Thursday, May 28, 2009

डा बिनायक सेन की रिहाई पर पर्चे बांट कर खुशियां मना रहे है नक्सली!इसे क्या कहेंगे मानवाधिकारवादी!

कहने को बहुत कुछ है मगर ज्यादा नही कहुंगा।बस कुछ लाईनो मे छत्तीसगढ मे जो हो रहा है उसे सामने रख रहा हूं जस का तस। नक्सलियो ने छत्तीसगढ मे अपनी गतिविधियां ज़ारी रखी है।उन्होने डोंगरगढ इलाके मे एक निजी मोबाईल कंपनी के टावर को उड़ा दिया और नारायणपुर क्षेत्र मे एक टिप्पर जला दिया।वंहा उन्होने लाल स्याही से लिखे पर्चे भी छोड़े हैं।पर्चों मे साफ़ लिखा है बिनायक सेन की रिहाई पर खुशियां मनाओ।जेल मे बंद बाकी कामरेड़ों के लिये आंदोलन तेज़ करो।साम्राज्यवाद,पूंजीवाद टाटा,एस्सार और रावघाट परियोजना का विरोध करो।अब इसे क्या कहेंगे कथित मानवाधिकारवादी और उनके समर्थक। हम तो बस इतना कहेंगे कि दाल मे कुछ न कुछ काला है नक्सलियों के पर्चे इस बात का सबूत है।

19 comments:

अरूण फ़ूसगढिया said...

सही कहा आपने लेकिन देखता कौन है ? मै तो पिछले कई महीनो से यहा ब्लोगजगत मे भी इन सज्जन के समर्थन मे लगातार पोस्ट देख रहा हू . लेकिन विरोध करने पर तालीबानी कहने के अलावा और कुछ कह पाते है ये लोग ?

रंजन said...

विनायक सेन जी अब शायद उन्हे मना कर दे...

राज भाटिय़ा said...

अनिल जी आप कहते तो सही है, लेकिन यहां सुनने ओर पुछने वाला कोन है?सब को अपने अपने पेट की पढी है

Unknown said...

अनिल जी,

रायपुर में रह कर तो हम नक्सलवाद के आतंक के विषय में बहुत ही कम जान पाते हैं। चार साल तक नारायणपुर में रहा हूँ मैं अपनी नौकरी के दौरान, और मैं जानता हूँ कि वहाँ पर केवल नक्सलवादियों की ही तूती बोलती है। पता नहीं कभी मुक्ति मिल पायेगी उनसे या नहीं।

ताऊ रामपुरिया said...

आप बिल्कुल सही कह रहे हैं..पर आप सिर्फ़ दाल में काला बता रहे हैं और मुझे तो यहां पूरी ही दाल काली दिखाई दे रही है.

रामराम.

राजीव रंजन प्रसाद said...

अनिल जी,

सच तो खुद-ब-खुद बाहर आ रहा है। लेकिन इस सच पर तो आँख मूंदने का रिवाज है। इस तरह का सच लिखेंगे तो "बुद्धिजीवी" नहीं कहलायेंगे :)

वही बात कि जितना समर्थन सेन जैसे लोगों को है अगर इतना समर्थन बस्तर के आदिमों को हासिल होता तो सचमुच क्रांति हो जाती।

अफसोस!!!

संजय बेंगाणी said...

दाल पूरी काली है और उसका बरतन भी काला है. किसी से छिपा नहीं है. सरकारी वकिल की बात सुने बिना ही जज ने फैसला सुनाया. भगवान उन्हे मति दे.

दीपक said...

आपका तर्क सही है अनिल जी ..... मगर कोई अगर दोषी साबित ना हो तब तक उसे स्वास्थ की शुभकामना देना मै नही समझता अपराध होगा !!

मेरे लिये यह अपने आप को सही गलत साबित करने के अहंकार से बडा प्रश्न है इसलिये ऐसे सारे तर्क जरुर रखे जाने चाहीये ताकि इससे भ्रम जरुर दुर हो ।

और अगर हम गलत हो तो हम अपनी गलती मान ले । मगर सवाल यह भी है कि पर्चे सिंगावरम के जनसंहार के बाद भी बंटे थे तो क्या इसे उनके आदीवासीयो के शुभचिंतक मानने का सबुत मान लिया जाये ?

Abhishek Ojha said...

इस पर मौन तो रहेंगे ही ! अजीब लोग हैं !

पिछली पोस्ट पर: विलासराव को अभी कुछ ही दिनों पहले क्या 'इम्पीच' नहीं किया गया था? और अब... ! बड़ी सॉलिड बहुमत की सरकार बननी थी... मंत्रिमंडल के गठन में ही साफ़ हो गया !
रामभरोसे चलता रहा है चलता रहेगा यह देश !

