Thursday, March 12, 2009
त्योहार यानी दारू,मुर्गा और जुआ?
पेश है एक माईक्रोपोस्ट्।देशी त्योहारों के दिन-ब-दिन बिगड़ते स्वरुप पर बहुत निराशा होती है।कल भी होली पर अधिकांश लोगो से उनका कार्यक्रम पूछने पर जवाब सबका करीब-करीब एक सा आया।अधिकांश ने कहा कि तू होली-वोली खेल के वो वाले फ़ार्म-हाऊस आ जाना।वंही नहा लेना।मैच देखेंगे,मुर्गा-मट्न बन रहा है दारू-शारू भी है,रमी-वमी खेल लेंगे रात का खाना खाकर लौट आयेंगे।ये है होली मनाने का नया आईडिया।न किसी से मिलने उसके घर जाना,न किसी के घर जाकर बुजुर्गो का आशिर्वाद लेना,न रंग लगाना और गुलाल लगाकर पिछले मलाल मिटाना।दारू पीकर जोर-जोर से चिल्लाना और सुनसान इलाको मे बने फ़ार्म हाऊस मे फ़ाग और नगाड़ो की थाप की बजाय,म्युज़िक सिस्टम पर नाचना,गाना,हंगामा करना।क्या ये ही होली है?क्या होली ऐसी ही हुआ करती थी?क्या होली मे दारू पीना,मुर्गा खाना,जुआ खेलना ज़रूरी है?क्या प्यार के त्योहार पर अब व्यापारिक दोस्त ज्यादा महत्व्पूर्ण हो गये है,बचपन के दोस्तो से?और भी बहुत से सवाल ऊड़ रहे है मेरे दिमाग मे होली पर उड़ने वाले रंगो से भी ज्यादा?शायद आपको भी प्यार से सराबोर रहने वाली होली का बदरंग होता स्वरूप नज़र आया हो।
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20 comments:
जी हां आपकी चिंता सही है। त्योहार अब ऐसे ही हो-बनकर रह गए हैं।
ये सारे सवाल आप के अकेले के नहीं हैं, हम सब के हैं।
मैं तो प्रतीक्षा कर रहा था कि आप के ब्लाग पर कल की होली का हाल पढ़ने को मिलेगा, लेकिन आप ने सवाल खड़े किए हैं। बाजार हमारी संस्कृति को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है, इस ने सारी दुनिया में संस्कृति को नष्ट किया है तो हम बाजार को अपना कर अपनी संस्कृति की सुरक्षा कैसे कर सकते हैं?
त्यौहार के वैसे बहुत सारे मतलब होते हैं। बस भावना, सही होनी चाहिए।
गनीमत है हमारे यहाँ अब भी होली वही पुराने अंदाज में मनाई जाती है, पर इस बार तो बंगलोर में थे तो कुछ पता ही नहीं चला होली कब आ कर बीत भी गयी. होली के इस रूप से भेंट अभी तक तो नहीं हुई है.
ये तो वक्त वक्त की बात है.
जैसा दिन वैसी ही रात है.
रामराम.
आपने बिल्कुल ठीक लिखा है.
कुछ तो ऐसे त्योहारों का स्वरुप बदल रहा है और कुछ जल , उर्जा और पर्यावरण सरक्षण के नाम पर आम लोगों से इन त्योहारों का स्वरुप बदलने को कह रहे है . बजाय हानिकारक केमिकल वाले रंगों के निर्माण करने वाले और पर्यावरण को नुक्सान पहुचाने वाले उद्योगों के कहने के .
होली के पावन पर्व की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं ।
मानवीय त्यौहार अब आसुरिक शक्तियों के हाथ चढ़ते जा रहे हैं।
होली की रंग-बिरंगी शुभ कामनाएं!
इस फ़ार्म-हाऊस संस्कृति ने मुर्गे तो क़त्ल किये ही हैं, बहुत से काले धन का कृषि आय के रूप में बिना-कर परिवर्तन भी किया है और कृषि योग्य भूमि के एक बड़े भूभाग को कृषि से वंचित भी किया है. उद्योगों के लिए ज़मीन दियी जाने का विरोध करने वाले नव-धनाढ्य विरोधी फार्म-हॉउस कल्चर के विरोध में कब खड़े होंगे?
भाऊ, संस्कृति वगैरह बचाने की चिंता करोगे तो तड़ से साम्प्रदायिक घोषित कर दिये जाओगे… जबकि "जो होता है होने दो, बल्कि जो है उसे और बिगाड़ो तो "प्रगतिशील" कहलाओगे…, चॉइस आपकी है…
सोचने वाली बात है। परन्तु बचपन के दोस्त! वे तो पुरुषों के ही होते हैं। हमारे तो न जाने कहाँ छूट गए।
घुघूती बासूती
ऐसे पारंपरिक भारतीय त्यौहारों को बाज़ारवाद की भेंट चढ़ा हुया देख मन बहुत खिन्न होता है। कथित विकास ने वह उल्लास खतम कर दिया है, जो बरसों पहले हुया करता था.
घुघूती जी का कथन भी सोचने पर मज़बूर करता है।
होली पर दारु और दिवाली पर जुआ पर रोक लग जाए तो कई लोग त्यौहार मनाना छोड़ देंगे
if my memory doesn't fail me, a post, just before Holi eve, from you shouted about Holi celebrations laced with neat alcohol in the Press Club, you look after. I wanted to comment on it the same day about how journalists themselves have forgotten every ethic and have dumped every celebration into whiskey glasses. Glad you confirmed it in this post. Now, what are you going to do about it, besides writing a conciliatory blog post.
सटीक बात भाई जी, लेकिन केवल फार्म हाउसों ही नहीं हर चौक-चौराहे की नयी रीत हो गयी ये तो...
Aur nahi toh kya?
Ya fir Kya Kisan Kanhaiyya Puchkari lekar aap ke upar rang dalne aaenge, 36 "Rag raginiya" sunaenge, aur aap kahenge "Apne hee rang me rang de chunariya". Mool Aastha khatma ho rahi hai karan chahe koi bhee ho lekin yehan "Prerak & Karak" dono hum sabhi hai.
विकृत जरूर हो रहे हैं त्यौहार
अरे भई, किसी से मिलने-विलने कहां जांय? पडोसी से तक दुआ-सलाम नहीं होती। बस जीवन यही रहा- आती क्या खंडाला? खायेंगे, पीयेंगे, मौज करेंगे...और क्या:)
अब वो मिलना मिलाना कहाँ. लगता है की किसी दूसरी दुनिया में थे. आभार.
अनिल जी आप की बात हमेशा की तरह सटीक , पहले त्योहारो पर पबित्रा होती थी, आज दारू ओर शराब यह चीजे पवित्र हो गई है, पहले बुजुर्गो के चरण छु कर आशिर्वाद लिया जाता था, आज बुढे के लिये समय नही, पहले होली के दिन डुशमनी मिटाई जाती थी, आज होली के दिन नये दुशमन बनाये जाते है.
कल यु टुयब पर मै होली के गीत ढुढ रहा था, लेकिन वह इतना गंद दिखा कि मन खिन हो गया, आप की चिंता जायज है, आज कल मंदिरो मे भजन भी सुनो तो लगता है कॄष्यण भगवान भी किसी प्ले वाय से कम नही होगे...
अब किस किस को रोये बाकी बात सुरेश जी ओर अन्य साथियो ने कह दी...
धन्यवाद
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