सवाल के बदले मे सवाल होते देख वो थोडा नाराज हो गया और बोला तो तू ही विद्वान है क्या?हम लोग मूर्ख हैं?सब लोग पागल हैं?सालो से यही परंपरा चली आ रही है,तो क्या मानने वाले को अक़ल नही है?मैने उससे कहा इसमे नाराज़ होने की क्या बात है?वो बोला ये तुम जैसे कथित प्रगतिशील लोगों के कारण ही सारे लफ़्ड़े होते हैं।बेवज़ह की बहस करोगे,बिना किसी कारण सिर्फ़ अपने को विद्वान साबित करने के चक्कर मे किसी भी बात का विरोध करोगे।मैने उसे टोका,भाई इसमे इतना नाराज़ होने की ज़रूरत नही है।ये तो अपन आपस मे बात कर रहे हैं,मेरे भी घर मे यही सब माना जाता है और मै भी किसी परंपरा को जबरन तोड कर बड़ा बनने की कोशिश नही कर रहा हूं।बस ये सवाल सालों से दिमाग मे उमड़ते है सो मैने पूछ लिये,सोचा शायद जवाब मिल जायेगा।
वो और चीढ गया।तो सिर्फ़ तू ही सवाल पूछेगा क्या?हम नही पूछ सकते क्या?तू ही सब कुछ जानता है क्या?मैं बोला फ़ाल्तू बातो मे बहस को डाईवर्ट मत कर क्यों नही खरीदनी चाहिये पितर मे कार ये बता?उसने कहा ले तू ही बता दे क्यों खरीदनी चाहिये पितर मे कार?
गेंद उसने मेरे पाले मे डाल दी थी।मैने कहा ये बता पितर मे अपन पितरो को खाना-खिलाते हैं,तर्पण करते हैं,उन्हे जो अच्छा लगता है वो पकाते हैं,उन्हे तृप्त करते हैं?वो बोला हां, पितर मृत्यू लोक मे आते है हमारा भोजन ग्रहण करते है तृप्त होकर जाते है और ये सिलसिला हर साल चला रहता है।वो बोला नई क्या बात बता रहा है?सवाल का जवाब दे बाकि हम सबको पता है।वही बता रहा हूं बे,अब तक़ मैं भी चीढ गया था।
मै बोला जब पितर हमारे घर आते है और वो अगर नई कार घर मे खड़ी देखेंगे तो खुश होंगे या नाराज़,पहले ये बता दे?कुतर्क़ मत कर,वो गुस्से मे बोला।मैने कहा इसमे कुतर्क़ की क्या बात है।पितर की क्या बात है जो भी हमसे प्यार करता है,हमारे लिये अच्छी भावना रखता है वो तो हमारी तरक्की से खुश ही होगा।अब ये कंहा लिखा है कि पितृपक्ष मे दाढी मत बनाओ,नाखुन मत काटो,बाल मत कटवाओ,नये कपडे मत खरीदो-सिलवाओ-पहनो,नये जेवर मत पहनो। फ़टेहाल रहेंगे तो हमारे पितर हमे देख कर खुश होंगे या उदास?और अगर हम नये कपड़े पहनते हैं,नये जेवर खरीदते हैं,नई कार खरीदते हैं तो पितर खुश होंगे या नही?
तब तक़ वो आऊट आफ़ कंट्रोल हो गया था।तुम्हारे जैसे लोगो के कारण धर्म का कूडा हो रहा है,तुम लोग सुधार की बात करके परंपरायें तोड रहे हो और जाने क्या-कया बड़बड़ाने लगा था वो।सबने देखा मामला बिगड़ रहा है तो तत्काल वाय एस आर के चापर को चौबीस घंटे मे ढूंढने और रैन एअरवेज़ के चापर को चालीस दिन तक़ नही ढूंढ पाने का मामला मैने छेड दिया और पितर पर उठे सवाल अधूरे ही रह गये।इस मामले मे मै चाहूंगा की मेरा भी कुछ ज्ञान बढ जाये,इसलिये सभीसे प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
33 comments:
इसी कारण से मे भी रुका हुआ हूँ .वैसे पितरो ने अभी वाली गाडी भी नहीं देखि है इसी को दिखा कर खुश करवाता हूँ उनेह .
