Tuesday, October 20, 2009

एक बात तो है यार!अब न वो रिस्क है और ना वो मज़ा

दीवाली मिलन के बहाने सारे पुराने दोस्त सपरिवार आज रात खाने पर इकट्ठा हुये।खाना शुरू होने के पहले राज्य की हालत से शुरु हुई बह्स देश,दुनिया और धर्म से होकर पर्सनल प्राब्लम तक़ सिमट गई।सुपरसोनिक स्पीड से वर्तमान मे दौड़ रही गाड़ी एक बार फ़िर पटरी से उतरी और भूतकाल मे भटक गई।फ़िर से कुछ पुराने ज़ख्म हरे हुये तो कुछ दबे हुये ज़ख्मो को जानबुझकर कुरेद कर हरा किया गया।घंटो चली बहस मे सभी का कहना था कि अब न वो रिस्क है और ना वो मज़ा।

आज का प्रोग्राम महमूद नियाज़ के घर मे ईद पर इकट्ठा होने पर ही बना लिया गया था।सब भाभियों ने दीवाली मिलन पर बलबीर भारज के घर रात के खाने पर इक्कट्ठा होना तय कर लिया था जिसकी सूचना कल बलबीर ने सब को दे दी।कुछेक गायब रहे बाकि सब वंहा पहुंचे।सबसे पहले दिलीप क्षत्रे वंहा पहूंचा जिसके सबसे आखिरी मे आने की आशंका थी।दूसरे नम्बर पर मैं और फ़िर पवन झुनझुनवाला,मोहन एण्टी,सुरेन्द्र महापात्र और जितेन्द्र चोपड़ा,सपरिवार पंहुचे।संजय पाठक की अनुपस्थिती मे संध्या संजय पाठक पंहुची।

मेरा बलबीर के घर रोज़ आना-जाना था।मेरी और बलबीर की जोड़ी पूरे शहर मे हिट थी।कालेज और उसके बाद रोज़गार ढूंढने के दौर मे खाना हम एक साथ ही खाते थे।कभी मेरे घर तो उसके घर्।वो मेरे घर मे प्रिय था तो मै उसके घर मे।फ़िर समय का खेल ऐसा हुआ कि व्यापार मे कुछ गलतफ़हमी हुई और दोनो के रास्ते अलग हो गये।एक शहर मे रहकर भी अज़नबी।उसकी तो कम थी लेकिन मेरी ज्यादा गलति और अकड़ थी।दो साल पहले होली पर उसने घर चलने का आग्रह किया जिसे मै मंज़ूर नही कर रहा था,तब सारे दोस्तो ने ज़िद की तो मै उसके घर चला गया।दो साल मे बहुत कुछ बदल गया।उसके बाद आज मै उसके घर गया।रात्रिकालीन सत्संग मंडली को बताया तो उन्होने भी ज़ाने के लिये कहा और मै सालो बाद बलबीर के घर खाना खाने पंहचा,जंहा सुबह शाम खाना खाया करता था।

खाना शुरू होने के पहले महिला मंडल एक तरफ़ हो गया और बच्चे एक तरफ़।हमारी भी महफ़िल जम गई।बात निकली तो दूर तक़ जाना ही था।वो बचपन मे सायकिल पर घूमना डबल और कभी-कभी ट्रिपल सवारी।मेरी अलाली सामने आई तो टीटू यानी जितेन्द्र चोपड़ा की आवारागरदी का भी ज़िक्र आया।इसी के साथ मेहमूद नियाज़ ने हमेशा की तरह अपनी तमाम असफ़लताओं का ठिकरा टीटू के सर पर फ़ोड़ा।उसने कहा साले सुबह शाम घुमाता रहता था,तुझे तो मालूम था दुकान पर बैठना है,और तू बैठ भी गया,लेकिन मेरा तो करियर तबाह हो गया।ढंग से पढता तो मै भी कंही आईए एस …………इससे पहले कि वो कुछ हो पाता टीटू ने उसकी बात काटी और बोला साले गनिमत समझ मेरे जैसा दोस्त था तो नकल-वकल करवाके मैट्रिक पास करवा दिया वरना पूरे ग्रूप मे अकेला तू ही ………अबे चुप।अबकी बार महमूद गरजा।साले स्कूल से तेरे कारण ही तो भागते थे।बताऊं साले भाभी को रोज़ नई लड़की का पीछा करता था और आपके पीछे भी जब आता था तो दो तीन के पीछे लगा हुआ था।टीटू बोला कमीने मुझे मालूम था इस्लिये तो शादी के पहले ही सब बता दिया था।अबे जा हम सब जान्ते है तूने क्यों बताया था।तू तो चाह्ता था कि ये सब पता चलते ही भाभी नाराज़ होकर कट कर देंगी मगर वो गरीब तेरे चक्कर मे फ़ंस गई।टीटू पंजाबी है और भाभी ब्राह्मंण।दोनो ने प्रेम विवाह किया है।प्रेम विवाह करने वाले तीन और जोड़े थे वंहा।एक जोडा आधा था लेकिन वो भी लव कम अरेंज वाला ही था।खुद बलबीर भी लव किसी से करता रहा मगर मैरिज किसी और से हो गई।यानी सब के सब प्रेमी जीव एक मेरे को छोड़ के।

