भारत के सबसे प्राचीन इंटों से बने मंदिरों में से एक लक्ष्मण मंदिर महानदी के किनारे खड़ा है आज के पिछड़ा कहलाने वाले छत्तीसगढ़ की प्राचीन भव्यता और ज्ञान का प्रतीक बनकर। दक्षिण कोसल की राजधानी श्रीपुर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातत्व स्थलों में एक है। यहाँ कभी दस हजार भिक्षु भी रहा करते थे।
राजधानी से मात्र 90 किलोमीटर दूर है, आज का सिरपुर जो कभी श्रीपुर हुआ करता था। ये नालांदा और तक्षिला से भी पुराना शिक्षण केन्द्र हुआ करता था। मगध के राजा सूर्यवर्मन की पुत्री वासटा ने अपने पति की स्मृति में लक्ष्मण मंदिर बनवाया था, वे महासोमवरसी राजा महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता थी। महाशिवगुप्त बालार्जुन ने 595 से 653 ई. तक 58 साल राज किया था। सातवीं सदी में यहाँ चीन के महान पर्यटक और विद्वान ह्वेन सांग आए थे, उनके अनुसार सिरपुर में उस समय महायान संप्रदाय के 10 हजार भिक्षु निवास करते थे, सिरपुर ज्ञान-विज्ञान और कला का केन्द्र बना रहा।
रायपुर से 18 कि.मी. तक भीड़-भाड़ वाला टै्रफिक रहता है और उसके बाद सड़क खाली मिलती है। मंदिर हसौद गांव के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग क्र.6 धीरे-धीरे खुबसूरत होता जाता है। एक और छोटा सा कस्बा आरंग आता है, उसके बाद महानदी रास्ता काटती है। महानदी के बाद सफर का आनंद आता है। कुछ किलोमीटर बाद एक छोटा सा बाँध है कोडार। इसके बाद जंगल शुरू हो जाता है। यहाँ हाईवे छोड़कर एक सड़क सिरपुर के लिए जाती है, जो जंगलों के बीच गुजरती हुई सफर को यादगार बना देती है।
सिरपुर पहुँचते ही प्राचीन बौध्दविहार के उत्खनन कार्य चार दिवारी में घिरे नज़र आते हैं। थोड़ा आगे जाने पर लक्ष्मण मंदिर का भव्य परिसर मिलता है। ये राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक है। गेट पर चौकीदार रहता है और 5 रूपए की टिकट पर एक आदमी को प्रवेश मिलता है। अंदर पहुँचते ही अलग ही काल में पहुँच जाने की अनुभूति होती है। सात फीट ऊँचे पत्थरों के विशाल चबूतरे पर लक्ष्मण का विशाल ईंटों से बना मंदिर गर्व से खड़ा है, उस काल के कलाकारों के उच्च तकनीक और बेहद मजबूत ईंट बनाने की कला और ज्ञान का सबूत देते हुए।
मंदिर में अब प्रवेश नहीं मिलता। द्वार पर ताला लगा दिया गया है, कारण मंदिर के भीतर रखी शेषनाग के अवतार लक्ष्मण की मूर्ति एक बार चोरी हो चुकी है। बड़ी मुश्किल से ये मूर्ति वापस मिली, और तब से ये ताले में कैद है। गर्भ गृह में नागराज अनंत शेष की बैठी हुई पत्थर की सुंदर मूर्ति सौम्य मुद्रा में हैं। पंचरथ प्रकार का ये मंदिर गर्भ गृह अंतराल और मंडप से संयुक्त है। मंदिर की बाहरी ईंटों की दीवारों पर कूटद्वार खिड़कियाँ, भारवाहक गण, गज, कीर्तिमुख और कमल बहुत ही सुंदरता से उकेरे हुए हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार भी बहुत सुंदर है। दरवाजे के दोनों पिल्हर पर विष्णु के प्रमुख अवतार कृष्ण लीला के दृश्य अलंकरण्ा, प्रतीक, मिथुन दृश्य और वैष्णव द्वारपाल अंकित है। दरवाजे के ऊपर वाली बीम पर शेषाशयी विष्णु प्रदर्शित है।
