सन 1065 से 1090 के बीच बना भोरमदेव का मंदिर छत्तीसगढ़ का खजुराहो कहलाता है। सतपुड़ा पर्वत की पहाड़ियों के बीच घने जंगलों में तालाब के किनारे बना है भोरमदेव मंदिर। इस मंदिर की निर्माण कला आज के पिछड़ा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के समृध्द और स्वर्णिम इतिहास का प्रमाण है।
भोरमदेव मंदिर वास्तु एवं मूर्तिकला दोनों ही दृष्टि से उत्कृष्ट है। यहां की कला में क्षेत्रीयता की विशिष्ट झलक नजर आती है। भोरमदेव की मूर्तियां समृध्द और सुखी समाज का द्योतक है। भोरमदेव का मंदिर चंदेलों के बनाये खजुराहों के मंदिर शैली से ही बना है। इसलिये ये छत्तीसगढ़ का खजुराहों कहलाता है।
रायपुर से करीब 100 किमी दूर है कवर्धा जो आजकल कबीरधाम जिला कहलाता है। यहां से 17 किमी दूर है घने जंगलों के बीच बेहद खुबसूरत घाटी में एक सुन्दर सरोवर के किनारे बना है भोरमदेव का मंदिर। यहां करीब एक मड़वा महल मंदिर भी है। वहां से प्राप्त शिलालेख में नागवंशी राजाओं के वंशवृक्ष पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
मड़वा महल मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा रामचंद्र ने करवाया था। राजा रामचंद्र का विवाह हैहैयवंशी राजकुमारी अंबिकादेवी से हुआ था। मड़वा महल मंदिर में मिथुन मूर्तियां उकेरी गई है। इन मिथुन मूर्तियों की खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों से तुलना की जाती है।
गोंड जाति के लोग अपने आराध्य देव भगवान शिव को बड़ादेव, बूढ़ादेव या भोरमदेव के नाम से पुकारते है। भोरमदेव के नाम पर ही खूबसूरत सरोवर के किनारे बने मंदिर का नाम भोरमदेव पड़ा। भोरमदेव में नागवंशी और कल्चुरी कलाओं का मिश्रित रूप देखने को मिलता है। इसका निर्माण नागवंश के छठे शासक गोपालदेव ने करवाया था। जो रतनपुर के महराज पृथ्वीदेव प्रथम के अधीन सन् 1065 से 1090 तक कवर्धा का शासक रहा।
भोरमदेव मंदिर के मण्डप में प्रतिष्ठित एक योगी की मूर्ति पर उत्कृठ लेख यह मंदिर छठे नागवंशी राजा गोपालदेव द्वारा बनाया गया। दुर्लभ शिल्पकला और नागर शैली कलाकृतियों का ये अनूठा और सुन्दर उदाहारण है। पूर्वाभिमुख मंदिर के तीन प्रवेश द्वार है। तीनों द्वार पर तीन अर्ध्द मण्डप और बीच में वर्गाकार मण्डप अंत में गर्भगृह निर्मित है। द्वार के दोनों ओर शिव की त्रिभंग मूर्तियां सुशोभित है। ललाट बिंब पर तप मुद्रा में द्विभुजीय नागराज जिसके शिरोभाग में पंच फन है, आसीन है। प्रवेश द्वार शाखा लता बेलों से अंलंकृत है। बीच का वर्गाकार मण्डप 16 खंभों पर टिका है। स्तंभों की चौकी उल्टे विकसित कमल के समान है। जिस पर बने कीचक याने भारवाहक छत के भार को थामे हुए है। मण्डप की छत पर सहस्त्र दल कमल देखने लायक है।
गर्भगृह मण्डप के धरातल से लगभग डेढ़ मीटर बना है। यहां बीचोबीच विशान शिवलिंग बना है। शिवलिंग के ठीक उपर मण्डप के समान सहस्त्र दल कमल बना हुआ है। यहां पंचमुख नाग प्रतिमा, नृत्य गणेश की अष्टभुजीय प्रतिमा, तपस्यारत योगी, आसनस्थ उपासक दंपति की प्रतिमाऐं गर्भगृह की दीवार के पास पूजा के लिये रखी गई है।
