की मौत ने। ऐसे में डॉक्टरों को अगर मरीज के रिश्तेदार पीटतें हैं, अस्पताल में तोड़-फोड़ करते है तो फिर उन्हें सुरक्षा कवच की जरूरत क्यों पड़ती है। बहुत समय नहीं गुजरा है जब लोग डॉक्टरों को ीागवान मानते थे। सीमित साधनों में हाने वाले इलाज से ठीक होने वाला मरीज उसके परिजन डॉक्टर को भगवान का दर्जा देकर उसे डॉक्टर की कृपा मानते थे। दुर्भाग्य की बात है कि बहुत कम समय में डॉक्टरों ने अपना दर्जा खो दिया। अब कोई नहीं कहता है कि जाने दीजिए डॉक्टर साहब, भगवान की मर्जी ! आपने तो अपनी तरफ से पूरी मेहनत की। अब तो सीधे मामला उपभोक्ता फोरम से लेकर पुलिस और अदालत तक चला जाता है। इस बदलाव के लिये समाज में आई नैतिक गिरावट जितनी जिम्मेदार है उससे ज्यादा जिम्मेदार है डॉक्टर खुद। खासकर हाल ही में राज्य बने छत्तीसगढ़ की राजधानी में इलाज के लिए आई आरती की मौत के लिए जिम्मेदार लोग। चाहे वो सरकारी अस्पताल में डॉक्टरों की कमी हो, डॉक्टरों की लापरवाही हो या मानसेवी डॉक्टरों का लालच।
3 comments:
आपकी बात ज़्यादा लोगों तक पहुँचनी चाहिए मैं अपने ब्लॉग पर आपकी इस पोस्ट का लिंक दे रहा हूँ
आपने ऐसा काम किया कि मैं अपने को शुक्रगुजार वाली स्थिति में पाता हूँ ।
आरती के साथ डाकटरों का व्यवहार वाकई शर्मनाक है। इसकी जितनी भी आलोचना की जाए कम है। सरकारी अस्पतालों के डाकटरों का अपने पेशे के प्रति इस तरह की बेईमानी पूरे कौम के लिए कलंक है। आपने कहा कि डाकटरों को भगवान का दर्जा देने की बात ज्यादा पुरानी नहीं है, लेकिन जिस तरह से डाकटरों ने लूट-खसोट मचा रखी है। उसके बाद तमाम धारणा धवस्त हो गई है। संवेदनशील मुद्दे को उठाने के लिए बधाई ।
Post a Comment