लक्ष्मण मंदिर के निर्माण का काल 650 ई. माना गया है। इस हिसाब से साढ़े 13 सौ साल से भी ज्यादा पुराना ये ईंटों का मंदिर आज भी मौसम की चुनौतियों का सीना ताने सामना कर रहा है। हालांकि इसके पास ही बने राम मंदिर के अब सिर्फ अवशेष ही मिलते हैं। इसी तरह वहीं करीब महानदी के तट पर आज तक पूजा जा रहा गंधेश्वर शिव मंदिर भी है। लेकिन मराठा काल में वे जीर्णोध्दार से इसका मौलिक स्वरूप विलुप्त हो गया है। लक्ष्मण मंदिर के ठीक बाजू में पुरातत्व शास्त्रियों ने एक आवास शाला भी खोजी है, यहाँ पुजारियों का निवास हुआ करता था।
उस काल में पत्थरों की कमी को ध्यान में रखते हुए निर्माणकर्ताओं ने विकल्प के रूप में ईंटों को निर्माण की मुख्य सामग्री बनाया था। ईंटों पर की गई कारिगरी बेहत खुबसूरत है। साढ़े 13 सौ साल से ईंटें बारीश, धूप और हवा झेल रही है लगातार और खड़ी है आज के ईंट बनाने वाले हाईटेक लोगों को मुँह चिढ़ाते हुए। तो कैसा लगा लक्ष्मण मंदिर ? आपको सैर कराएँगे यहीं के बौध्द विहारों की जो नालंदा और तक्षशिला से भी पुराने हैं।
राजधानी से मात्र 90 किलोमीटर दूर है, आज का सिरपुर जो कभी श्रीपुर हुआ करता था। ये नालांदा और तक्षिला से भी पुराना शिक्षण केन्द्र हुआ करता था। मगध के राजा सूर्यवर्मन की पुत्री वासटा ने अपने पति की स्मृति में लक्ष्मण मंदिर बनवाया था, वे महासोमवरसी राजा महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता थी। महाशिवगुप्त बालार्जुन ने 595 से 653 ई. तक 58 साल राज किया था। सातवीं सदी में यहाँ चीन के महान पर्यटक और विद्वान ह्वेन सांग आए थे, उनके अनुसार सिरपुर में उस समय महायान संप्रदाय के 10 हजार भिक्षु निवास करते थे, सिरपुर ज्ञान-विज्ञान और कला का केन्द्र बना रहा।
रायपुर से 18 कि.मी. तक भीड़-भाड़ वाला टै्रफिक रहता है और उसके बाद सड़क खाली मिलती है। मंदिर हसौद गांव के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग क्र.6 धीरे-धीरे खुबसूरत होता जाता है। एक और छोटा सा कस्बा आरंग आता है, उसके बाद महानदी रास्ता काटती है। महानदी के बाद सफर का आनंद आता है। कुछ किलोमीटर बाद एक छोटा सा बाँध है कोडार। इसके बाद जंगल शुरू हो जाता है। यहाँ हाईवे छोड़कर एक सड़क सिरपुर के लिए जाती है, जो जंगलों के बीच गुजरती हुई सफर को यादगार बना देती है।
सिरपुर पहुँचते ही प्राचीन बौध्दविहार के उत्खनन कार्य चार दिवारी में घिरे नज़र आते हैं। थोड़ा आगे जाने पर लक्ष्मण मंदिर का भव्य परिसर मिलता है। ये राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक है। गेट पर चौकीदार रहता है और 5 रूपए की टिकट पर एक आदमी को प्रवेश मिलता है। अंदर पहुँचते ही अलग ही काल में पहुँच जाने की अनुभूति होती है। सात फीट ऊँचे पत्थरों के विशाल चबूतरे पर लक्ष्मण का विशाल ईंटों से बना मंदिर गर्व से खड़ा है, उस काल के कलाकारों के उच्च तकनीक और बेहद मजबूत ईंट बनाने की कला और ज्ञान का सबूत देते हुए।
मंदिर में अब प्रवेश नहीं मिलता। द्वार पर ताला लगा दिया गया है, कारण मंदिर के भीतर रखी शेषनाग के अवतार लक्ष्मण की मूर्ति एक बार चोरी हो चुकी है। बड़ी मुश्किल से ये मूर्ति वापस मिली, और तब से ये ताले में कैद है। गर्भ गृह में नागराज अनंत शेष की बैठी हुई पत्थर की सुंदर मूर्ति सौम्य मुद्रा में हैं। पंचरथ प्रकार का ये मंदिर गर्भ गृह अंतराल और मंडप से संयुक्त है। मंदिर की बाहरी ईंटों की दीवारों पर कूटद्वार खिड़कियाँ, भारवाहक गण, गज, कीर्तिमुख और कमल बहुत ही सुंदरता से उकेरे हुए हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार भी बहुत सुंदर है। दरवाजे के दोनों पिल्हर पर विष्णु के प्रमुख अवतार कृष्ण लीला के दृश्य अलंकरण्ा, प्रतीक, मिथुन दृश्य और वैष्णव द्वारपाल अंकित है। दरवाजे के ऊपर वाली बीम पर शेषाशयी विष्णु प्रदर्शित है।