भोरमदेव मंदिर का क्रमश: संकरा होता अलंकृत गोलाकार शिखर आज कलश विहीन है। शेष भाग अपने मूलरूप में स्थित है। मंदिर के दक्षिण द्वार पर लगे शिलालेख के अनुसार 16वीं सदी मे रतनपुर के शासक ने आक्रमण कर इसका कलश तोड़ दिया और विजय के प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गये।
भोरमदेव मंदिर का शिखर समूचे छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण है। गर्भगृह में प्रकाश के लिये पूर्व दिशा में शिखर के नीचे अलंकरणयुक्त गवाक्ष बना हुआ है। मंदिर के बाहर की दीवारें अलंकरण्ायुक्त है। इसमें देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ मिथुन के अनेक दृश्य तीन पंक्तियों में सुन्दर कलात्मक कलाओं के साथ बनी है। यहां मिथुन मूर्तियां बहुत है। अप्सरायें और सुर सुंदरियों की विभिन्न मुद्राओं में अंगड़ाई लेती हुई जीवंत नजर आती है। मिथुन मूर्ति में सहज मैथुन के अलावा कुछ काल्पनिक और अप्राकृतिक मैथुन का भी अंकन है। ये मूर्तियां जहां सृष्टि के विकास का संकेत है तो दैहिक और आत्मिक समरसता का संदेश देती है।
भोरमदेव की मूर्तियों में गीत, वाद्य और नृत्य, संगीत की तीनों विधाओं के दृश्य महत्वपूर्ण है। मंदिर के चतुर्दिक दर्शन से तत्कालीन शासको के संगीत प्रेम का सबमत मिलता है। सामने का सरोवर काफी बड़ा है और उसमें हमेशा नीले गुलाबी कमल खिले रहते है। यहां बोटिंग का भी इंतेजाम है। चारों ओर पहाड़ियों से घिरे भोरमदेव मंदिर में अद्भुत शांति मिलती है। घने जंगलों से घिरी पहाड़ियों के बीच कुछ गांव ऐसे भी है जहां ठंड में एक दो बार बर्फ पड़ जाती है। भोरमदेव से कुछ किमी आगे राष्ट्रीय उद्यान कान्हा किसली भी है जो बंटवारे में मध्यप्रदेश के हिस्से चला गया।
भोरमदेव मंदिर वास्तु एवं मूर्तिकला दोनों ही दृष्टि से उत्कृष्ट है। यहां की कला में क्षेत्रीयता की विशिष्ट झलक नजर आती है। भोरमदेव की मूर्तियां समृध्द और सुखी समाज का द्योतक है। भोरमदेव का मंदिर चंदेलों के बनाये खजुराहों के मंदिर शैली से ही बना है। इसलिये ये छत्तीसगढ़ का खजुराहों कहलाता है।
रायपुर से करीब 100 किमी दूर है कवर्धा जो आजकल कबीरधाम जिला कहलाता है। यहां से 17 किमी दूर है घने जंगलों के बीच बेहद खुबसूरत घाटी में एक सुन्दर सरोवर के किनारे बना है भोरमदेव का मंदिर। यहां करीब एक मड़वा महल मंदिर भी है। वहां से प्राप्त शिलालेख में नागवंशी राजाओं के वंशवृक्ष पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
मड़वा महल मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा रामचंद्र ने करवाया था। राजा रामचंद्र का विवाह हैहैयवंशी राजकुमारी अंबिकादेवी से हुआ था। मड़वा महल मंदिर में मिथुन मूर्तियां उकेरी गई है। इन मिथुन मूर्तियों की खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों से तुलना की जाती है।
गोंड जाति के लोग अपने आराध्य देव भगवान शिव को बड़ादेव, बूढ़ादेव या भोरमदेव के नाम से पुकारते है। भोरमदेव के नाम पर ही खूबसूरत सरोवर के किनारे बने मंदिर का नाम भोरमदेव पड़ा। भोरमदेव में नागवंशी और कल्चुरी कलाओं का मिश्रित रूप देखने को मिलता है। इसका निर्माण नागवंश के छठे शासक गोपालदेव ने करवाया था। जो रतनपुर के महराज पृथ्वीदेव प्रथम के अधीन सन् 1065 से 1090 तक कवर्धा का शासक रहा।