जब पुराने दोस्त इकट्ठा हों तो फ़िर बाते पुरानी ना निकले ऐसा हो नही सकता।बात निकली महमूद के घर मे चलने वाली बुनियाद लायब्रेरी की जो जाकर खत्म हुई लव लैटर यानी प्रेम पत्रों पर्।किताबों मे खत छिपाकर रखना और उसे वापस करते समय दूसरी पार्टी का पंहुच जाना और किताब वापस होने से पहले ही ट्रांसफ़र होना।कितने रिस्क होते थे उस समय्।दूसरी पार्टी ना पंहुची तो किताब के वापस होने पर लायब्रेरी वालों को खत का पता लगना और उसके बाद बात दोनो के घर तक़ पंहुचना।किताबों के अलावा उसके घर के पास रहने वाले छोटे बच्चों से दोस्ती करना और उनके जरिये वो गोरी वाली दीदी का हाल जानने कि कोशिश कितने रिस्क लिये होती थी।तभी मेरा मोबाईल बज़ा और सबके सब एक साथ बोले साला तब से डिस्टर्ब करता आ रहा है और आज तक़ कर रहा है।महमूद को भी आज पुराना हिसाब चुकाने का मौका मिल गया।वो भी शुरू हो गया अरे हौ,सबसे बड़ा रिस्क तो येई था।जब देखो घर मे बता दूंगा और अब घरवाली को बता दूंगा,खुद तो कुछ किये नही और दूसरो को काड़ी।

ये साला मोबाइल सब खेल ही खतम कर दिया।अब क्या मज़ा आता होगा?मोबाईल पे फ़िक्स करो और मिल लो।मज़ा तो साला अपने समय आता था।मिलना तो दूर एक झलक के लिये कई चक्कर मारने पड़ते थे।उसके भाई और बाप से ज्यादा प्राब्लम उस मुहल्ले के लफ़ंगों और उस्के चाहने वालों से होती थी।मेरे अपने के असरानी की तरह कई बार उसके मुहल्ले के लफ़ंगो से तू-तू मै-मै से लेकर हाथापाई तक़ हुई।मज़े की बात देखो उसे आज तक़ इस बात का पता नही चला।हां जैसे मै तेरी दुकान के सामने से गुज़रते वक़्त पटेल कह कर आवाज़ देता हूं तो आजू बाजू वाले देखते है पटेल कौन है।जाने दो उस्ताद क्यों पुराने ज़ख्म कुरेद रहे हो ।बेचारी अफ़्रीका मे …………मैने बीच मे कहा बेचारी क्यों बे। अरे उस्ताद यहारहती मेरे साथ रहती तो ज्यादा खुश रहती की नही।क्या दिन थे जबरन उसके घर के सामने से बार-बार गुजरना। अब वो मज़ा नही है उस्ताद ।मैने कहा हां बेटा अब तो वो रिस्क भी नही है।

18 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

सब एक दौर होता है ..आप जिस दौर की बात कर रहें है निश्चित रूप से बड़ा मजेदार रहा होगा..
बचपन या जवानी की शुरुआत में दोस्ती का एक जुनून होता था और मिलना और मस्ती करना सबका एक अपना नया अंदाज होता था..अब भी है पर वो नही बल्कि उसका बदला हुआ स्वरूप....बढ़िया चर्चा....

मनोज कुमार said...

भावावेग की स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वाभाविक परिणति दीखती है। भाषा की सर्जनात्मकता के लिए गालियों का प्रयोग एवं अद्भुत परिहास बोध आपकी लेखनी में एक ताक़त भरता है।

सदाग्रह शांति सद्भावना के लिए... said...

अच्छा रहा....

Khushdeep Sehgal said...

जहां चार यार मिल जाए
वहीं रात हो गुलजार...
जहां चार यार...

जय हिंद...

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

अनिल जी पुराने दिनों की याद ताजा हो गई |

बिलकुल सही कहा है अब वो मज़ा नही है .....|

मुझे लगता है technology ने हमसे खुशियाँ दी कम हैं और छिनी ज्यादा है ..

