Thursday, April 16, 2009

पचास प्रतिशत लोग तो मतदान करना ज़रूरी ही नही समझते!

एक माईक्रोपोस्ट पेश हैःलोकतत्र के महापर्व के पहले चरण मे छत्तीसगढ की सभी 11 सीटो पर प्रदेश मे मताहूति दे दी गई।पांच माह पहले हुये विधान सभा चुनाव मे सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोगो ने मतदान किया था।इस बार तमाम जन जागरण अभियान और प्रचार-प्रसार के बावजूद मतदान पचास प्रतिशत रहा।क्या हम इसे यूं नही कह सकते पचास प्रतिशत लोग तो मतदान करना ज़रूरी ही नही समझते?क्या इसे आधे लोगो द्वारा उम्मीदवारो को नकार दिया जाना नही माना जा सकता?

20 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बिलकुल माना जाना चाहिए. मामला ही यही है.

अनिल कान्त said...

baat to aapki sahi hai

डॉ महेश सिन्हा said...

ise janata ki nirasha hi samjha jaa sakta hai

Gyan Dutt Pandey said...

सब को नकारने का भी विकल्प होना चाहिये।

अविनाश वाचस्पति said...

बाकी पचास प्रतिशत का तो
बंटाढार हो चुका है
कुछ प्रतिशत को नोट देकर
कुछ प्रतिशत को चोट देकर
कुछ प्रतिशत को रोट देकर
कुछ प्रतिशत को लोट देकर
कुछ प्रतिशत को कोट देकर
बाकी कुछ बचा ही नहीं
राजनीति का यही सही हिसाब है।

ताऊ रामपुरिया said...

हां लगता तो ऐसा ही है कि जनता हतोसाहित हो चुकी है. अब पचास प्रतिशत मतदान का मतलब तो आप समझ ही सकते हैं.

रामराम.

संगीता पुरी said...

इसे आधे लोगो द्वारा उम्मीदवारो को नकार दिया जाना ही माना जा सकता है ... पर विडम्‍बना ही है कि इसका प्रजातंत्र पर कोई असर नहीं देखा जा रहा है।

NIRBHAY said...

Apka shak 100% sach hai, jo vote dalne nahi gaye un-ne elections ko nakara hee hai, bahut hee negligible percetage hoga jo koi vyaktigat karan se nahi gaya hoga i.e. illness, tour,etc. "Durdevya" is baat ka hai ki yeh record par nahi aayega. Agar ise lana hai toh ACT ke 49.0 code ke anusar polling booth me ja kar special form bharne ka chakkalas hai.
Yeh 40% log (10% minus karta hun galat voter list, jo chah kar bhee ja nahi paye, etcetra ke liye) Lower MIG, MIG, HIG hain yeh jante hain kee ek "SAPNATH" hai toh dusra "NAGNATH", hum kisi ko bhee chune sabhi Jhoothe, Farebi, Kapti, Thag hain jo humse income tax lekar apna pet bharenge fir agle election ke 6-7 mahine pahle "KHAIRAT" bantne ki ghoshna karenge, daroo batenge, 4.5 saal ki "Dakar" le le kar vote mangte firte rahenge. yehan tak ki pair me lot jayenge. Humari kya aukat yeh soch kar man masos kar rah jate hai, "Khairati" log vote dalne jaate hain. Yeh bahoot achhe se jan chooke hain kee koi bhee party choon kar aaye desh me "Aamool Chool" parivartan nahi la sakte jo voh chahten hai, pure democracy, 100% implementation of constitution of India.

Udan Tashtari said...

यह एक विडंबना है!!

Anil Kumar said...

सर्वेक्षणों के दौरान पाया गया है कि चुनाव के दिन को एक छुट्टी का दिन महज समझने वालों में तथाकथित पढ़े-लिखे, संभ्रांत परिवार के अमीरजादे ही अधिक होते हैं। अब ऐसे में हम अपने बच्चों को स्कूल भेजकर उनके भेजे में क्या-क्या घुसा रहे हैं, इसपर क्या सोचियेगा?

अजित वडनेरकर said...

कई बार इससे अधिक लोग मतदान को नकार चुके होते हैं फिर भी सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकार बनती है। ज्यादातर सरकारों को अल्पमत की सरकार कहना ही सही होगा।

योगेन्द्र मौदगिल said...

t

विचारणीय बात... पर हल क्या...? अनिल जी, ये आधे पूरों को बेकार कर छोड़ते हैं...

दिनेशराय द्विवेदी said...

सब को नकारने का विकल्प भी है, लेकिन उस के लिए मतदान केन्द्र तक जाना पड़ता है।
लगता है आज कल पचास प्रतिशत बाबा तुलसी की पार्टी में..
कोऊ नृप होय हमें का हानि

कुश said...

इन पचास प्रतिशतो में हम भी है... पर मामला यू है क़ी मतदाता सूची से ही गायब है हम.. :)

परमजीत सिहँ बाली said...

असल मे आज के नेताओं के कार्यकलापो और राजनिति के जोड़-तोड़ के कारण आम आदमी निराश होता जा रहा है। किसी के पास कोई स्पस्ट नीती है ही नही।मतदाता क्या करे? इसी लिए वह इन्हें इस तरह नकारता है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

matdaan anivary hona chahiye jise yeh dusht hone nahin denge.

Anonymous said...

मैं नहीं मानता कि आधे व्यक्तियों द्वारा मतदान न करने को, उम्मीदवारों को नकारना माना जाये।

मतदान न करने वालों में
धनाढ्य वर्ग, जो यह मानता है कि कोई भी आये सता में, चलेगी अपनी ही, कोई फर्क नहीं पड़ताया फिर
निर्धन वर्ग, जो यह मानता है कि कोई भी आये सता में, हमारी जिंदगी में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, जैसी चल रही है वैसी ही चलेगीमुख्य होते हैं

मतदान करता है सामान्य वर्ग,
जो यह सोचता है कि
शायद अगली सता से उसकी ज़िंदगी/ रहन-सहन का स्तर कुछ ऊपर उठ जाये
या फिर
शायद अगली सता से उसकी ज़िंदगी/ रहन-सहन का स्तर कहीं गिर ना जाये

जिम्मेदारी की भावना के अलावा, ये दो कारक ही मतदान कराते हैं

अपवाद हर जगह मिलते हैं

RADHIKA said...

कुछ मतदान के महत्व की अनभिज्ञता के कारण ,कुछ मजबूरियों के कारन और हो सकता हैं जैसा आपने कहा की उमीद्वारो को नकार देने के कारन मत नहीं करते .

Urmi said...

मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !

हरकीरत ' हीर' said...

था।इस बार तमाम जन जागरण अभियान और प्रचार-प्रसार के बावजूद मतदान पचास प्रतिशत रहा।क्या हम इसे यूं नही कह सकते पचास प्रतिशत लोग तो मतदान करना ज़रूरी ही नही समझते?क्या इसे आधे लोगो द्वारा उम्मीदवारो को नकार दिया जाना नही माना जा सकता?

आपके इस प्रश्न के जवाब में मैं बी. अस. पाबला जी की बात से सहमत हूँ....!!