Gyan Dutt Pandey said...

अच्छा, नक्सली भारत की न्यायव्यवस्था का गुणगान भी कर रहे हैं क्या?

दिनेशराय द्विवेदी said...

अनिल जी,
जब से तीन दिन छत्तीसगढ़ में बिताए हैं। मुझे छत्तीसगढ़ अपना सा लगता है। वहाँ की घटनाओं से वैसे ही चिंतित हो उठता हूँ जैसे मेरे यहाँ घट रही हैं। इसी लिए एक विनम्र निवेदन कर रहा हूँ।

डॉक्टर बिनायक सेन को नक्सली अपना साथी घोषित करें इस में उन का लाभ है। यह घोषणा सच न होते हुए भी वे कर सकते हैं। इस से यह कहना कि बिनायक नक्सली हैं बहुत गलत हो जाएगा। नक्सल समस्या बहुत जटिल है। वहाँ गरीब आदिवासी जनता, उस के बीच काम करने वाले समाज सेवी, मानवाधिकारवादी, नक्सली, राज्य सरकार, छत्तीसगढ़ के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल और दूसरे समाजवादी तथा साम्यवादी दल इन्हें सब को अलग कर के देखना होगा। एक दूसरे के साथ मिला देने से बहुत गड़बड़ हो जाएगी। बिनायक सेन, समाजसेवी, मानवाधिकारवादी और नक्सली इन सब का काम करने की जमीन छत्तीसगढ़ के आदिवासी हैं। सब खुद को उन का हितैषी प्रदर्शित करना चाहते हैं। यदि नक्सल समस्या से निपटना है तो नक्सलियों के विरुद्ध सब का मोर्चा तैयार करना होगा तथा नक्सलियों को अलग-थलग करना होगा। आप इस लाइन को आगे बढ़ाएंगे तो मेरा मानना है कि छत्तीसगढ़ी जनता की बहुत बड़ी सेवा करेंगे।

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

देखिये, ये सब ज्यादा दिन चल नहीं पायेगा. दुनिया बहुत तेजी से आगे जा रही है. नक्सलवादियों की कुछ बातें वाकई सही हो सकती हैं लेकिन किसी भी तरह की तरक्की का विरोध करना उन्हें भारी पड़ेगा और वे आनेवाले वक़्त में बुरी तरह से पिछड़ जायेंगे.

हिंदी में प्रेरक कथाओं, प्रसंगों, और रोचक संस्मरणों का एकमात्र ब्लौग http://hindizen.com

शरद कोकास said...

दिनेश राय द्विवेदी जी ठीक कह रहे है इस बात को नक्सली समस्या से अलग कर देखा जाना चाहिये.मानवाधिकार का अपना अलग कार्य है उसके लिये हर मनुष्य का अधिकार मायने रखता है

डॉ महेश सिन्हा said...

मुझे ऐसा लगता है कि कुछ लोगों ने इस पोस्ट की एक लाइन नहीं पढ़ी "जेल मे बंद बाकी कामरेड़ों के लिये आंदोलन तेज़ करो" . यहाँ किस आन्दोलन की बात हो रही है ? वैसे ही आन्दोलन की जैसा बिनायक सेन के लिए चलाया गया . आजकल सुप्रीम कोर्ट की कुछ टिप्पणियां समझ के बाहर हैं . जज का यह कहना कि हमें सब मालूम है ओर सरकार का पक्ष नहीं सुनना किस सन्दर्भ में कहा गया , क्या उनका निर्णय मीडिया ओर आन्दोलन से प्रभावित हुआ ?

समयचक्र said...

दिनेश राय द्विवेदी जी ठीक कह रहे है...

Smart Indian said...

कोई बात नहीं, डरपोक, कमज़ोर और स्वार्थी लोग आतंकवादियों के मानवाधिकार के लिए ही तो लड़ रहे हैं - वरना अपनी जान जाने का डर भी तो है. सही लोगों से कैसा डर, वे तो कानून के दायरे में ही काम करेंगे.

hem pandey said...

मानवाधिकार की बात करना कतई गलत नहीं है, लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि भारत में मानवाधिकारवादी केवल आतंकवादियों, नक्सलवादियों के मानवाधिकार की ही बात करते हैं. पीड़ितों के पक्ष की उपेक्षा कर देते हैं.

hem pandey said...

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें दिसम्बर हो या जून , बस दो जून की रोटी चाहिए.

Ashok Kumar pandey said...

करो।साम्राज्यवाद,पूंजीवाद टाटा,एस्सार और रावघाट परियोजना का विरोध करो

इसमे क्या बुराई है भाई