लक्ष्मण मंदिर के निर्माण का काल 650 ई. माना गया है। इस हिसाब से साढ़े 13 सौ साल से भी ज्यादा पुराना ये ईंटों का मंदिर आज भी मौसम की चुनौतियों का सीना ताने सामना कर रहा है। हालांकि इसके पास ही बने राम मंदिर के अब सिर्फ अवशेष ही मिलते हैं। इसी तरह वहीं करीब महानदी के तट पर आज तक पूजा जा रहा गंधेश्वर शिव मंदिर भी है। लेकिन मराठा काल में वे जीर्णोध्दार से इसका मौलिक स्वरूप विलुप्त हो गया है। लक्ष्मण मंदिर के ठीक बाजू में पुरातत्व शास्त्रियों ने एक आवास शाला भी खोजी है, यहाँ पुजारियों का निवास हुआ करता था।
उस काल में पत्थरों की कमी को ध्यान में रखते हुए निर्माणकर्ताओं ने विकल्प के रूप में ईंटों को निर्माण की मुख्य सामग्री बनाया था। ईंटों पर की गई कारिगरी बेहत खुबसूरत है। साढ़े 13 सौ साल से ईंटें बारीश, धूप और हवा झेल रही है लगातार और खड़ी है आज के ईंट बनाने वाले हाईटेक लोगों को मुँह चिढ़ाते हुए। तो कैसा लगा लक्ष्मण मंदिर ? आपको सैर कराएँगे यहीं के बौध्द विहारों की जो नालंदा और तक्षशिला से भी पुराने हैं।
12 comments:
इतिहास के पन्नो से काफ़ी रोचक जानकारिया बटोर के ला रहे हैं आप.
हम इस सैर का लुत्फ़ उठा रहे है.
वाकई आनंद आ रहा है.
आभार.
रोचक जानकारि
to share this kind of thing is very interesting!
बहुत बढ़िया विवरण! अच्छा लगा पढ़कर
चिट्ठे पर चित्र बड़े आकार में लगाने से और सुंदर लगता। इसके लिए फोटो अपलोड करते समय साइज लार्ज चुनें।
अनिल जी बहुत ही अच्छी जानकारी आप ने दी , भारत मे तक्नीक आज से पहले बहुत उच्च कोटि की थी, धन्यवाद
बढ़िया विवरण! आभार जानकारी के लिए.
अनिल भाई,
अपने को बहुत भाग्यशाली महसूस कर रहा हूँ कि अपने गर्वमय इतिहास की इतनी अच्छी जानकारी हिन्दुस्तान से हजारों मील दूर बैठकर भी पढ़ पा रहा हूँ. आप सचमुच धन्यवाद के पात्र हैं. पिछले लेख भी पढ़े. आपका यह लेख भी उतने ही प्रभावशाली हैं जितने कि हमारे समाज की कमियों को उजागर करने वाले विचारोत्तेजक लेख.
लिखते रहिये - अपने लिए नहीं बल्कि हम जैसे आम भारतीय पाठकों के लिए, चाहे वे देश में हों या परदेश में.
माफ़ कीजिये मुझे आपके जन्म दिन के बारे में पता नहीं था, पर देर आयद, दुरुस्त आयद.
जन्म दिन की शुभकामनाएं
" very interesting ,it seems like live joureny to the temple. thanks for sharing"
Regards
sir.. aap ne mujhe padha .. mujhe bahut khushi hui ... mujhe apni kabiliyat par shq hai es liye chupta firta hun .. ke koi mera mazak na banaye .. lekin aap ka jo aashirwad muje mila hai usse mujhme himat aayi hai ..bas ser par aap ka haath chhiye ..main bhi duniya ka saamna kar sakunga ...aap ne padha uske liye dhanywad .....
anwar miya mujhe bahut khooshi hui hai aur kisi ki parwaah karne ki zaroorat nahi hai. jaise main nahi karta,tum to bas likhe jaao,hum tumhare saath hain
बढ़िया जानकारी दी है . बालसमुंद मे भी तालाब के किनारे इंटों का मंदिर है.
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