Friday, January 23, 2009

बस्तर मे नक्सली आतंक का सच

सरकार चाहे जो दावा कर ले लेकिन सच तो ये है कि बस्तर मे नक्सलियों का आतंक है।ये सच पुलिस को भी नही पचेगा मगर जब उनसे पूछा जाये कि दंतेवाड़ा से 2कि मी दूर सड़क पर जलाई गई बसो तक़ पहुंचने मे उन्हे 5 घंटे क्यो लगे तो सरकारी दावो की पोल खुलती नज़र आ जायेगी।

बहुत अर्से बाद मुझे दंतेवाड़ा जाने का मौका मिला।मां दंतेश्वरी के दर्शन की इच्छा तो थी ही साथ ही पत्रकारिता का कीड़ा भी काट रहा था।सुबह रायपुर से निकल कर दोपहर को दंतेवाड़ा पहुंचा।सबसे पहले मंदिर गया और मां के दर्शन करने के बाद अपने भीतर कुलबुला रहे पत्रकार को भी शांत करने के जुगाड़ मे भिड़ गया।

उस इलाके को बड़ी अच्छी तरह जानने-पहचानने वालो से नक्सलियो की स्थिती के बारे मे पूछा तो जवाब चौंकाने वाला था।उनका कहना था कि सरकारी इच्छा-शक्ति के अभाव मे नक्सली पूरीतरह हावी है और उनका आतंक पूरे बस्तर मे है।मैने भी टटोलने के लिहाज़ से उनसे इस मामले मे कोई ठोस सबूत पूछ लिया?

इतना पूछना था कि उनका गुस्सा सातवे आसमान तक़ पहुंच गया।उन्होने कहा आप पुलिस से पुछिये कि दंतेवाड़ा से गीदम मार्ग़ पर दो बसो को जलाने के बाद पुलिस वहां कितने घण्टे मे पहुंची।दंतेवाड़ा मे पुलिस थाना है और दंतेवाड़ा से गीदम मार्ग पर सशस्त्र पुलिस बल का कैंप भी है।दोनो के बीच की दूरी महज़ 4 कि मि है।दोनो के बीच बसों आग लगाई गई और नक्सलियो के वहां से चले जाने के बाद जब लोगो ने थाने सम्पर्क किया तो उन्हे जवाब मिला तत्काल आ रहे हैं और पुलिस बल वहां पहुंचा सुबह लगभग 7 बज़े।मात्र दो कि मी की दूरी पर मदद मांगने वाले यात्रियों तक़ पहुंचने मे उन्हे लग गये 5 घंटे।जब-तक़ सुबह नही हुई पुलिस वाले निकले नही अपने दड़बे से बाहर्।

अब इसे क्या कहा जाये? इसे नक्सलियो का आतंक ना कहे तो क्या पुलिस की बहादुरी समझे?आज भी नक्सलियो के बंद के आह्वान का असर पुरे बसतर मे देखने को मिलता है।सरकार और प्रशासन के तमाम दावे वहां जाने के बाद खोखले नज़र आते हैं।बस्तर मे आज भी लाल सलाम हावी है चाहे कोइ माने ना माने।

7 comments:

राज भाटिय़ा said...

फ़िर भी मेरा देश महान.
धन्यवाद

सचिन मिश्रा said...

kab tack rhega ye aatanck

bablu tiwari said...