अनिल जी, आपने बहुत अच्छा प्रश्न उठाया है।
यह सच है कि पितृ पक्ष में हम अपने पितरों को तर्पण करके तृप्त करते हैं किन्तु हमारे बीच उनके न रहने का एक शोक भी कहीं न कहीं हमारे भीतर रहता है। हमारी परम्परा रही है कि शोक के समय हम किसी भी प्रकार की खुशी का काम नहीं करते। घर में किसी के निधन हो जाने पर एक वर्ष तक न तो कोई त्यौहार मनाया जाता है और न ही शादी ब्याह जैसा कोई काम होता है। नई वस्तु खरीदना खुशी का काम होता है और चूँकि पितृ पक्ष को हम शोक का समय समझते हैं इसलिए हम नई वस्तु नहीं खरीदते। मेरे विचार से इस परम्परा के पीछे यही कारण होना चाहिए।
आपने लाजवाब तर्क दिए हैं...कोई कारण नहीं है इस बात का की जब हम पितृ पक्ष में और कोई काम नहीं रोकते सिर्फ नयी वस्तु खरीदने में ही क्यूँ रोक लगाते हैं...एक परिपाटी है जिसका आँख बंद कर के अनुसरण करते हैं...मृतकों के सम्मान का ये तरीका समझ से परे है...और क्या शोक सिर्फ इन्हीं दिनों रहता है ?
नीरज
अवधिया जी ने ठीक बात कही है.. आपका शुक्रिया अनिल जी इस प्रश्न को उठाने के लिए.. हमारा भी कुछ ज्ञानोपार्जन हुआ
पितरों ने देखा कि उन का वंशज कार खरीद रहा है। वे खुद पैदल और बैलगाड़ियों में सफर कर के मर गए और ये वंशज अब खानदान की दौलत पेट्रोल और गैस में फूंकेगा। गुस्सा तो उन्हें आएगा ही। पितरों को गुस्सा क्यों दिलाएँ?
अब पिछले महिने तो कपड़े सिलाए थे। अब शो रूम में नई जींस पर नजर गड़ी है। हम ने दो बंडी और पंचे में जिन्दगी गुजार दी। बहुत खर्चीले हैं।
अब सजने को यही पखवाड़ा रह गया है कुछ इंतजार नहीं कर सकते।
पितरों को गुस्सा क्यों होने दें?
जाबालि ने राम से कहा-
देखो तुम ने दशरथ को वचन दिया था। वे दिवंगत हो गये और तुम वचन मुक्त हो गए।
अब घर चलो। मृत्यु के उपरांत कोई जीवन नहीं होता। जीव यहीँ जन्म लेता है और समाप्त हो जाता है।
राम ने कहा-मुझे आश्चर्य होता है कि मेरे पिता ने तुम्हें मंत्री बना क्यों रखा था। तुम्हारे विचार तो ऐसे हैं कि तुम्हें तथागत के शिष्यों की तरह मृत्युदंड मिलना चाहिए(अब आप सोचते हैं कि राम के जमाने में तथागत बुद्ध कहाँ से आ गए? पर वाल्मिकी रामायण में यही लिखा है।)
हम नया खरीद कर पितरों के कोप भाजन क्यों बने।
यह तर्क है या कुतर्क पता नहीं। पर नया खरीदेंगे तो घर वाले, रिश्तेदार, मुहल्ले और गाँव वाले, क्या कहेंगे। और खुदा न खास्ता कार से कोई दुर्घटना हो गई तो लोग प्राण पी लेंगे। हमने कहा था मत खरीद श्राद्धों में, ले अब भुगत.....
एकदम सही बात है भाऊ। खुद मैंने कई बार श्राद्धपक्ष में खरीदारी की है, इसका फ़ायदा यह होता है कि बाज़ारों में भीड़ कम होती है, माल ठीक से देखने को मिलता है और कई बार सस्ता भी मिल जाता है (क्योंकि दुकानदार का धंधा मन्दा चल रहा होता है), इसलिये आपकी दुआ से कल ही नई वॉशिंग मशीन खरीदने का प्लान बन गया है… :)
ये मन में उठे पक्ष और विपक्ष के बीच की ही बातें लगती हैं। जो कई बार ये सवाल घेर कर एक दूसरे पर प्रहार करती हैं। काफी हद तक अवधिया जी से सहमत। अभी बेगम से पूछा कि क्या कारण है तो उन्होंने बताया कि जो भी चीज खरीदेंगे तो वो दान करनी पड़ेगी, क्योंकि पितृ पक्ष में जो भी चीज खरीदी जाती है वो उनको ही अर्पित होती है।
उनके जाने का हमें गम होता है इसलिए शायद हम कुछ नई चीज नहीं खऱीदते। शायद ये ही सही हो बाकी पता नहीं।
सोचते तो हम भी हैं की ऐसा क्यों होता है .......... और कोई ठोस जवाब भी नहीं मिलता, पर क्या करें जब बड़े कहते हैं तो मानना पड़ता है ........... शायद धीरे धीरे ये मान्यता भी बदल जाए ........
