Wednesday, February 11, 2009

दुश्मनो को भी शर्म आ गई होगी दोस्तो ने वो काम कर दिया,प्यार जिससे करना था सालों ने उसीसे झगड़ा करा दिया।

चारो ओर वसंत की बहार है।हर ओर प्यार ही प्यार है,कहीं वैलेंटाईन का तो, कहीं सेना का बुखार है।ऐसे मे लगा कि कहीं हम पर भी तो नही चढ रहा , होने से पहले दम तोड़ चुके इश्क़ का बुखार है।काश उस समय दोस्त कुछ कम हुए होते तो आज हम बजरंगबली के नही कन्हैया के भक़्त होते।

बात है उन दिनो की जब हमारा पूरा ग्रुप एम एस सी मे एड़मिशन के पहले कालेज मे हर साल की तरह लफ़ूटाई कर रहा था।कालेज मे उस साल ऐसा ही वसंत छाया हुआ था।चारो ओर हरियाली ही हरियाली थी।कालेज के पुराने स्टाक के अलावा पोस्ट ग्रेजुएशन मे एड्मिशन के लिये बाहर की बहार भी कालेज मे छाई हुई थी।कालेज के धांसू छात्र नेताओ का ग्रुप होने के कारण पुराना स्टाक को देखते ही छटक जाता था मगर नया स्टाक अभी हमारे ग्रूप की इमेज से पूरी तरह वाकिफ़ नही होने के कारण थोड़ा बहुत बात कर लेता था।

उस दिन भी सारे दोस्त शहर के जाने-माने स्टाकयार्ड डिग्री गर्ल्स कालेज के सामने के बस स्टाप पर इक्कठा हुआ और तीन नम्बर की बस पर सवार हो गया।उस दिन भीड़ कुछ ज्यादा थी।बस खचाखच भरी थी।हमारे कुछ चेले पहले से सवार होकर आ रहे थे सो उन्होने हमारे ग्रुप को सवार होते देख आवाज लगाई भैया ईधर,आगे आ जाओ।सब बिना टकराए शरीफ़ बनकर आगे बढे और फ़टाफ़ट खाली होती सीटो पर आसन जमाने लगे।काफ़ी पहले से खड़ी-खड़ी आ रही एक लड़की को शायद ये सम्मान पचा नही।उसने तड़ाक से कहा बडे आए भैया वाले इतनी तमीज नही है कि कोई लडकी खडी है।चले भैया की चम्मचगिरी करने।

सारा ग्रुप सन्नाटे मे आ गया था।पहली बार कोई चुनौती दे रहा था।वो पहली बार सिटी बस मे दिखी थी,इसलिये तय था वो नई है।सब खमोश थे,ऐसे समय मे लड़ाई-झगड़े का टेण्डर हमारे नाम पहले ही खुला हुआ था।बाकि लोग समझौता कराकर अपना जुगाड़ कर लेते थे।ये सब हमे अब समझ मे आ रहा है।खैर उस लड़की के कमेण्ट का जवाब देने हम आगे आए और अपने चेलो पर भड़क गए।हम्ने उनसे कहा कि बहुत गलत बात है सिर्फ़ भैया की चमचागिरी कर रहे हो और भाभी का खयाल कौन करेगा बे?हमारा इतना कहना था ज़ोरदार ठहाका लगा। हसी के उस धमाके से ऐसा लगा की बस की छत उड़ जाएगी।

हमने तब गौर से अपने उस धांसू डायलोग से घायल हिरणी की ओर देखा।वाकई वो बेहद खूबसूरत थी।चेहरे का रंग ज़रुर गुलाल मिले दुध सा रहा होगा या फ़िर मेरे डायलाग ने उसे शर्म से लाल कर दिया था।उसे कुछ सूझा नही,वो हक्की-बक्की रह गई थी।सारे के सारे लड़के-लड़कियां ठहाके लगा कर हंस रहे थे।ये सब हम लोगो को सालो से चला आ रहा रूटीन का काम था।सब एक दूसरे को जानते थे।वो नई थी इसलिये उसे समझ नही आ रहा था।उसका रूआसा चेहरा बता रहा था कि वो अब रोई कि तब रोई।मै सब समझ गया था।मैने माहौल हलका करने की गरज़ से उसकी बगल मे बैठे लड़के से कहा उठ ना साले।वो भी हमारा ही चेला था,तत्काल बोला जी जीजाजी और वो उठा और उस लड़की से बोला बैठिए दीदी।फ़िर क्या था फ़िर से वही ठहाको का दौर शुरु हो गया।

