बहुत दिनो बाद आज फ़ुरसत से टीवी देखने बैठा।खबरिया चैनलो पर चल रही खींचतान के कारण उधर जाने की हिम्मत नही हुई सो कथित मनोरंजक चैनलो को खंगालने लगा।रिमोट भी ऐसा लगा कि परेशान हो रहा है मगर ह्म इतनी ज़ल्दी हार मानने वालो मे से नही हैं।चैनल बदलते-बदलते बच्चों के एक कार्यक्रम पर मैं रूक गया।सोचा देखूं देश की भावी पीढी क्या कर रही है।एक बच्चा स्टेज पर दो लोगो की टेलिफ़ोन पर बातचीत सुना रहा था।गलत नंबर लगने के कारण वो कार के विज्ञापन दाता और बेटे के लिये बहु तलाश रहे सज्जन के बीच हूई बातों को बता रहा था।बाते क्या थी द्विअर्थी अश्लिल संवाद थे । वो बच्चा द्विअर्थी संवादो के मामले मे दादा कोंड़के को मात दे रहा था और लोग तालिया बज़ा रहे थे।मज़े की बात देखिये मनोज बाजपेई सरीखे कलाकार ने उस पूरे नंबर दे दिए।
बच्चों का कार्यक्रम था और शायद बच्चों के लिये ही तैयार किया गया है।कलर्स पर रविवार को दोबारा दिखाया जा रहा था वो कार्यक्रम।कार को लड़की समझने और विज्ञापनदाता द्वारा कार की तारीफ़ को लड़की के गुण समझने -समझाने के दौर मे अश्लिलता की कोई कसर नही छोड़ी उस नन्हे उस्ताद ने।नन्हे हंसगुल्ले तो कहींसे नही लगी वो प्रस्तुति।बेहद फ़ूहड़ और अश्लिल बक़वास के दौरान सभी निर्णायक़ बेशर्मी से हंसते रहे।अफ़्सोस की बात तो ये है कि महिला निर्णायक़ रिशिता ने भी उस बालक को फ़ूहड़ता के लिये फ़टकारने की बजाय उसकी जमकर तारीफ़ की।
मुझे रियाल्टी शो के बारे ज्यादा मालूम नही है लेकिन ताली बजाने वाले दर्शको मे जिस तरह कुछ लोगो को फ़ोकस किया गया उससे तो ये लगा कि वे लोग उस बालक के परिवार के हैं।वे भी जमकर तालिया बजाते रहे।सब खुश। कही कोई नाराज़गी नही,कहि कोई सम्झाईश नही।मुझे गुस्सा भी आया और फ़िर अफ़सोस भी हुआ। आखिर क्या जीतना चाहते है हम और किस तरीके से जीतना चाह्ते हैं?आखिर उस बच्चे के मुह से निकले द्विअर्थी संवादो का क्या असर पड़ेगा देखने वाले बच्चो पर्।
मुझे लगा कि बेमतलब न्युज़ चैनल वालो पर गुस्सा कर रहा था।सब एक से बढ कर एक हैं।बेचने के नाम पर ये कुछ भी बेच दें।संस्कार और नैतिकता की तो अब बात करना ही बेकार है। अब तो बचपन भी बेचा जा रहा है।विज्ञापनो को अश्लिलता के नाम पर कोसने वालो को कथित मनोरंजक चैनल पर भी नज़र डालना चाहिये।
41 comments:
बिल्कुल सही कहना है आपका....संस्कार और नैतिकता की तो अब बात करना ही बेकार है....अब तो बचपन भी बेचा जा रहा है....विज्ञापनो को अश्लिलता के नाम पर कोसने वालो को कथित मनोरंजक चैनल पर भी नज़र डालना चाहिये।
संस्कार और नैतिकता, यह सब तो गुजरे जमाने की बाते हो गई , मेने अपने बच्चो मै यही संस्कार डाले है, जो मुझे अपने मां बाप से मिले, लेकिन कई बार डरता हूं, इन नोटंकी वालो के सामने मेरे बच्चे गवांर ना कहलाये, इस लिये उन्हे इन गवांरो के बारे भी साथ साथ मै समझाता हुं.
