ये जवाब सुन कर मेरा पारा चढ गया मगर इससे पहले मै कुछ कहता उसने कहा देख तेरी भावनाओं की मै कदर करता हूं मगर मै जो कह रहा हूं वो सौ टका खरा है।तू चल उठ,मेरे साथ चल।तू चुप-चाप रहना,बस सुनना।बाकि दोस्त भी बोले जा ना चेक कर ले।मै अनमने ढंग से उठा और उसके साथ हो लिया।छात्र जीवन से लेकर अब-तक़ सिवाय नेतागिरी के उसने कुछ नही किया था।अपनी न्यूसेंस वेल्यू को उसने समझा था और राजनैतिक दलों से दूर रहकर क्षेत्रियतावादी राजनिती का दामन थाम लिया था।
सबसे पहले वो नेताओं के एक गुट के पास गया और मुझसे बोला तू सिर्फ़ सुनना।वंहा जाते ही उसने पहले उनके नेता के भ्रष्टाचार का पिटारा खोला और तुरंत ही उनके विरोधी नेताओ की पोलपट्टी खोलने लगा।सारे के सारे नेता उसकी बातो मे रस लेने लगे और उसके बाद हंसी मजाक भी शुरू हो गया।ऐसा लग ही नही रहा था कि श्मशान मे खड़े हैं।वो अचान्क उन लोगो से बोला थोड़ा तुम्हारे एण्टी ग्रुप से भी मिल आऊं साले इधर ही देख रहे हैं।उन लोगो ने कहा हां जा मिल आ उनको भी सेट कर ले।वो बोला पुरा टाईम तुम लोगो को ही दूंगा तो हो गया काम्।सबसे मिल्ना पड़ता है।
उसके बाद उनके विरोधियो के पास पंहुचते ही सब शुरु हो गये।एक दूसरे की बखिया उधेडने के साथ-साथ कौन कितना कमा रहा है।किस का किस से चक्कर चल रहा है और पता नही क्या क्या बकवास करते रहे सब्।वंहा से हट कर वो बोला चल अब तेरी जात के लोगो के पास चल रहा हूं,वंहा सीनियारिटी मत पेल देना।मै खामोश था।उसने कोने मे जमा होकर पता नही क्या खुसूर-फ़ुसूर कर रहे उन लोगो से सीधे-सीधे जाने वाले साथी के संघर्ष का जिक्र छेड़ दिया।सब खामोश हो गये और उसके बाद उसने जाने वाले के अच्छे-बुरे समय मे उसके साथ किये गये वरिष्ट लोगो के बर्ताव पर बोलना शुरू किया और धीरे से उनके खबरो को दबाने से लेकर उनका फ़ायदा उठाने के किस्से छेड़ दिये।धीरे-धीरे सभी उसीके सुर मे सुर मिलने लगे और फ़िर वंहा भी हंसी मजाक का दौर शुरू हो गया।
वो बोला चल अब उन बुढऊ लोगो के पास और सुन उन लोग क्या बोल्……।मै बोला बस कर मुझे नही सुनना।उसने मेरा हाथ पकड़ा और वापस पुराने साथियों के पास चला आया।सबने उससे कुछ नही पूछा ,मुझसे ही पूछा क्यों देख लिया।मैने कुछ नही कहा।इस पर वो बोला अनिल दुःख तो हम सबको उतना ही है जितना तुझे। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि हम लोग आदि हो गये है और ये सब होना ही है,ये मान कर चलते हैं।तू मेरे छोटे भाई के निधन पर आया था तब मै भी रो रहा था।तू उस समय भी ऐसा ही था जैसा आज है लेकिन हर कोई नही।बहुत से लोगो के ठहाके मेरे कानो तक़ पहूचे थे।बहुत से लोगो को बार-बार मोबाईल पर फ़ुस्फ़ुसाते और चेहरे पर परेशानी की गहराती लकीरों को मैने पढा था।बहुत से लोगो को यार और पता नही कितनी देर लगेगी कहते सुना था।