एक ने कहा कि नक्सली क्षेत्र मे काम के तनाव से परेशान एक सिपाही ने अपने ही दो साथियों की हत्या करके खुदकुशी कर ली?क्या ये गंभीर विषय नही है क्या ये ऐसे क्षेत्रों मे कार्यरत फ़ोर्स की मनोदशा को नही दर्शाता?क्या इस मसले पर विचार नही होना चाहिये?क्या ये बहस का मुद्दा नही है?क्या ये फ़ोर्स की कार्यप्रणाली मे सुधार की आवश्यकता के संकेत नही देता?
कुछ देर तक़ मैं खामोश सोचता ही रहा,फ़िर उनसे कहा सबकी अपनी-अपनी भुमिका है और सब जैसा बन पड रहा है काम कर रहे हैं।ये बात सच है कि कल कथित नेशनल न्यूज़ चैनलो ने इसे महज पट्टी पर चला कर ज़िम्मेदारी पूरी कर ली मगर ये खबर वाकई महत्वपूर्ण है।बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाके मे ये पहला मौका नही है।अब तक़ वंहा दो दर्ज़न से ज्यादा जवानों ने आत्मह्त्या की है और उनमे एक आई पी एस अफ़सर भी शामील है,जो उस समय एस पी के रूप मे पदस्थ थे।
इतनी आत्महत्यायें कंही न कंही उस क्षेत्र मे काम करने वाले के मन मे लगातार तैनाती और छूट्टी नही मिलने से तनावग्रस्त होने का पुख्ता सबूत है।इस मामले मे गंभीर फ़ैसले लेने चाहिये और कम से कम उनकी छु्ट्टियां तो सुनिश्चित हो जानी चाहिये।असुरक्षा के भाव भी जिस तरह से पनप रहे है उनके कारणो को जानने की पहल होना चाहिये ।
तो फ़िर क्यों नही बनी ये नेशनल या बड़ी खबर?एक ने फ़िर पूछा।मैने हथियार डालना ही अच्छा समझा और कहा कि तुम लोग जो कहना चाह रहे हो वो मै समझ रहा हूं लेकिन क्या किया जा सकता है?उनकी भी अपनी विवशता है,प्राथमिकतायें है,प्रतिस्पर्धा है।और मंदी के इस कठिन दौर मे बाज़ार मे टिके रहने की चुनौती भी है।यंहा से ढाई सौ किलोमीटर दुर कोंडागांव थाने मे पदस्थ सीएएफ़ के हवलदार ने किन परिस्थियों मे अपने प्लाटून को और एक और जवान को गोली मार कर मौत के घाट उतारा और खुद फ़ांसी पर लटक गया,ये घट्ना उन लोगो के हिसाब से शायद एक टीवी आर्टिस्ट द्वारा एक बच्ची को पीटने की खबर से कम भीड़ खींचने वाली होगी।वैसे एक बात मै बता दूं जंहा-जंहा देश के इन नये ठेकेदार न्यूज़ चैनल वालों का प्रतिनिधि तैनात है वंहा की सड़ी से सड़ी खबर भी नेशनल है और जंहा इनका प्रतिनिधि नहो वहा की बड़ी से बड़ी खबर भी लोकल है।समझ गये ना।बाकी डिटेल मे कभी फ़ुरसत मे बात कर लेंगे,ठीक है।
24 comments:
वाकई चिंता आज खबरों को लेकर जितनी है उतनी कभी नहीं थी. खबरों का मतलब वैसे खबरों से है जो भीड़ खींच सके. साफ़ साफ़ कहीं तो टीआरपी जुटा सकें. जैसे बहुत समय तक फिल्मों का मतलब बहुत हद तक गोविंदा टाइप फिल्मों से थी वैसे ही गोविंदा टाइप चैनलों की संख्यां बढ़ रही है.
आप यह मत कहिये की सिर्फ चैनल ही इसके लिए जिम्मेदार है. चैनलों की दुर्गति के लिए दर्शकों की भी बहुत बड़ी हिस्सेदारी है. आप बस्तर की खबरें दिखाते हैं तो कितने लोग देखते हैं? आप विदर्भ की खबरें दिखाते हैं, कितने? लोग देखते हैं ? हम इसके पक्षधर हैं की जन हितकारी खबरें दीखाई जायें. लेकिन उस बाज़ार व्यवस्था को बदलिए जिसमें गोविंदा टाइप चैनलों को खबरें दिखाने के लिए मजबूर किये जाएँ.
