Sunday, June 22, 2008

लोकतंत्र के चारों खंभे हिल रहें है- डॉ.नामवर सिंह


डॉ नामवर सिंह ने जब बोलना शुरू किया तो व बोलते चले गये। सब बुत बनकर सुनते रहे लोकतंत्र की दुर्दशा पर बेहद सादगी और संजीदगी से डॉ.नामवर सिंह सब कुछ साफ-साफ कह गए। उन्होने कहा कि लोकतंत्र के चारों खंभे हिल रहें है। इत्तेफाक से लोकतंत्र के तीन खंभे तो वहां मौजूद थे और खामोशी से सारी बातें सुनना उनकी मौन स्वीकृति से कम नहीं था।


मौका था 18 जून 2008 को छत्तीसगढ़ के जाने माने पत्रकार दिवाकार मुक्तिबोध की पहली किताब 'इस राह से गुजरते हुए' के विमोचन का । डॉ नामवर सिंह ने उनकी किताब का विमोचन करने के बाद कहा कि उगते पौधे को नापा नहीं जाता । उन्होंने कहा कि वे बेहद खुश है कि गजानन माधव मुक्तिबोध के एक पुत्र ने तो कम से कम पत्रकारिता को चुना। हालांकि गजानन माधव मुक्तिबोध के कनिष्ठ पुत्र गिरीश भी पत्रकार है और ये बात शायद डॉ सिंह को पता नहीं थी। खैर जब डॉ नामवर सिंह को व्यावसायिक दबाव और पक्षधर पत्रकारिता पर बोलने के लिए कहा गया तो अपने स्वभाव ओर ख्याति के अनुरूप उन्होने विषय की जमकर आलोचना की और उसे सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा दबाव जैसे भ्रामक शब्द का इस्तेमाल करने की बजाय यहां प्रलोभन शब्द का इस्तेमाल होना था। उन्होंने साफ साफ कहा कि पत्रकारिता पर दबाव का नहीं प्रलोभन का खतरा ज्यादा है ।

पत्रकारों,अफसरों, नेताओं और साहित्यकारों से खचाखच भरे रायपुर प्रेस क्लब के हाल में डॉ . सिंह, सिंह की तरह बोलते चले गये। सब खामोश सुनते रहे । सुनने वालों में प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ।रमन सिंह समेत सारे दिग्गज आईएएस अफसर, जानेमाने पत्रकार और साहित्यकार शामिल थे। डॉ नामवर सिंह ने जो लय पकड़ी तो लगभग घंटे भर तक उन्होंने मुस्कुरा-मुस्कुरा कर देश के मौजुदा हालात का पोस्टमार्टम कर दिया। हाँ उन्होंने अपने व्याख्यान के दौरान निष्पक्ष शब्द की एक नई परिभाषा रखी। उन्होंने अपने ठेठ बनारसी अंदाज में कहा कि निष्पक्ष के मायने बिकाउ होता है। उन्होंने कहा कि जो ये कहे कि वो निष्पक्ष है आप समझ लीजिये वो कह रहा है कि वो बिकाऊ है जो दाम लगाए उसे खरीद सकता है। उन्होंने उदाहारण दिया कर्नाटक का और कहा कि वहां सरकार गिराई निष्पक्ष लोगों ने और बनाई भी उन्हीं लोगों ने। लोकतंत्र के चारों खंभे को हिलने की बात कहते हुए उन्होेंने न्यायपालिका की तो सीधे आलोचना नहीं की मगर विधायिका, कार्यपालिका और प्रेस की खिंचाई करने में तो उन्होंने रत्ती भर कसर नहीं छोड़ी। बेहद चुटीले अंदाज में उन्होंने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को आश्वस्त किया कि उनको प्रेस से डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि यहां पूरा प्रेस जगत डरा हुआ है। उन्होंने कहा कि वो जमाना गया जब सरकार प्रेस से डरती थी। अब तो विज्ञापन का जमाना है। उनकी इस बात पर मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह मुस्कुराकर रह गए और प्रेस क्लब अध्यक्ष होने के नाते मंच पर उनके साथ बैठा मैं भी उस कड़वे सच से कसमसा कर रह गया। सिर्फ प्रेस को ही नहीं कार्यपालिका और विधायिका की भी बखिया उधेड़ने में डॉ.सिह ने कोई कसर नहीं छोड़ी। इलेक्ट्रानिक मीडिया को प्रिंट मीडिया के लिये खतरा नहीं माना डॉ. नामवर सिंह ने। उन्होंने कहा कि भाषाई पत्रकारिता आज भी असरकारक है बशर्तें उसे अपनी बोलचाल की भाषा और चालू मुहावरों की कीमत पता रहें। इस अवसर पर उन्होंने बनारस के ही पराड़कर को भी याद किया और कहा कि अब हिन्दी अखबारों में पाठकों की चिट्ठी का महत्व वैसा नहीं रह गया। राष्ट्रभाषा हिन्दी पर भी बोलने से नहीं चूके डॉ नामवर सिंह। उन्होंने कहा कि राष्ट्रभाषा का उपयोग नेता ही कर रहें है। वो फाइलों पर हिन्दी लिख रहें है क्या लिखते है उन्हें ही समझा नहीं आता और पढ़ने वाले अफसर भी नहीं समझ पाते है। दिवाकर मुक्तिबोध की पहली पुस्तक 'इस राह से गुजरते हुए' पर तो उन्होंने कुछ नहीं कहा क्योंकि किताब वे पढ़ नहीं पाये। लेकिन उन्होंने यह कहकर सबको हसने पर मजबूर कर दिया कि असली मास्टर वहीं है जो बिना किताब देखे एक पीरियड ले ले। उन्होने कहा ये झांसा मै भी दे सकता हूँ और बिना लाग-लपेटे के डॉ. नामवर सिंह ने वो सब कुछ कह दिया जिसे सिर्फ सुनना नहीं उस पर अमल करना भी जरूरी है।