आ रहा हूं,बस पहुंच रहा हुं,तुम लोगो शुरू करो आदि-आदि।मुझे थोड़ा खराब लगा मगर तब मुझे ये याद आ गया मै भी ऐसा ही तो करता हूं।और एक बात और कोई यंहा इधर-उधर की बात इस लिये नही करता कि उसे मरने वाले का दुःख नही है।वो भी दुःखी होता है मगर सच ये भी है कि श्मशान के बाहर दूसरी दुनिया उसका इंतज़ार कर रही है।तू तो अभी भी घर जाकर नहा कर वापस आयेगा लेकिन कितने लोग ऐसा कर पायेंगे। आधे से ज्यादा यंही हाथ पैर धोकर दुकान चले जायेंगे ,तेरे साथी सीधे दफ़्तर चले जायेंगे। अब समय उतना नही है लोगो के पास्।वो बोले चले जा रहा था थोड़ी देर बाद मुझे कुछ भी समझ मे आना बंद हो गया।पहली बार मुझे वो समझदार और जिम्मेदार लगा।इससे पहले मै उसे बिंदास और लापरवाह हर वक़्त बक़वास करने वाले मतलबी नेता ही समझता था।पता नही वो सच कह रहा था या झूट।लेकिन मैने हर ओर नज़र दौड़ा कर देखा सब लोगो छोटे-छोटे समूहो मे बातचीत मे मस्त थे।मुझे लगा उसकी बात मे दम तो है।
26 comments:
शायद लोग उस गम को छुपाने के लिए या हल्का करने के लिए ऐसा करते हैं . कुछ दिनों पहले समीर जी ने कनाडा के बारे में लिखा था कि वहां तो बाकायदा निमंत्रण मिलने पर ही आप जा सकते हैं इत्यादि इत्यादि .
किसी की मृत्यु से मन थोडा आहत तो होता है .. पर कुछ खास अंतर नहीं आता .. दुनियां यूं ही चलती रहती है .. वास्तव में गम भूलाने के लिए ही हमारे धर्म में इतने कर्मकांडो में लोगों को व्यस्त रखा जाता रहा है .. वरना दुख से तो लोग पागल ही हो जाते !!
आपने बहुत सुक्षमतापुर्वक और ध्यान पुर्वक इस विषय पर विचार किया है. आपकी पारखी सोच से जवाब भी स्वत: ही मिल गया. शुभकामनाएं.
रामराम.
Sangeeta ji se sahmat..
vaise aapka vyangy bhi bahut dhardar hai..
मैं ने भी देखा है लोग हाजरी लगाने जाते हैं। और मेला तो होता ही है।
रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!
सच तो है...फुरसत कहाँ से लायें हम मिलने-मिलाने की, बातें करने की। कोई उपलक्ष्य तो हो और मौत भी तो अब के किसी उपल्क्श्य से कम नहीं...
चाहे इसे "दुनिया बदल गयी......इंसान बदल गए....." कह लीजिये, या ग़म हल्का करने का एक तरीका, या फ़िर कुछ और.... .....सच तो यही है......
साभार
हमसफ़र यादों का.......
हमारे यहाँ तो कुछ लोग बाकायदा सुबह अखबार मे श्रद्धांजली कालम पढकर मित्र को फोन करते है "नई कविता लिखी है पहुंचो वहीं सुनाऊंगा " मगर मै इस पक्ष मे नही हूँ. लोगो को चाहिये कि वहाँ पहुंचकर सिर्फ और सिर्फ दिवंगत के बारे मे बाते करे क्योंकि उसके बाद उस आम आदमी को कोई नही याद करता
सच कह रहे हैं.
इसी से मिलती जुलती कुछ बातचीत पिछले बरस हमने की थी, इत्मिनान से देखियेगा:
http://udantashtari.blogspot.com/2008/08/blog-post.html
अनिल भाई ,
ये तो हुई अंत्येष्टि स्थल की बात , शब्दशः सच !
