ब्लाग का महत्व मुझे आज समझ मे आ रहा है।अभिव्यक्ति की असली आज़ादी सिर्फ़ यंही पर है।अभिव्यक्ति की आज़ादी का ठेका लेने वाले अख़बारो की हालत देख कर तो सिर्फ़ रोया ही जा सकता है। ऐसे मे ब्लाग ही एकमात्र माध्यम दिखता है, अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता का परचम लहराते हुये।विज्ञापनो के बोझ तले दब कर मरती अभिव्यक्ती को देख कर मुझे अपने पत्रकार होने पर अफ़सोस भी हुआ और शर्म भी आई।ब्लाग जगत पर भी इतना निष्क्रिय मैं शुरूआत के दिनो मे भी नही था।इस उदासी को भांप लिया था शायद भारत प्रवास पर आये दीपक मशाल लखनऊ के महफ़ूज़ भाई,गिरीश बिल्लौरे और फ़ुरसतिया अनूप शुक्ल ने।सभी ने ब्लाग से गायब रहने का कारण पूछा और फ़िर से लगातार लिखने के लिये कहा भी।अनूप शुक्ल से लम्बी चरचा हुई और उन्होने तत्काल कलम उठाने यानी पोस्ट लिखने का आदेश भी सुना डाला।मुझे भी लगा अनूप सही कह रहे हैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ब्लाग जगत से ज्यादा कंही नही है।
सो मैने उनके आग्रह पर लिखना शुरु किया तो सबसे पहले बात सामने आई अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता की।छत्तीसगढ मे इन दिनो नगरीय निकाय के चुनावो की धूम है।चुनावो में हर प्रत्याशी चाहता है कि उसकी बात अख़बारों के जरिये जनता के सामने आ जाये। और अख़बारो का शायद काम भी यही है आम आदमी की आवाज़ को पूरी ताक़त से उठाना।पर छत्तीसगढ मे इन दिनो या कह लिजिये कुछ समय से एक नया ही ट्रेंड चल रहा है पैकेज के नाम पर।
पैकेज याने याने रेट तय किजिये फ़िर जो चाहे छपवा लिजिये।दो बार विज्ञापन तो साथ मे दो बार भी खबर भी।तीन बार विज्ञापन तो तीन बार खबर और कोम्बो पैक यानी की सिर्फ़ आपकी आवाज़ उठाने के साथ-साथ विरोधी की आवाज़ नही सुनने या जनता को नही सुनाने का ठेका।सबके अलग अलग रेट्।लोकसभा और विधानसभा चुनावो के बाद पैकेज का जादू जब नगर निगम और नगर पालिका चुनाव मे भी सर पर चढ कर बोलने लगा तो मुझे लगा कि ऐसे मे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करने का अधिकार अख़बारों को नही रहा।
इस बारे मे संस्कृति ब्लाग वाले डा महेश सिन्हा के बड़े भाई सांध्य दैनिक अग्रदूत के मालिक आदरणीय विष्णु भैया ने जब अपने अख़बार मे खुलकर लिखा तो पहले गुस्सा आया फ़िर लगा कि कोई तो है जो पूरी ईमानदारी से इस बात को स्वीकार कर रहा है।फ़िर मुझे लगा कि विज्ञापनों के बोझतले दब कर मर रही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे मे मुझे भी सबको बताना चाहिये।अब बताईये भला ये अगर आपके पास पैसा नही है तो आपको कुछ भी बोलने का हक़ कैसे हो सकता है?आखिर अख़बार मुफ़्त मे तो नही छपते ना?पांच रूपये की लागत वाले अख़बार को एक रूपये,डेढ या दो रूपये मे बेचने मे होने वाले घाटे को पुरा करने के लिये पैकेज सिस्टम तो लागू करना ही पडेगा ना?अब इस सिस्टम मे गरीब की आवाज़ दब कर दम तोड़ दे तो क्या किया जा सकता है?वैसे भी इस देश मे गरीब को कुछ भी कहने का ह्क़ है ही कंहा?