बिल्कुल सही कहा सर आपने। जब ये दो किमी 5 घंटे में पहुंच रहे हैं, तो समझा जा सकता है नक्सल आपरेशन की स्थिति क्या है। ये पूरी लड़ाई गरीब आदिवासी एसपीओ के सहारे जीतने की सोच रहे हैं। जंगल में कोई अधिकारी घुसना नहीं चाहता। सिंगावरम गांव के घटनास्थल तक अभी तक कोई एसडीओपी या एडी.एसपी रैंक तक का अधिकारी नहीं गया है। दरअसल इस समय पीएचक्यू में जो लोग पूरे नक्सल आपरेशन देख रहे हैं, वे कभी जंगल में रहे ही नही हैं (आप पता कर सकते हैं,अगर रहे हैं तो 6 महीने से ज्यादा नहीं), जिन लोगों ने जंगल में काम किया है, और जिन्हें जंगल के आपरेशन का अनुभव था उन्हें इससे हटा दिया गया। पीएचक्यू के अफसर इसका कारण भी बताते हैं कि नक्सल आपरेशन के नाम पर केंद्र और राज्य सरकार पचासों करोड़ रुपए सालाना खर्च कर रही है। जिसकी बंदरबांट ये शहरी अफसर कर रहे हैं, इसका कुछ हिस्सा शासकों तक भी पहुंच रहा है, आवाज उठाने वालों को निपटाने का इन्होंने शासकों को आश्वासन भी दे रखा है। कुछ हिस्सा मीडिया और सामाजिक संगठनों को भी बांट देते है, लिहाजा रायपुर से सब ठीक लगता है। पुलिस की कमान तो लगता है किसी प्रोफेसर को दे दी गई है, जिनके पास हर बात को कई नजरिए से दिखाने, बताने और समझाने की कला आती है। जिसका फायदा वे सही बात से लोगों को भटकाने में निसंकोच करते हैं। पीएचक्यू में ही किसी ने मुझे बताया था कि एसएस मनी तथा अन्य नाम से अभी पीएचक्यू के पास करोड़ों का बजट है, लेकिन बस्तर के किसी एसडीओपी-एसपी-आईजी से पता किया जा सकता है कि उसे कितना दिया जा रहा है। माना में बटालियन के कैंप में आग लग गई, करोड़ों का सामान जल गया, करीब 5 करोड़ का। इसमें पुलिस आधुनिकीकरण के मद से उस बटालियन के लिए सामान खरीदा गया जो अभी स्वीकृत नहीं है। 150 के टिफिन बाक्स 550 रुपए में खरीदे गए थे। सैकड़ों एसी भी जल गए। ये किस लिए खरीदा गया था। एसपीओ (जो कि आदिवासी ही है) को ये चारे के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, आज बस्तर में वे लोग रोड ओपनिंग से लेकर मुठभेड़, सर्चिंग सब में हिस्सा ले रहे हैं, उन्हें हथियार दे दिया गया है, वे जंगल में अपनी व्यक्तितगत दुशमनी फुना रहे है। क्या वे पुलिस से ज्यादा प्रशिक्षित हैं, जो हर आपरेशन में पुलिस बल से तीन गुना एसपीओ रहते हैं, उन्हें दल के आगे चलाया जाता है। क्या उन्हें एक पुलिस वाले से ज्यादा पता है कि मुठभेड़ के समय कब तक संयम बरतना है, कब बल का प्रयोग करना है, और कब गोली चलानी है। अगर मुख्यमंत्री, डीजीपी सही में नक्सल समस्या खत्म करना चाहते हैं और अपनी राजनीति व कमाई से इसे परे समझते हैं तो उन्हें आंध्र प्रदेश की तर्ज पर पुलिस को ही मजबूत करना होगा। मैं नहीं समझता कि एसपीओ को चारे के रूप में इस्तेमाल करके हम नक्सलियों को दो-तीन साल में खदेड़ पाएंगे। आंध्र से डीजीपी को सीखना चाहिए कि कैसे उन्होंने जंगल में जाने के लिए पुलिसवालों को प्रोत्साहित किया, कैसे सभी पर यह नियम लगाया कि दो साल तक सब को जंगल जाना है, आपरेशन के दौरान उनकी तनख्वाह में क्या बढ़ोत्तरी हुई, जंगल में रहने और वहां से लौटने के बाद भी कैसे उनकी और उनके परिवार को सुरक्षा प्रदान की जाती है, कैसे जंगल से सूचनाएं निकलवाने के लिए अफसरों को एसएस मनी ईमानदारी से वितरित की जाती है, इनकाउंटर पर स्पाट पर कैसे ईनाम दिया जाता है, नक्सल आपरेशन के मुखिया वे लोग हैं जो सालों-साल तक जंगल में नक्सलियों से मोर्चा संभाला है, वहां के जवान जानते हैं कि कब नक्सलियों पर कितना दबाव डालना है और किस स्थिति में उन्हें मारना है, पुलिसवाला प्रशिक्षित होता है, उसे हर बात का ख्याल रहता है, जबकि हमने अप्रशिक्षित एसपीओ को सामने कर दिया है, वे किसी को भी मार देते हैं और पूरी सरकार-पुलिस उसे सही बताने में जुट जाती है, शायद ये प्रोफेशनल लोग हैं जो इसे खेल की भावना से खेल रहे हैं, जब तक इनके घर का कोई नहीं मरेगा तब तक ये शायद ही इन गरीब असहाय आदिवासियों की पीड़ा को शायद ही समझ पाए। देश के बीच में अफगानिस्तान-इराक से बदतर हालात हैं, वहां थोड़ा ठीक इसलिए है कि वहां के नागरिकों ने हथियार उठा लिया है, कुछ तो मुकाबला करते हैं, यहां तो उन्हें सरकार भी मार रही है और नामर्द नक्सली भी। अनिलजी शायद कुछ ज्यादा ही लंबी टिप्पणी हो गई, आपने विषय ही ऐसा छेड़ दिया कि जो मन में था दबा था सब निकल गया। आप कांट-छांट कर दीजिएगा। धन्यवाद

Udan Tashtari said...

बस्तर में नक्सलियों के आतंक को नकारने वाला अंधा ही कहलायेगा या यूँ कहें अपनें दायित्वों से मूँह फेर लेने वाली बात है.

आपने सही लिखा.

Anonymous said...

हमें बहुत ही दुख हो रहा है यह सब सुनकर.एक समय था जब हम गीदाम, बीजापुर, भोपालपट्नम पट्टी पर स्वच्छन्द घूमा करते थे. काई जगह तो सड़क भी नहीं थी फिर भी पूरी तरह अपने आप को सुरक्षित महसूस करते थे. अब यह सब क्या हो रहा है समझ से परे है. आभार.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

ताज्जुब तो इस बात का है कि पूरा देश नक्सली क्यों नहीं बन जाता है? कल भी मैंने पुलिस वालों की बहादुरी देखी थी, एक गरीब चाय वाले को मार रहे थे ये बहादुर. इनकी बहादुरी यहीं तक सीमित है, और यही नियति बना दी है कमीनों ने देश की आम जनता की.

Gyan Dutt Pandey said...

नक्सलवाद से लड़ने की अगर राजनैतिक इच्छा शक्ति हो तो सबसे अच्छे प्रशासनिक अधिकारी वहां पोस्ट कर सभी सपोर्ट देना चाहिये। मुझे लगता है कि दन्तेवाड़ा की पोस्टिंग पनिशमेण्ट पोस्टिंग होती होगी!