अजी अगर पित्तर खुश होते हैं तो उन्हें खुश करने में क्या हर्ज है.
आप नई कार में एक सीट पित्तर के लिए खाली छोड़कर उन्हें घुमाने ले जाओ. फिर देखना, जो काम वे पूरे जनम में नहीं कर पाए वो मरने के बाद करने पर कितने खुश होंगे.
चुंकी मैं जैन हूँ, हमारे यहाँ श्राद्ध वगेरे नहीं होते. या अब होने बंद हो गए है.
नई वस्तु न खरीदने का कारण शोक ही रहा होगा. तर्क पर कसेंगे तो लोग यही कहेंगे ना कि आप जैसे लोगो के कारण धर्म का कूडा हो रहा है. :) जहाँ तर्क है वहाँ विज्ञान है, श्रद्धा नहीं.
bahut badhiya raha
आप सब की टिपण्णीयो से सहमत हुं,मुझे भी यह सब बेमानी ही लगता है, अगर जीते जी मां बाप की इज्जत कर लो काफ़ी है, ओर उन के मरने के बाद भी उन्हे मान सम्मन दो काफ़ी है, लेकिन दिखावा मत करो
आप का लेख बहुत अच्छा है, मेरी भी कई बार बहस हो जाती है ऎसी बातो पर
देवा रे देवा..घोर कलयुग आगया.:)
रामराम.
हम तो अज्ञानी ठहरे, हमॆं तो कुछ भी नहीं पता, अपने लिये तो सब माह एक जैसे होते हैं, जब जेब भरी हो तो खरीदारी के लिये तत्पर और खाली हो तो श्राद्ध मास।
लगता है इसीलिये यह श्राद्ध मास बनाया गया है क्योंकि सब त्यौहार इसी के बाद आते हैं नहीं तो सारी नई चीजें तब तक पुरानी हो जायेंगी।
भई, मुंह की बात छें ली आपने. आप नहीं लिखते तो हम तो इसी विषय पर अपनी बात लिखने वाले थे. होगी आपके दोस्तों की अपनी परम्परा. हम तो परम्परा से ही पितृ पक्ष में और कुछ नहीं तो कम से कम नए वस्त्र ज़रूर खरीदते और पहनते थे. बाल कटाना भी ज़रूरी होता था इसलिए यदि बाल पहले से ही छोटे हैं तो भी नाई की दूकान में जाकर कलमें तो कटाना ही पड़ती थीं. कुल मिलाकर पितृपक्ष में पितरों के पुनरागमन पर खुश होकर उनको भी खुश करने की ही परम्परा थी. साफ़ सुथरे, संवारे दिखकर १५ दिन उनकी सेवा करने की परम्परा रही है. अब आपको पता है जब भय और लालच महत्वपूर्ण हो जाते हैं तो सभी परम्पराएं उल्टी हो जाती हैं.
hamare priy divangat poorvajon ne hamare liye kitani baar apni ichhayein dabai/chodi hongi ......aur hum in kuchh dino apni kuchh ichaaon par niyantran nahin rakh sakte? darasal hum bado ka aadar karna bhool chuke hain isliye in dino shradha bhaav ki jagah un ke prati vyang aur vinod kar rahe hai .
aapki jaisi ichha ho kahe ya maane lekin mera man dukh gaya . par yadi mere vicharon se kisi ko bhi bura laga ho to tippani ke liye maafi chahati hoon
मेरा तो यही मानना है कि हमारे बुजुर्ग जहां भी होंगे हमारा भला ही चाहते होंगे। कोई कारण नहीं बनता कि जिंदगी भर हमें फलता-फूलता देखने की इच्छा रखने वाला दिवंगत हो हमारा बुरा चाहने लगेगा।
वैसे तो जाने वाले को जिंदगी भर नहीं भूलाया जा सकता पर इन दिनों उनकी याद शिद्दत से आती है इसलिये अपना उदास मन नहीं सोच पाता कुछ हर्षोल्लास मनाने की।
अब कहने वाले तो यह भी कह सकते हैं कि क्या प्रमाण है कि मरने के बाद आत्मायें आती ही हैं। तो धर्म और राजनीति की किसी बहस में ना ही पड़ा जाय तो बेहतर है।
प्रश्न आपने अच्छा उठाया है .. मैं जी के अवधिया जी की बातों से सहमत हूं !!