यानी अब जिसके पास अख़बारों का पैकेज खरीदने के लिये रूपयों की थैली हो उसकी आवाज़ ही जनता की आवाज़ समझी जायेगी?जिसके पास रूपये न हो उसे जनता की आवाज़ उठाने का हक़ नही है?रूपयों से आप अपनी बात कहने के साथ दूसरों की आवाज़ का गला भी घोंट सकते है,अख़बार इसमे आपका साथ देगा,आखिर पैकेज का सवाल है।सत्तारूढ दल के पार्षद प्रत्याशी के भाई और भाजपा के महामंत्री का चुनाव के बीच का अपहरण हो गया?चुनाव मे खुल कर दारू की नदियां बहती रही?वोट खरीदने का नंगा नाच हो रहा है छत्तीसगढ मे मगर अख़बार खामोश है,आखिर पैकेज का सवाल है बाबा?ऐसा लगता है कि अख़बार वालो को तो इससे अच्छा डायरेक्ट भीख़ मांगना ही शुरू कर देना चाहिये?ये पैकेज का सिस्टम उसका सुधरा हुआ रूप ही लगता है।हो सकता है गुस्से मे कुछ् ज्यादा लिख गया हूं।जिस किसी सज्जन को बुरा लगे उनसे एडवांस मे माफ़ी मांग रहा हूं।ये पोस्ट समर्पित है फ़ुरसतिया अनूप शुक्ल,महफ़ूज़ अली,दीपक मशाल,गिरीश बिलौरे और ब्लाग जगत के तमाम साथियों को जिनके स्नेह के कारण मै अभिव्यकति की स्वतंत्रता के इस सशक्त माध्यम मे फ़िर से लौट रहा हूं।
35 comments:
नमस्कार अनिल भाई साहब
छः दिसंबर रविवार शाम अइयर साहब कोकास जी, ललित शर्मा जी, ग्वालानी जी पाबला जी संजीव तिवारी जी के साथ साथ आपसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था. अच्छा लगा था आप लोगों का सानिध्य पाकर. बहुत ही सही विचार प्रकट किया है आपने. हमें भी ब्लॉग के सन्दर्भ में मार्गदर्शन प्राप्त होता रहेगा. स्वागतहै.
अनिल जी बहुत सुंदर लिखा आप नेम ऎसी ही एक खबर मैने आज बीबी सी पर पढी थी, सोचा इस का लिंक दुं, ओर फ़िर उसे छोड दिया, चलिये अब दे रहा हुं, आप की बात मै बहुत दम है
डा महेश सिन्हा के बड़े भाई सांध्य दैनिक अग्रदूत के मालिक आदरणीय विष्णु भैया शायद शुरु शुरु मै थोडा तंग हो लेकिन जब जनता को सच पढने को मिलेगा, तो यही अखवार दिन दुनी ओर रात चुगनी तरक्की करेगा आदरणीय विष्णु भैया जी को प्रणाम कोई तो मिला सच बोलने वाला
आखिर पैकेज का सवाल है बाबा?-सही फरमाया..यही मुख्य वजह है.
ॐ महालक्ष्म्यै नमः!
अनिल भैया-मिडिया भी बहती मे धोना सीख गया है, "गंगा माई" का नाम इस लिए नही ले रहा हुँ कि इनके पाप वहाँ भी नही धुलने वाले, जब से अखबार कार्पोरेट हाऊस के कब्जे मे आए हैं तब समाचार भी व्यावसायिक तौर पर लिखे जाने लगे हैं, मुझे तब आश्चर्य हुआ कि समाचार भी अपने पक्ष मे समाचार लिखने के लिए पैकेज है,यह तो पाठकों के साथ-साथ सीधा सीधा छल एवं देश के साथ धोखा है, अब इन समाचारों पर कौन विस्वास करेगा?
आज हर क्षेत्र में तो पैसों का ही बोलबाला है .. अच्छा स्वास्थ्य , शिक्षा , कैरियर और विवाह तक तो पैसेवालों के ही हो सकते हैं .. पर पत्रकारिता को तो लोकतंत्र का एक मजबूत खंभा कहा जाता रहा है .. यह भी व्यापारियों की तरह 'शुद्ध लाभ' को देखते हुए कार्यक्रम बनाए .. तो सचमुच कोफ्त तो होनी ही है।
अब समाचार पत्र भी एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान हो गया है, पहले व्यावसायिक प्रतिष्ठान और उद्योग घराने बडे बेनर के समाचार पत्र आरंभ करते थे जिसके कारण उनकी आर्थिक स्वतंत्रता बनी रहती थी किन्तु इनमें भी अभिव्यक्ति किसी ना किसी मुद्दों पर मरती अवश्य थी. अभिव्यक्ति को आयाम देने के लिए जब समाचार पत्र छोटे बैनरों और स्वयं के निजी पहचान के साथ निकलने शुरू हुए तब उनके सामने प्रेस चलाने के लाले पड गए इसी कारण अभिव्यक्ति पर विज्ञापन आधारित नियंत्रित हावी हो गया. आपने एवं अग्रदूत के संपादक नें अपने पत्रकारिता के दायित्व को मान दिया और अपना विरोध यहां प्रकट किया उसके लिए धन्यवाद. सामाजिक व वैचारिक क्रांति की चिंगारी पहले बहुत छोटी ही होती है. आगाज का स्वागत है.