6 comments:

डा. अमर कुमार said...

बोल रहे हैं, बोल रहे थे..और बोलते रहेंगे
नतीज़ा सिफ़र यानि कि गोलअंडा


नामवर जी केवल बोलते ही क्यूँ हैं, आवाहन क्यों नहीं करते ?
क्योंकि, वे स्वयं एक सुविधावादी जीवन जी रहे हैं ।


मैं बोलूँगा, तो बोलोगे कि बोलता है ।
माफ़ कीजियेगा महोदय, मुझे तो आपकी घुटन भी ओढ़ी हुयी लगती है ।

डा. अमर कुमार said...

बोल रहे हैं, बोल रहे थे..और बोलते रहेंगे
नतीज़ा सिफ़र यानि कि गोलअंडा


नामवर जी केवल बोलते ही क्यूँ हैं, आवाहन क्यों नहीं करते ?
क्योंकि, वे स्वयं एक सुविधावादी जीवन जी रहे हैं ।


मैं बोलूँगा, तो बोलोगे कि बोलता है ।
माफ़ कीजियेगा महोदय, मुझे तो आपकी घुटन भी ओढ़ी हुयी लगती है ।

सतीश पंचम said...

कम से कम नामवर जी ने कुछ बोला तो , यहां तो लोग बोलने से पहले अपना नफा नुकसान पहले देखते हैं।

दिनेशराय द्विवेदी said...

नामवर जी का पूरा व्याख्यान यहाँ होता तो कुछ कहते। नामवर ने सही कहा चारों खंबे हिल रहे हैं। नींव ही खस्ता हो चली है या फिर धरती बैठ रही है। न्याय पालिका मजबूत है बहुत, उस में आए दोषों को हटाया भी जा सकता है। लेकिन उस का खाद-पानी और साइज व्यवस्थापिका और विधायिका पर निर्भर है तो क्यों नहीं हिलेगी? जरूर हिलेगी जी।
.और जरा ये अंग्रेजी का वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें।
वरना इधर आने में आइंदा संकोच होगा।

आनंद said...

नामवर सिंह जब मूड में आते हैं, तो उनका भाषण बड़ा ज़ोरदार होता है। उन्‍हें सुनना अपने आप में बड़ा अच्‍छा अनुभव है। यदि नामवर सिंह जी का भाषण यदि पूरा का पूरा उपलब्‍ध करवा दें तो बड़ी कृपा होगी।

डॉ. अमर कुमार जी, लगता है नामवर सिंह से आपने कुछ अधिक उम्‍मीदें लगा ली हैं। किस व्‍यक्ति की चिंताएँ सच्‍ची हैं, किसकी झूठी, इसका फैसला किए बिना, यदि कोई व्‍यक्ति अपनी सुविधानुसार, स्‍वेच्‍छा से कुछ करने का प्रयास करता दिखाई पड़ता है, उसे सराहना चाहिए हाँ कहीं कुछ ज़्यादा करने की गुंजाइश दिखती है तो हमें आगे बढ़कर स्‍वयं करना चाहिए। - आनंद

Lokesh Kumar Sharma said...

हिन्दी का राष्ट्र भाषा होनाएक म्रगत्रिषना जैसे है भाई. भारतीय संविधान भी यही कहता हैं.संविधान कि अंग्रेजी प्रति हि मान्य हैं. भारत के सर्वोच्यन्यालय मे अंग्रेजी मे हि काम होता है. न्यायधिस के निर्णय के अंग्रेजी संस्करण हि मान्य हैं. ऐसे मे हिन्दी का राष्ट्र भाषा होने या उपयोग नही करने का उलाहना देना कभी कभी हस्यपद लगता है. हिन्दी उपयोग मे यर्थात मे लाने के लिये अपंग भारतीय संविधान मे संशोधन करना होगा.