राखी सावंत की नौंटकी राष्ट्रीय समाचार है. कौन सी खबर इसका मुकाबला करेगी?
नेशनल खबर का हाल तो यही है अनिल भाई। कभी लिखा था कि -
हमारी भिन्नता में एकता का मूल है भारत।
समन्दर में पहाड़ों में है बसता गाँव में भारत।
मगर मशहूर शहरों की खबर मिलती सदा हमको,
भला हम कब ये समझेंगे कि बस दिल्ली नहीं भारत।।
उनकी भी अपनी विवशता है,प्राथमिकतायें है,प्रतिस्पर्धा है।और मंदी के इस कठिन दौर मे बाज़ार मे टिके रहने की चुनौती भी है।
बहुत सटीक लिखा आपने.
रामराम.
अरे अनिल भाई...सीधा सा मतलब है,
जिस न्युज से सारा नेशन हो जाये कन्फ़्युज,
बस उसे ही कह्ते है...नैश्नल न्युज
वैसे एक बात मै बता दूं जंहा-जंहा देश के इन नये ठेकेदार न्यूज़ चैनल वालों का प्रतिनिधि तैनात है वंहा की सड़ी से सड़ी खबर भी नेशनल है और जंहा इनका प्रतिनिधि नहो वहा की बड़ी से बड़ी खबर भी लोकल है।समझ गये ना।
समझ गए !!
सब टी.आर.पी. की माया है।
अनिल जी सच जानिए सभी मीडिया वाले भी इस बात को अंतर्मन से स्वीकारते है ....इस माह का कथादेश पढ़ लीजिये ..स्वीकरोति मिल जायेगी
"...उनकी भी अपनी विवशता है,प्राथमिकतायें है,प्रतिस्पर्धा है।और मंदी के इस कठिन दौर मे "बाज़ार" मे टिके रहने की चुनौती भी है..."। इसी से मिलता-जुलता बहानानुमा वाक्य "बाजार" में बैठी वेश्याएं भी कहती हैं… :)
दुनिया में सबसे आसान काम होता है गाल बजाना और किसी की भी पेंट उतारने की कोशिश करना। नेशनल मीडिया से ना जुड़ पाने के दुख को कुछ भीष्म पितानुमा पत्रकार इसी अंदाज़ में व्यक्त करते हैं। जो न्यूज़ चैनल चला रहा है वो समाज सेवक तो है ही नहीं, बाज़ार में कुछ कमाने के लिये बैठा है। जो लोग देखना चाहते हैं और जिसकी इजाज़त कानून देगा वो चलायेंगे। जब अकेला दूरदर्शन था तो उसको सरकारी-सरकारी कहा जाता था। दूरदर्शन का अलग से समाचार चैनल है, कथित न्यूज़ के नाम पर बुद्धिजावी होने का ढोंग करने वाले लोग जो देखना चाहते हैं दूरदर्शन अफसरों से कहिये। पत्रकार लोग दबाव भी बना सकते हैं सरकरी चैनल पर। और फिर सच बात तो ये है कि नेशनल चैनल देखते कितने लोग हैं, हर इलाके का अपना रीज़नल चैनल होता है, जो देखा जाता है। नेशनल चैनल और नेशनल न्यूज़ का स्यापा बंद कीजिये।
सच है जी आपकी बात!
मामला चिन्ता जनक है........
आपका आलेख अभिनन्दनीय है.........
बाजार का नियम है जो बिकता है वही सही है
kuch to mazbooriyan hongi...peshegat hi sahi!
ये नेशनल न्यूज़ वो होती है जो इंटरनेशनल लेवल पर डारेक्टिव मिलने के बाद प्रसारित-प्रचारित होती हैं:)
प्रिय / आदरणीय बेनामी जी ,मुझे नहीं लगता कि श्री पुसदकर का आलेख किसी 'गाल बजाओ ,पैंट उतारू' योजना का हिस्सा है ! सीधी सादी बात ये है कि नेशनल चैनल्स की प्राथमिकताओं में , साधारण भारतीय इन्सान और उसके जीवन की घटनाएँ / दुर्घटनाएं हैं याकि नहीं ?