अनिल भाई यह आयडिया बाज़ारवाद के इस युग मे बाज़ार को मिल गया ना तो वे इसे एनकैश कर लेंगे। "खुश कीजिये अपने दादा परदादा को लीजिये नई मारुती , कार मे फोटो रखकर चलाएये.. ।" इसके एड बनेंगे.. " कल सपने मे दादा आये , बेटा मेरी आत्मा घर मे भटकते हुए बोर हो जाती है पुराने टी वी पे कुछ नही दिखता नया ले ले ना ".. -शरद कोकास
प्रश्न अच्छा उठाया है अनिल . जिज्ञासु दिमाग शायद हर चीज का एक उपयुक्त और स्वीकार होने वाला जवाब चाहता है लेकिन ऐसा हमेशा संभव नहीं होता और ये सदियों से बहस और विवाद का मुद्दा बनती रही हैं . मुसलमानों में भी एक मिलता जुलता सन्दर्भ है जब वे अपने पुरखों की कब्र में जाकर उन्हें याद करते हैं ऐसा शायद अन्य धर्मो में भी होता होगा . हिन्दुओं में कुछ मोक्षधाम भी माने जाते हैं जहाँ जाकर पुरखों की अंतिम शांति का कार्य किया जाता है . इनसे जुडी हुई कुछ कथाएँ भी हैं . हिन्दू धर्मं आत्मा और पुनर्जन्म को भी मानता है . क्योंकि आम व्यक्ति को नहीं पता होता कि उसके पुरखे की क्या अवस्था है दूसरे लोक में इसलिए वह इन कर्म कांडों को निभाता है , आदर देने के लिए अपने बुजर्गों को . मुझे ऐसा लगता है क्योंकि यह पक्ष दिवंगतों की सेवा से जुड़ा है तो इस पक्ष में एक सादगी का व्यवहार अपनाया गया है. साथ ही जैसा कि कहा गया है इसके बाद उल्लास का पर्व आता है तो एक संतुलन की स्तिथि निर्मित होती है . वैसे आज के युग में देखा जाये तो, जैसाकि एक पोस्ट में तुमने लिखा था कि शमशान में भी लोग दुखी नहीं दिखाई देते तो, यही कलियुग है .
यह जुमला दो-चार साल पहले मार्केटिंग गुरूओं द्वारा उछाला गया था। जब उन्हें श्राद्धों में बाज़ार ठंडे नज़र आए थे।
इस समय अवधिया जी की बातों से सहमति।
अवधिया जी की बात तर्क संगत लगती है.
@ "राम ने कहा-मुझे आश्चर्य होता है कि मेरे पिता ने तुम्हें मंत्री बना क्यों रखा था। तुम्हारे विचार तो ऐसे हैं कि तुम्हें तथागत के शिष्यों की तरह मृत्युदंड मिलना चाहिए(अब आप सोचते हैं कि राम के जमाने में तथागत बुद्ध कहाँ से आ गए? पर वाल्मिकी रामायण में यही लिखा है।)"
प्रारम्भ में रामायण 5000 श्लोकों की ही रची गई थी। बाद में बढ़ाते बढ़ाते 24000 कर दी गई। समूचा बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड बाद में जोड़े गए, यह सिद्ध हो चुका है। भीतर भी क्षेपक भरे पड़े हैं। सम्भवत: वाल्मीकि की रामायण ही प्रथम हिन्दू ग्रंथ है जिसका भाषा शास्त्रियों ने बाकायदा श्लोक दर श्लोक अध्ययन कर मूल को ढूढ़ निकाला है। कभी फुरसत में इंटर्नेट पर सर्च मारिएगा, बहुत रोचक जानकारी उपलब्ध है।
परम्परा निर्वहन या तोड़ने में कोई गलती नहीं। बस एक प्रिय पितर का ध्यान कर लें कि वे क्या अनुमोदित करते।
परम्परायें जड़ नहीं होनी चाहियें!
शोक मनाने के कारण पितृपक्ष में नया कपड़ा नहीं पहना जाता- यह बात समझ में आती है पर नया कुछ न खरीदना तो अंध विश्वास ही कहा जाएगा!
sahee bat. bajaron me bheed kum hogee dukan dar aapko tasalli se mal dikhayega ho sakta hai bhaw bhee kum kare (kar ke liye nahee )
तर्क संगत और अच्छा प्रश्न उठाया है ..