भोरमदेव मंदिर के मण्डप में प्रतिष्ठित एक योगी की मूर्ति पर उत्कृठ लेख यह मंदिर छठे नागवंशी राजा गोपालदेव द्वारा बनाया गया। दुर्लभ शिल्पकला और नागर शैली कलाकृतियों का ये अनूठा और सुन्दर उदाहारण है। पूर्वाभिमुख मंदिर के तीन प्रवेश द्वार है। तीनों द्वार पर तीन अर्ध्द मण्डप और बीच में वर्गाकार मण्डप अंत में गर्भगृह निर्मित है। द्वार के दोनों ओर शिव की त्रिभंग मूर्तियां सुशोभित है। ललाट बिंब पर तप मुद्रा में द्विभुजीय नागराज जिसके शिरोभाग में पंच फन है, आसीन है। प्रवेश द्वार शाखा लता बेलों से अंलंकृत है। बीच का वर्गाकार मण्डप 16 खंभों पर टिका है। स्तंभों की चौकी उल्टे विकसित कमल के समान है। जिस पर बने कीचक याने भारवाहक छत के भार को थामे हुए है। मण्डप की छत पर सहस्त्र दल कमल देखने लायक है।
गर्भगृह मण्डप के धरातल से लगभग डेढ़ मीटर बना है। यहां बीचोबीच विशान शिवलिंग बना है। शिवलिंग के ठीक उपर मण्डप के समान सहस्त्र दल कमल बना हुआ है। यहां पंचमुख नाग प्रतिमा, नृत्य गणेश की अष्टभुजीय प्रतिमा, तपस्यारत योगी, आसनस्थ उपासक दंपति की प्रतिमाऐं गर्भगृह की दीवार के पास पूजा के लिये रखी गई है।
भोरमदेव मंदिर का क्रमश: संकरा होता अलंकृत गोलाकार शिखर आज कलश विहीन है। शेष भाग अपने मूलरूप में स्थित है। मंदिर के दक्षिण द्वार पर लगे शिलालेख के अनुसार 16वीं सदी मे रतनपुर के शासक ने आक्रमण कर इसका कलश तोड़ दिया और विजय के प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गये।
भोरमदेव मंदिर का शिखर समूचे छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण है। गर्भगृह में प्रकाश के लिये पूर्व दिशा में शिखर के नीचे अलंकरणयुक्त गवाक्ष बना हुआ है। मंदिर के बाहर की दीवारें अलंकरण्ायुक्त है। इसमें देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ मिथुन के अनेक दृश्य तीन पंक्तियों में सुन्दर कलात्मक कलाओं के साथ बनी है। यहां मिथुन मूर्तियां बहुत है। अप्सरायें और सुर सुंदरियों की विभिन्न मुद्राओं में अंगड़ाई लेती हुई जीवंत नजर आती है। मिथुन मूर्ति में सहज मैथुन के अलावा कुछ काल्पनिक और अप्राकृतिक मैथुन का भी अंकन है। ये मूर्तियां जहां सृष्टि के विकास का संकेत है तो दैहिक और आत्मिक समरसता का संदेश देती है।
भोरमदेव की मूर्तियों में गीत, वाद्य और नृत्य, संगीत की तीनों विधाओं के दृश्य महत्वपूर्ण है। मंदिर के चतुर्दिक दर्शन से तत्कालीन शासको के संगीत प्रेम का सबमत मिलता है। सामने का सरोवर काफी बड़ा है और उसमें हमेशा नीले गुलाबी कमल खिले रहते है। यहां बोटिंग का भी इंतेजाम है। चारों ओर पहाड़ियों से घिरे भोरमदेव मंदिर में अद्भुत शांति मिलती है। घने जंगलों से घिरी पहाड़ियों के बीच कुछ गांव ऐसे भी है जहां ठंड में एक दो बार बर्फ पड़ जाती है। भोरमदेव से कुछ किमी आगे राष्ट्रीय उद्यान कान्हा किसली भी है जो बंटवारे में मध्यप्रदेश के हिस्से चला गया।
16 comments:
तस्वीरों सहित इतनी विस्तृत जानकारी के लिए आभार.