शरद कोकास said...

अनिल भाऊ , हम लोग तो एक कव्वाली गाया करते थे .. ये रिस्क रिस्क ये इश्क इश्क ये रिस्क रिस्क ...। बधाई हो आपको जो दोस्तों की महफिल मे फिर जवाँ हो रहे हैं ।

दीपक 'मशाल' said...

अनिल भाईसाब, शायद आप कभी महसूस नहीं कर सकते की मैं आज कितना खुश हूँ. आपने अनजाने में मुझ छोटे भाई को जो ख़ुशी दी उसका आपको भी अहसास नहीं होगा. मैं काफी समय से आपका ब्लॉग फोलो कर रहा हूँ. इसके माध्यम से काफी कुछ जानने को मिला आपके बारे में(सिवाय फ़ोन न. के) . आपके लेखन का तो मैं मुरीद हूँ ही साथ ही आपके व्यक्तित्व का भी. आज से १ महीने पहले जब मैंने अपना ब्लॉग बनाया तो मेरा सपना था की आप की नज़र इस ब्लॉग पर पड़े. कई बार चाहा की आपको आमंत्रित करुँ. लेकिन फिर सोचा की अगर मेरे बुलाने पे आये तो क्या आये. फिर धीरे धीरे लगा की आप बड़े लोग कहाँ हम गरीबों के ब्लॉग पे आयेंगे. लेकिन आज अचानक जब आपकी टिप्पणी पढ़ी तो लगा की आज ही दीवाली है. :)
मुझे पूरा भरोसा है की ऐसे ही आशीर्वाद देते रहेंगे.
आपकी हर पोस्ट अपने आप में एक उपहार होती है, जाने कितनी मिलती जुलती यादों की लहरें दिमाग की चट्टान से टकरा जाती हैं. वैसी ही एक शानदार पोस्ट है आज की भी.
आपका छोटा भाई
दीपक 'मशाल'

Arvind Mishra said...

आपका अतीत रस रह रह कर चालक पड़ता है और हमें भी सराबोर(सारा बोर नहीं ,हा हा ) करता है !

दिनेशराय द्विवेदी said...

गुजरे दिन लौट कर नहीं आते,
बस यादें रह जाती हैं।

मुनीश ( munish ) said...

very nostalgic Anil bhai ! Times have changed really.

विवेक रस्तोगी said...

आपकी यादों के झरोखों में झांकते हुए कब हम अपनी यादों में पहुंच गये पता ही न चला। पर हाँ वाकई इस मोबाईल ने सब कुछ बहुत आसान कर दिया है।

वरन हमारे दोस्तों को प्रेमपत्र पत्थर में लपेट कर अपनी प्रेमिका के घर फ़ेंकना न पड़ता होता। :)

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

"क्या दिन थे जबरन उसके घर के सामने से बार-बार गुजरना"

आज मै
कु्छ दिनों बाद फ़िर
उस गली से होकर गुजरा
मगर वह मुझे नही मिली
शायद उसकी जगह
और कोई गली आ गयी थी
शायद पुरानी वाली गली खो गयी थी
चुंकि मैने पुकारा तुम्हे "पटेल"
कई बार
पर तुम नही मिली
तुममे ही

अनिल भैया पुरानी यादों मे ले जाने के लिए
धन्यवाद,

Anil Pusadkar said...

दीपक पढ तो मै भी रहा था आपका लिखा और लगातार पढता रहूंगा।वैसे मेरा मो नं भी ब्लाग पर है फ़िर भी फ़िर से बता देता हूं 09827138888/09425203182

दीवाली की आपको और आपके परिवार को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

सही है, दोस्त मिल बैठे और पुराने दिन याद न करें हो ही नहीं सकता

डॉ .अनुराग said...

हर उम्र का एक अलग आसमान होता है .....पर कुछ आसमानों की सरहदे इतनी मिली होती है ....की .....

राज भाटिय़ा said...

अब वो मज़ा नही है उस्ताद ।मैने कहा हां बेटा अब तो वो रिस्क भी नही है।
सत प्रतिशत सहमत जी.... बहुत ही दिल से लिखा आप ने बहुत सी बाते तो अपनी सी लगती है.. मजे दार

rashmi ravija said...

बहुत ही दिलचस्प लगी आपकी महफ़िल की दास्ताँ...पुराने दोस्त मिले और बंद लिफाफे ना खुलें...ऐसा तो मुश्किल है...:)

निर्मला कपिला said...

बहुत बडिया लगी आपकी ये महफिल। शब्दों के प्रवाह मे लगा कि हम भी जैसे वहाँ मौज़ूद हों शुभकामनायें