बहुत ही सही बात कही आप ने अपने लेख मै,
धन्यवाद
कुछ लोग है जो धन के लिए कुछ भी बेच सकते हैं। ये सब उसी किस्म के लोग हैं। लेकिन कसूर उस मीडिया चैनल का भी है जिस की एक सामाजिक जिम्मेदारी है।
आश्चर्य नहीं की संवाद उसके माँ बाप ने ही लिखे हों. हिन्दी फिल्में हों या टी वी के कार्यक्रम, पता ही नहीं लगता कब वे सभ्यता की सीमा छोड़कर अश्लीलता की कीचड में धंस जाते हैं. हाल ही में मूंछों वाले शाहरुख खान को एक भद्दी गाली को पंजाबी में मर्दानगी शब्द की आड़ में बार-बार प्रयोग करते सुना.
अनिल जी, आपका कहना बिल्कुल ठीक है कि '...संस्कार और नैतिकता की तो अब बात करना ही बेकार है'. 'वे' कहते हैं कि जनता जो देखना चाहती है हम वही दिखाते हैं. 'हम' कहते हैं कि जो दिखाया जा रहा है वह समाज का ही आईना है. 'सरकार' कहती है 'कोई शिकायत करे तो कार्रवाई की जायेगी'.
कथित समाज, गधे के आगे गाजर लटका कर खुश हो रहा है कि गधा कितनी तेजी से दौड़ रहा है. गलती किसकी है, गधे की या गाजर की?
अरे खबरदार विरोध मत करना वरना आप रूढ़ीवादी हो जायंगे। आधुनिकता इसे ही तो कहते हैं।
समय बहुत आगे बड गया है . एडवांस हो रहे है लोग .सभ्यता का एक हिस्सा हो चुके यह कृत्य इब्तदा तरक्की है रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या .
...वह भी बच्चों के मुह से! संसकर्हीनता की और द्रुत गति से अग्रसर हो रहे हैं. अफ़सोस हो रहा है.
क्या कहा जाये..जब पूरी जमात ही बिमार हो गई हो.
दया आती है ऐसे बचपन पर ...शर्मनाक है "
Regards
"मुझे रियाल्टी शो के बारे ज्यादा मालूम नही है"
प्रिय अनिल, अन्य बहुत सारी स्तरहीन एवं फूहड वस्तुओं के साथ पश्चिम से आयातित एक वस्तु है रियल्टी-शो. इसका लक्ष्य ही मनुष्य को अनावृत करके उसके पाश्विक पक्ष को दिखा कर लोगों का मनोरंजन करना है. इससे बहुत सामाजिक नुक्सान होगा.
सस्नेह -- शास्त्री
यह एक बेकार और बेहूदा कार्यक्रम है. एक बार दो मिनट के लिए देखा था, बस.
बचपन की मासूमियत गायब है और बनावटीपन लिये फूहड़ता खिज पैदा करती है.
बचपन की मासूमियत तो अब रही नही ..बच्चों को जो सिखाया जाता है वह वही करते हैं ..माँ बाप और चेनल वाले ख़ुद समझे की वह क्या कैसे बच्चो को पेश कर रहे हैं
बहुत सही लिखा है ।
और तो और राहुल महाजन हर जुमले पर इतनी जोर से हो-हो करके हँसते है ।
बच्चों मे अब बचपना ख़त्म ही होता जा रहा है ।
बेचने पर तुले है बचपन को..