छत्तीसगढ़ वाकई कितना सुंदर है ना।
छत्तीसगढ़ पर्यटन की दृष्टी से आज भी इतना पिछड़ा हुआ है के देश के नक्शे में छत्तीसगढ़ को अभी भी पहचान नहीं मिली है नेता मंत्री पर्यटन के नाम से विदेश यात्रा करते है करोडो रूपये खर्च करते है { खुद पर } लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकलता है ... सराहनीय काम तो आप कर रहे है जो इस सादगी के अपने ब्लॉग के माध्यम से छत्तीसगढ़ की पहचान को पेश कर रहे है ... भारत के नक्शे पर छत्तीसगढ़ को एक पहचान देने के लिए आप का धन्यवाद ...
अनिल जी वाकई आप ने चित्रो ओर विस्तृत जानकारी के दुवारा बहुत अच्छा काम किया हे, वेसे तो छत्तीसगढ के नाम से डर स लगता था,लेकिन आप ने इस छवि को मिटा कर अच्छी छवि हमारे दिलो दिमाग मे बसा दी हे,सच मे बहुत ही अच्छा लगता हे,आगे अनवर भाई की बात से भी सहम्त हु, धन्यवाद, एक अच्छी जानकारी देने के लिये
आभार इस बेहतरीन जानकारीपूर्ण आलेख के लिए.
" I have heard about this particular place but was not knowing any thing about it. After reading this wonderful article with eye catching pictures I realised that how much I am missing about these type of preceious places, thanks for sharing"
Regards
अनिल भाई ,
भोरमदेव के बारे में आपकी रपट पढ़ा ,अच्छा लगा ..लेकिन भोरमदेव को छत्तीसगढ़ का खजुराहो क्यों कहें ? भोरमदेव तो भोरमदेव है ..इस मन्दिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियाँ हैं , इसे खजुराहो जैसा कहें तो ज्यादा उपयुक्त होगा ?
प्रोफ़ेसर अश्विनी केशरवानी
foto sahit bahut badhiya janakari dene ke liye abhaar.
अनिल भाई
आपका ब्लॉग तो
छत्तीसगढ़ की धरोहर की तरह है.
भोरमदेव पर नयनाभिराम चित्र
और सरस वर्णन बहुत प्रभावशाली है.
पिछले पोस्ट भी देख लिए.अब अपने सुंदर
प्रदेश को अधिक जानने के लिए यहाँ आता रहूँगा.
===================================
आपका
डा.चन्द्रकुमार जैन
भोरमदेव मन्दिर के बारे में इतनी सुंदर, विस्तृत और सचित्र जानकारी के लिए धन्यवाद.
आगे भी ऐसे ही लेख पढने आता रहूँगा.
support : how to get there ?
to reach from bhopal, raipur, jabalpur, delhi & bombay
Rajesh bhai Delhi,Mumbai,Bhopal se Raipur ke liye wimaan seva hai aur Bhopal,Jabalpur se aap rail se aa sakte hain aur Jabalpur se by road bhi aa sakte hain,lagbhag 400 km hai lekin rasta bada khoobsurat hai,halanki sadken thidi kharaab hai fir bhi pahad jungleaur nadi naale safar ko mazedaar bana dete hain,achha kiya pucch liya aage se khayal rakhunga
Rajesh bhai Delhi,Mumbai,Bhopal se Raipur ke liye wimaan seva hai aur Bhopal,Jabalpur se aap rail se aa sakte hain aur Jabalpur se by road bhi aa sakte hain,lagbhag 400 km hai lekin rasta bada khoobsurat hai,halanki sadken thidi kharaab hai fir bhi pahad jungleaur nadi naale safar ko mazedaar bana dete hain,achha kiya pucch liya aage se khayal rakhunga
महत्वपूंर्ण जानकारी देने के लिए शुक्रिया।
भोरमदेव एक ऐतिहासिक महत्व का मन्दिर है, जानकर प्रसन्नता हुई।
इतनी सुंदर जानकारी के लिए धन्यवाद !
गोंड जाति के इतिहास से भी परिचय
करवाया ! भोरम देव जी भगवान् भोलेनाथ
ही हैं ये पहली बार मालूम हुवा ! चित्र भी
मनमोहक हैं ! पुन: धन्यवाद !
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