आपका तर्क अपनी जगह है पर पितृ पक्ष मैं नया नहीं खरीदने के पीछे का एक कारण अवधिया जी ने बता ही दिया है | इसके आगे के ज्ञान के लिए आप चाहें तो पितृ पक्ष से सम्बंधित प्रमाणिक शास्त्र पढ़ लें | बिना किसी चीज के बारे मैं ठीक से जाने उसका विरोध सिर्फ इसलिए करना की आपको या मुझको ये अच्छा नहीं लगता ठीक नहीं है | इस प्रविती से हमें बचना चाहिए | आखिर हमने या आपने पितृ पक्ष से सम्बंधित प्रमाणिक शास्त्र तो पढ़ी नहीं फिर ये कैसे कह सकते हैं की ये बिलकुल गलत है ?
आज के सन्दर्भ मैं तो मुझे लगता है पितृ पक्ष मैं नया नहीं खरीदना सही भी लगता है | अब तो हमलोग हर महीने - हर दिन shopping करते रहते हैं | यदि एक महीने शौपिंग नहीं किया तो पैसे की बचत ही है | ......
भाई , ऐसे ही अनेक प्रश्न मेरे मन में चलते रहते हैं , पूर्वजो के समय में जो भी कुछ नियम बनाये गए थे सामयिक तौर पर उस समय प्रासंगिक रही होगी . आज के दौर में जैसा मौसम का मिजाज़ बनता है एवं जो परिस्थिति निर्मित होती है , ये नियम कायदे ऐसे लगते है कि सब व्यर्थ है . लोग तिथि मुहूर्त पर दुकानदार के मुहमांगी कीमत पर लाईन लगाकर महगी वस्तुए खरीद कर तृप्त होते है , पर मुझे ऐसा लगता है कि मैं यदि आज कोई चीज खरीद कर घर ला रहा हू तो आज का दिन मेरे लिए शुभ ही होगा . मेरी जेब में जिस वक्त कुछ खरीदने के पैसे होंगे वही दिन शुभ होगा मेरे लिए ,ऐसा मैं सोचता हूँ. पर जो जैसा माने , जैसा पूजे सब को मेरा सलाम
निश्चित रूप से पितर अपने पुत्रो का बुरा नहीं चाहेंगे पर पितरो और के समय काल और अब में एक पीढ़ी का अंतर है पहले अचल सम्पत्ति बनाने की परम्परा थी और दिखावा नहीं करते थे अब चल सम्पति बनाते है तो शायद अपने पुत्रो के दिखावे की जिन्द्गगी देख कुछ दुखी होते हो या आशंकित हो जाते हो इसलिए पितृ पक्ष में इन चीजो से बचने का प्रयास किया जाता रहा हो ! वैसे प्रेक्टिकल में देखा जाये तो किसी काम को रूककर करने से लाभ की सम्भावन बढ़ जाती है या ये कहा जाये त्वरित नुक्सान से बचा जा सकता है
निश्चित रूप से पितर अपने पुत्रो का बुरा नहीं चाहेंगे पर पितरो और के समय काल और अब में एक पीढ़ी का अंतर है पहले अचल सम्पत्ति बनाने की परम्परा थी और दिखावा नहीं करते थे अब चल सम्पति बनाते है तो शायद अपने पुत्रो के दिखावे की जिन्द्गगी देख कुछ दुखी होते हो या आशंकित हो जाते हो इसलिए पितृ पक्ष में इन चीजो से बचने का प्रयास किया जाता रहा हो ! वैसे प्रेक्टिकल में देखा जाये तो किसी काम को रूककर करने से लाभ की सम्भावन बढ़ जाती है या ये कहा जाये त्वरित नुक्सान से बचा जा सकता है
1.parampara sanatan hai,bharat 1 krishi pradhan desh hai.pitar paksh aate aate sabhi kisan bhaiyon ke paise khet me lag jaate the,bina paise koi nai vastu kaise kharidege so parampara bana di.
2.sabhi ke pariwar me pitar hote hai,iss parampara ko ve hi thik tarah se samjha payenge aur sabhi ka gyaan badhayenge,aisi meri asha hai.
3.kabhi hum bhi pitar banege tabhi samajh payenge.
4.All the indian tredition are scinctific,all the indian concepts are practical at the time of formation,They based on the circumstanses & situation alongwith the location of concerned period.so we have to reviev our anciant histry for correct answer...
हमने तो पितरों के पहले दिन कल ही एक नया मोबाइल खरीदा है।
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