बहुत बढ़िया लिखा है एक घटिया प्रोग्राम के ऊपर . सब मिलकर बचपन को सस्ते में बेंचा है .रिहल्शल माँ बाप ही तो करवाते है .मैंने उसी प्रोग्राम में अश्लीलता की हद को पार करने वाली भाषा का प्रयोग दोनों लड़की भी करती है .कभी उसको भी सुनिए अगर सुन सकें तो .
हों जो दो चार शराबी तो तौबा करलें
कौम की कौम है डूबी हुई मयखाने में
क्या करें...आँखें बंद कर लें या कान फोड़ लें...क्या करें...??? किसको क्या कहें? बच्चों के माता पिता ही जब इन सब बातों के लिए उत्साहित करते हैं तो किसे क्या कहें?
नीरज
क्या बात कर रहे हैं, देश को उन्नीसवीं शताब्दी में ढ़केलने की कोशिश कर रहे हैं. जब चाची जी कहती हैं कि जोर से बोलो कंडोम तो ऐसे में आप क्यों बुराई कर रहे हैं. थोडे़ दिनों बाद यहां भी बच्चे लंच बाक्स में कंडोम रखकर ले जाया करेंगे.
हमें तो लगता है यह सोची समझी साजिश है हमारी संस्कृति को लूटने की ! जिधर देखो यही सब है ! कहाँ तक बचेंगे !
Aapne eakdam sahi likha...
बेचने के नाम पर ये कुछ भी बेच दें।संस्कार और नैतिकता की तो अब बात करना ही बेकार है। अब तो बचपन भी बेचा जा रहा है...
Sanskar to ab gayab ho gaye han ab bacha bhondapan...koshish rahti ha in sabse apne bachho ko bachane ki dekhte han kab tak bacha sakenge..par ji jan se jute han ham bhi bachane men...eak nai pots dalungi apni sanskriti ko kis trha se ham jinda rakhne ka pryas karte han yaha videsh ki dharti par..
अनिल भैय्या जी ...सब से पहले तो आप का सदर आभार ..के आप ने मुझे पढ़ा ...मैं इस पोस्ट को सरलता से लिखना चाहता था ...लिखते समय मेरे मन में सिर्फ़ ये चल रहा था के हर वो इंसान जो किसी दुसरे के काम आता है या फ़िर के उसकी परेशानियों को कम करता है वो खुदा से कम नहीं है ....ये कोई हमारे लिए तो हम भी किसी के लिए हो सकते है ... खुदा या भगवान् हर उस चहरे के पीछे छुपा होता है जो किसी दुसरे के लिए अच्छा सोचे ...आप ने भी कितनो की मदद की होगी ...उन सब की नज़रों में आप किसी भगवन से कम न होंगे ...चाहे आप इसे स्वीकार करे या ना करे ....आप का ..........अनवर ***
किसे कोसेंगे...........तालियाँ बजाने वाले सही ग़लत समझाने के लिए नही पैसे लेकर तालियाँ बजाने और नंबर बांटने बैठे हैं और अभिभावक टी वी पर अपने बच्चे को दिखाए जाते देख हर्षित और मुग्ध........किसे फिक्र पड़ी है कि बच्चों का बालपन कहाँ जा रहा है....
बहुत ही शर्मनाक और अफशोशनाक नाक है यह......पर क्या किया जाय....
ऐसे ही बचपन के कारण ...आगे चलकर मेट्रो सिटी की तर्ज़ पर किशोरवय बच्चे सेक्स की सीमा तक पहुँच जाते हैं और किशोर लडकियां सही जानकारी न होने के कारण प्रेग्नेंट हो जाती हैं .....भला हो ऐसे बच्चो का और उन्हें ऐसी सीख देने और उनका बचपन छीनने वालों का
अनिल कान्त
मेरा अपना जहान
भाई ये TRP और पैसा जो नही करवाये वो थोडा.
आप जो कह रहे हैं वो रोज हम सब देखते सुनते हैं पर अफ़्सोस कोई कुछ नही कर सकता.
रामराम.