अनिल भाई,
आप ब्लॉग पर नहीं दिखते तो सबसे पहले आपके स्वास्थ्य की चिंता होती है...प्रार्थना करता हूं कि आप हमेशा हंसते-खेलने वाला मूड रखें और सारी ब्लॉगर बिरादरी को अपने लेखन से निहाल करते रहें...
रही अखबारों के पैकेज गोरखधंधे की तो प्रभाष जोशी जी की आखऱी मुहिम ये ही थी चौथे स्तंभ के नाम पर लोकतंत्र के मुंह पर कालिख पोतने वाले अखबारों को बेनकाब करें...
चुनाव आयोग और सरकार भी इस मामले में हत्यारी चुप्पी साधे हुए है...अनिल जी, अगर
प्रभाष जी की अधूरी मुहिम को आप आगे बढ़ाएं तो हम सब आपके साथ हैं...
जय हिंद...
पहले अखबारों का प्रथम उद्देश्य होता था खबरें छापना। इसकी पूर्ति के लिये विज्ञापन का सहारा लिया जाता था। किन्तु आज अखबारों का प्रथम उद्देश्य हो गया है विज्ञापन के जरिये रुपया कमाना और इसके लिये खबरों(?) का सहारा लिया जाता था।
सच तो यह है कि आज सब कुछ सिर्फ व्यापार याने कि रुपया कमाने का तरीका बन कर रह गया है, यहाँ तक कि शिक्षा, चिकित्सा आदि भी।
'अखबारों के पैकेज !!!!!
पैकेज का जादू !नया ट्रेंड!
सच है,विज्ञापनो के बोझ नेअभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को दबा दिया है.अख़बारों में भी अब सिर्फ़ पैसा बोलता है.
मुझे लगता है की ये सच तो शायद आप बहुत पहले से जानते थे लेकिन क़ुबूल अभी किया !
खैर ....देर आयद दुरुस्त आयद !
अब तो अखबारों का मुख्य उद्देश्य पैसा बनाना ही रह गया है...... आजकल तो न्यूज़ भी advt. लिख कर छापी जा रही है.....
आपके प्यार से अभिभूत हूँ ...
http://lekhnee.blogspot.com/2009/12/blog-post_20.html
अपने पेशे से धोखा करना घोर अपराध है. आप जनता को अखबार बेचते है तब उसकी आपसे अपेक्षाएं भी है. आप तमाम सुविधाएं लेकर देश व जनता से धोखा करते है और दोष कॉर्पोरेट कल्चर को देते हैं यह नाइंसाफी है.
पैकेज के रूप में लालच काम करता है. निंदनीय. कॉर्पोरेट का नियम है, ग्राहक को जो कहा जाता है, वह दो और कीमत लो. न की खबर देने का वादा करो और अपना संपादकिय तक बेच दो.
आजकल कोई काम धर्मादे मे नही होता. सब असली व्यापार है.
रामराम.
बाप बडा ना भईया
सबसे बडा रूपैया
प्रणाम
पश्चिम की बहती बयार रूपर्ट मरडोक के साथ हमारे घरों में पहले एलेक्ट्रोनिक और अब प्रिन्ट मीडिया के जरिये अतिक्रमण कर रही है , कुछ दिनो पहले ही एक बड़े अख़बार का शेयर मार्केट में प्रवेश हुआ है . इसके शेयर विदेशियों ने भी खरीदे हैं . राजनीति और प्रेस का संबंध जनता से छुपा नहीं है. एक दो रुपए में अख़बार उससे ज्यादा की रद्दी कैसे दे रहा है .
aap likhna band na kiya karein.
aapka likha ham padhte rahna hi chahte hain isiliye hi to aapko blog jagat me pakad kar laya tha bhaiya....
माया तेरे खेल निराले!!!
एक आम भारतीय इतना आदी हो चुका हैं कि ये सब पढ, सुनकर किसी को कोई आश्चर्य भी नहीं होता होगा.....
आप ने जिन मुद्दे को उठाया है.ये पहले चोरी छिपे चल रहा था.लेकिन पिछले चुनाव से तो खुले आम!इसके खिलाफ सबसे पहले प्रभाष जी ने आवाज़ उठायी थी और उन्हों ने बजाप्ता अखबारों का नाम तक अपने कागद-कारे में लिया था. रायपुर वाले वही जो आपके अखबारी-काल में देशबंधु में थे, इधर बीबीसी में भी इस पर चर्चा की है.