मैं एक मित्र की माँ की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके घर गया , मृत देह को खडगघाट ले जाने की तैयारी चल रही थी और..... कुछ छिछोरे मृतात्मा की जवान पुत्री को सीने से लगा कर ढाढस बंधा रहे थे... ! मृत्यु से विरक्त होकर हँसना समझ में आता है किन्तु ये हरकत .....?
आज लोगो के पास वक्त नही जहाँ मिलते है वही शुरु हो जाते है चाहे वो श्मशान हो या कोई और जगह ।
किसी की मौत पर रोना गुज़रे जमाने की बात है
सिर्फ्दिखावे को मातम मनाने आयेंगे लोग
कौन किसी की नमी मे डूबना चाहे
देख कर किसी को दुखीपना दिल बहलाने आयेंगे लोग
अच्छी पोस्ट है आभार्
किसी की मौत पर रोना गुज़रे जमाने की बात है
सिर्फ्दिखावे को मातम मनाने आयेंगे लोग
कौन किसी की नमी मे डूबना चाहे
देख कर किसी को दुखीपना दिल बहलाने आयेंगे लोग
अच्छी पोस्ट है आभार्
चिंतनीय.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
ye angle bhee kamaal raha anil bhai ...
हर चीज बदल रही है, और लोगों में संवेदनशून्यता आती जा रही है.
सच ही तो है...लोकाचार के लिए लोग जुट जाते हैं वर्ना मृतक से तो उसके करीबी रिश्तेदारों कॊ भी शायद लगाव न हो! प्रियंवदा बिरला गुज़र गई पर उनके मरने के दुख से अधिक यह दुख था कि उनकी जायजाद किसी और को सौंप गई॥
बहुत ही सटीक अभिव्यक्ति लोग-बाग़ मरघटाई तक में अपनी ढपली अपना राग अलापना नहीं छोड़ते है . आभार अनिल जी .
श्मशान घाट तो आजकल टूरिस्ट प्लेस हो गए हैं
bahut hi saartak baat sir ... sach yahi hai ki hamari sanvedaanaye mar gayi hai ..aabhar
regards
vijay
please read my new poem " झील" on www.poemsofvijay.blogspot.com
आश्चर्याजनक किन्तु सत्य.
{ Treasurer-T & S }
'मुझे लगा उसकी बात मे दम तो है।' -वास्तव में दम है. आज की भागम भाग वाली जिन्दगी में यही होता है .
अब बात करते हैं पत्रकारों की नस्ल में आपके द्वारा २५ मई को दी गयी टिपण्णी की.मुझे खेद है कि मैं इसे पहले नहीं देख पाया. मोडरेशन लगा होता तो ऐसा नहींहोता. खैर देर आयद दुरुस्त आयद.पहली बात तो यह कि यह लेख मैंने ब्लॉग जगत में आने से बहुत पहले लिख लिया था.तब बिना कार वाले पत्रकार होना आम बात थी. बल्कि कलम के धनी सच्चे उर्फ़ कलमघिस्सू पत्रकार की हैसियत कार खरीदने की होती ही नहीं थी.आपने अपना जो विवरण दिया है उसके अनुसार आप न तो जुगाडू हैं और न आपकी कोई दुकान है.अतः आप पत्रकार कहलाने के हकदार नहीं.
जन्मदिन पर शुभकामनायें !
KUCH BHI KAHNE MEIN ASAMARTH HUN....KYA SAHI HAI,,,,KYA GALAT, ....YE KITNA SAHI HAI KITNA KALAT.... SHAYAD JIS PAR JAB GUZARTI HAI VO US SAMAY SAMAJHTA HAI..... PAR DOORSE HI PAL JB APNA SAMAY BADALTA HAI.......SAB KUCH BHOOL JAATA HAI.... SHAYAD YE SANSAAR AISE HI CHALTA HAI.....
लेख अभी नहीं पढ़ा...समय मिलती ही पढूंगा
जन्मदिन की ढेर सारी बधाईयाँ
मरने वाला मर गया...अपना टाइम काहे मुंह लटकाकर गंवाना...लोग समझदार हो गए लगते हैं...
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