आपसे सहमत हूँ कि नेशनल चैनल्स समाज सेवक नहीं हैं ! उन्हें व्यवसाय करना है , बिलकुल ठीक , करना भी चाहिए लेकिन ....इतना तो आप भी मानेंगे कि व्यवसाई धनिया बेच कर भी माल कमाता है और धनिये में लीद मिलाकर भी ! ..तो ये चैनल्स बताएं तो , कि वो किस किस्म के व्यवसाई हैं ?
मित्र आप जो भी हों उम्मीद करता हूँ कि इंसानी सरोकारों की चर्चा में व्यक्तिगत आरोपों /आक्षेपों को नजरंदाज करने की कृपा करेंगे !
एक प्रार्थना और भी है , भैया मेरे जैसे अनेकों दर्शक न्यूज़ चैनल्स के अलावा कुछ और देखते ही नहीं हैं और बाहरी दुनिया से यही हमारा लिंक हैं ! हम बुरी तरह निर्भर हैं इन पर ! कृपया हमारी अपेक्षाओं / हसरतों का ख्याल भी रखिये ! आपने तो सारे दर्शकों के बारे में भी बहुत कुछ कह डाला है ! भला दर्शकगण कौन से बड़े पत्रकार उर्फ़ भीष्म पितामह हैं ?
भाई अली
खूब कहा दरअसल ये ब्लॉग स्वामी का खुला मन है जो इस तरह कि टिप्पणी को सार्वजनिक करता है . मैं तो इस बात का समर्थक हूँ कि खुला खेल खेलो भाई बुर्के में क्यों छिपे हो ये भारत है यहाँ कोई सीआईए या के जी बी या आइ अस आइ नहीं लगी है आपके पीछे . महिलायों के बारे में समझ सकत हूँ कि वो अपनी फोटो प्रर्दशित न करें लेकिन नाम तो दे ही सकते हैं . एक नयी दिशा दें विश्व ब्लॉग्गिंग को, पश्चिम की नक़ल न करें .पश्चिम में भी ये माद्दा पैदा करें खुल कर बात करने की अपने के सामने रख कर
अनिल भाई आज ही मैने ब्लॉग "शरद कोकास "पर एक कविता पोस्ट की है जिसकी एक पंक्ति है.." हत्या को आत्महत्या का रंग दिया जा रहा है " दर असल ये हत्यायें ही है और इन्हे आत्महत्या के फॉर्म मे मान लेने के कारण इन समाचारों की उपादेयता गौण हो जाती है फलस्वरूप यह नेशनल न्यूज़ नही बन पाती । महाराष्ट्र मे कितने किसानो ने आत्महत्या की लेकिन वे भी न्यूज़ कहाँ बनी । तो ये तंत्र जब् तक ऐसे लोगों के हाथ मे है क्या उम्मीद की जा सकती है ?
शिव, शिव. आपको गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनांए.
आप कहे तो शोध समिति की बैठक करवा दे।
हमारी आवाज सुनिए
बहुत दुखी करते हैं नेशनल न्यूज के नाम पर।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
बाजार की प्रतिस्पर्धा है और टिके रहने की चुनौती भी।
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प्रत्येक बुधवार सुबह 9.00 बजे बनिए
चैम्पियन C.M. Quiz में |
प्रत्येक रविवार सुबह 9.00 बजे शामिल
होईये ठहाका एक्सप्रेस में |
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आप क्या दिखा रहे है ये आपने तय किया है तो उसके फ़ायदे के साथ-साथ नुकसान के भी भागीदार आप ही हैं।
yahh hai sahi javabb jab dikha rahe the tab usaki vahavahi batane koi aaya ? nhi aaya hoga to jab pareshni gale padi to प्रेस क्लब kyo? wase bhi ptrkarita me aakhari ladai khud use hi ladni padegi koi aapke liye ladne nahi aayega yahi sach hai
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