अजीब लोग हैं और उनके मनमाफिक चैनल!
सचमुच पश्चिम सभ्यता के अंधानुकरण के चलते नैतिकता संस्कार और आदर्श जैसे सदगुण तो बहुत पीछे छूट गए लगते हैं.ओर इस सब के लिए केवलमात्र मीडिया को दोष देना ठीक नहीं है, दोषी तो सारा समाज है.
लाफ्टर चैलेंज आदि तथाकथित हास्य प्रोग्राम तो अब उन्हीं द्विअर्थों पर टिके हुए है और ज़माना तो बडे़ शौक से सुन रहा है... अब हम ही रो रहे है उसको गालियां देते देते:)
वेश्या और इनमे अब कोई फर्क नहीं बचा है| वेश्या की भी कुछ मजबूरियां होती हैं............
सही लिखा है आपने। हास्य बहुत फ़ूहड़ हो गया है मीडिया चैनले का। बच्चा ऐसे डायलाग बोल रहा है!
....अब तो बचपन भी बेचा जा रहा है
यह केबिल नेटवर्क और डी.टी.एच. हमारे घरों में मनोरंजन के नाम पर जहर फैलाने का काम भी कर रहा है। समय रहते न चेते तो अगली पीढ़ी संस्कार विहीन होना तय है।
Bahut hi sarmnak. bebak likhne ke liye badhyi.
हाँ शायद उन बच्चों को भी नहीं पता कि वो क्या कह रहे हैं...
मुझे तो यह सब बस एक ढोंग लगता है..
बस एक पैसे बनाने वाली मशीन बन गए हैं कल के सूरज...
बड़े अफ़सोस की बात है..
और शर्म की बात उन माँ-बाप के लिए जो अपने बच्चों को इन सब बेतुकी बातों की तरफ़ ढकेल रहे हैं...
दादा कोंडके दरअसल वक्त से काफी आगे थे, उनकी बनायी द्विअर्थी नाम वाली फिल्में तब इतना नही चली थी। आज के दौर में होती तो अच्छा खासा पैसा कमाती।
जब हंसने के भी पैसे मिलते हों तो कोई क्यों कर ना हंसे, स्टेज में कौन है क्यों है इससे क्या मतलब। यही नही टेलिविजन में हास्य का मतलब ही द्विअर्थी संवाद से होता है।
यह संवाद आज के समाज के गिरते हुए स्तर का द्योतक है।
सब पैसे का खेल है , किया तो माँ बाप क्या चैनल वाले और क्या जजेस पैसे के लिये कुछ भी करेगा वाला हाल है । बेहतर है कि हम ना देखें । गानों के कार्यक्रमों में भी प्रस्तुति संस्कृति ( Performance culture)नें बेडा गर्क किया हुआ है ।
"... बेचने के नाम पर ये कुछ भी बेच दें।संस्कार और नैतिकता की तो अब बात करना ही बेकार है। "
.... प्रसंशनीय पंक्तियाँ हैं, प्रभावशाली अभिव्यक्ति है।
ye hamara bhavishaya bana rahe hain. narayan narayan
चैनल की अपनी आर्थिक माँग हो सकती है,
मनोज बाजपेयी सरीखे कलाकार भी पारिश्रमिक के बूते ही अतिथि कि कुर्सी पर विराजमान होते हैं, लिहाज़ा दोष अभिभावकों का ही बनता है, जिनके प्रोत्साहन और प्रश्रय के बिना कोई बच्चा स्टेज़ तक पहुँच ही नहीं सकता ।
वज़ह वही... चाँदी का जूता और माँ-बाप के स्वयं की महत्वाकाँक्षा !
एक हल्ला-बोल युग की आवश्यकता है, बँधु !
नेतिकता... संस्कार???
क्या आप भी बच्चो जैसी बाते करते है..
नेम और फेम के लिए लोग कुछ भी बेचने को तैयार हैं....
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