लड़की फ़िर से रुंआसी हो गई थी।मैने उससे पूछा नई हो?पता नही क्या हुआ, उसने कहा हां ।मैने कहा ये सब रोज़ चलता है ध्यान मत दो।बैठ जाओ प्लीज़।उसने भी शायद सोचा कि और किरकिरी कराने से अच्छा है बैठ कर माम्ले को खतम कर दिया जाए।वो लगभग झेंपते हुए बोली थैंक्स और खाली सीट पर बैठ गई।लेकिन मामला यंहा खतम नही हुआ।जैसे ही वो बैठी उस सीट को छोड़ कर खडा होने वाला बोला क्या ज़माना आ गया है भाई ने कहा तो कोई रिस्पांस नही और जीजाजी ने कहा तो बस फ़िर ठहाको से गूंज उठी। कहानी यहां खतम नही हुई। आगे बताउंगा कि दुश्मनो को भी शर्म आई होगी दोस्तो ने वो काम कर दिया,प्यार जिससे करना था सालों ने उसीसे झगड़ा करा दिया।इंतज़ार करियेगा ये कहानी नही सच है।

17 comments:

अनिल कान्त said...

भाई जान आपकी कहानी का हमें इंतज़ार रहेगा ....जल्दी लिखना

ताऊ रामपुरिया said...

भाई सच तो होगा ही. आखिर लगता है ये ही वो खूबसूरत बला थी जिसने आपको आज तक हनुमान जी का भक्त बना रखा है. :)

रामराम.

Shiv said...

गजब कर दिया 'भइया'....गजब कर दिया. अगली कड़ी का इंतजार है....बसंत की बहार है.

Smart Indian said...

no comments!

Anonymous said...

जिस जिज्ञासा का उत्तर, मैं आपसे पहली मुलाक़ात में ना पा सका.
उसे आप ब्लोग जाहिर कर रहे हैं.
प्रतीक्षा रहेगी, (एक दुखद) क्लाईमेक्स की.

Arvind Mishra said...

ये कहानी सच नही है ना !

योगेन्द्र मौदगिल said...

ऊपर वाले चारों से सहमत हूं पर ताऊ की बात जोरदार सी है. बहरहाल.. अगली पोस्टिये..

योगेन्द्र मौदगिल said...
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डॉ .अनुराग said...

आ गये आप भी लाइन में......शुक्र है चौपाल तो जमी

डॉ .अनुराग said...
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दिनेशराय द्विवेदी said...

अब हम क्या कहें? ताऊ से आगे की बात करने की हिम्मत नहीं पड़ रही है। फिर आगे की कहानी भी तो जाननी है।

P.N. Subramanian said...

रोचक पोस्ट. आभार.

Sanjeet Tripathi said...

क्या बॉस, इतने सालों में जे सब ह्म्में तो नई बताए कभी…………

अऊर साहेब हम थोड़ा बहुत नैन-मटकक्का कर लेते हैं तो चमका देते हो हां……

PD said...

sachchi me.. aap to hamare gurudev hi hain.. :)

Anonymous said...

संजीत की शिकायत जायज है जी! आगे की कहानी का इंतजार है!

महेंद्र मिश्र.... said...

"उस देश मे जहां, आज भी बेरोज़गारी, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, जैसी गम्भीर समस्या सुरसा की तरह विकराल रुप मे मौज़ूद है,वहां एक विदेशी त्योहार के नाम पर चडडी पहनाने और उतारने का खेल(इसे खेल नही तो और क्या कहा जा सकता है)खेलने मे सारा देश भीड़ गया है"

भाई चड्डी समाजवादी होती है . चड्डी घर घर की शान होती है और आदमी न पहिने तो उसकी शान नही रहती है . जनता सरकार नेता एक दूसरे को चड्डी पहिनाने और उतारने की कोशिश लगातार करते रहते है जिसने चड्डी पहिन ली वो विजेता होता है हारा हुआ अगली बार विजेता को चड्डी रहित करने की कोशिश करता है . मै भी आपकी अपील पर अपनी चड्डी और लगोट दान करने की सार्वजनिक घोषणा करता हूँ ..हा हा ........आनंद आ गया जी आपकी इस चड्डी कथा को पढ़कर . आजकल लोग चड्डी के कलर को लेकर परेशान हो रहे है .

राज भाटिय़ा said...

अरे... बजरंग वली के चेले, ओर .... अनिल जी मजा आ गया, देके आगे क्या होता है... वेचारी....
मुझे शिकायत हे