ये जानकार दुःख हुआ कि अपने छत्तीसगढ़ में भी ये बुराई पहुँच गयी.आप सजग हैं और आदरणीय विष्णुजी का अग्रदूत तो है ही अग्रदूत! साहस को सलाम!
कुछ दिनों इस पर एक विस्तृत आर्टिकल पढ़ा था शायद हिन्दू में.
मुझे 4 बातें कहनी हैं:-
1. पता नहीं अच्छा था या पलायन मात्र था कि मैं इस तथाकथित पत्रकारिता से कई साल पहले बच निकला.
2. लेकिन सलाम है उन कलम के सिपाहियों को जो माद्दा रखते हैं आज भी.
3. भले ही ब्लाग लिखना भाड़ फोड़ देने की ज़ुर्रत समझी जाती हो पर ये कोशिश ज़ारी रहनी ही चाहिए.
4. आपका लौटना अच्छा लगा. आभार.
दरअसल फिलहाल ब्लॉग पर इस तरह के लेख लिखने या प्रचार के लिए पैसे नहीं मिलते हैं। जब भी इसकी शुरुआत होगी ब्लॉगकारिता भी इस लालच से बच नहीं पाएगी। और, टीवी और अखबारों की ही तरह यहाँ भी आदर्शवाद धराशायी होगा।
Yah sthiti kewal chhateesgadh ki hi nahi bhaai sahab...poore desh ki hai...aur yah suni sunaai baat ke aadhaar par nahi kar rahi,bahut nikat se dekha hai....
Vichaar to bahte raha karte hain,unhe koi baandh samet nahi saktaa...kabhi akhbaar aam aadmi ki abhivyakti ka maadhyam tha,jab wah bandh aur bik gaya paise ke haathon to aaj yah blog maadhyam bana hai....
Ek patrakaar hone ke naate apne kartaby nirvahan me is maadhyam ka saath aapko kabhi nahi chhodna chahiye..kisi bhi baat par nahi...
Aap saaathakta tatha sakaratmakta se apna kartaby nirvahan karte rahen aur safalta paate rahen,iske liye shubhkaamna..
अब क्या कहें ? सब पैसे की माया है ....हाँ दुःख अवश्य होता है ये सब देखकर
कमाल है ये तो। कई बार सोचने लगता हूं कि आप जैसे कितने ही पत्रकार लोग कैसे झेलते होंगे ये सब कुछ....
means freedom lies in blogging only, great!
सुन्दर। बड़ा अच्छा लग रहा है फ़िर से लिखते देखते। लिखते रहिये। बाकी अखबार की क्या कहें? शायद इन्हीं खतरों को देखते हुये पत्रकार अखिलेश मिश्र ने यह लेख लिखा था--
मीडिया: ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही
'
ये पैकेज वाला खेल पिछले लोकसभा चुनावों से ज्यादा चलन में आया है, पहले भी होता था, लेकिन इतने खुल्लमखुल्ला नहीं… अब तो अखबार वाले कहीं दादागिरी से तो कहीं भिखारी बनकर रुपये मांगते दिख जाते हैं…
Aisi aajadi aur kahan..blogjagat se jyada bebak aur dil ki baat aur kahi vyakt nahi ki ja sakati hai..behad sundar prsang..dhanywaad anil ji
सबकी कहानी एक जैसी है, वाकई मैं भी यह सोच कर हैरान होता हूँ कि लगभग १२० पेज का अखबार कलर प्रिंट में केवल ४ रुपये में हमें कैसे मिल जाता है अंग्रेजी का, जबकि वहीं हिन्दी का अखबार १० पेज का वो ३.५० रुपये में मिलता है।
कुछ अखबार जो अपनी राह पर चलते हैं और महंगे हैं वे आसानी से बाजार में उपलब्ध नहीं है, वित्तीय प्राथमिकताएँ इन अखबारों को देना ही पड़ती हैं और जान बूझकर अपने पेशे से मुँह भी मोड़ना पड़ता है।
अनिल जी यह सब तो चलता रहेगा, केवल भारत ही नहीं सब जगह की राम कहानी यही है। आप तो लिखते रहिये...
तभी तो ब्लॉग दुनिया हिट हो रही है। अखबार तो बिकाऊ हो चुके हैं। बिकाऊ की आवाज का उठेगी।
औरत का दर्द-ए-बयां
"हैप्पी अभिनंदन" में राजीव तनेजा
कैमरॉन की हसीं दुनिया 'अवतार'
मत खींचो कमानों को, न तलवार निकालो
जब अखबार बिका हो तो ब्लॉग निकालो!
नमस्कार बहुत अच्छा लिखा है पर आपने इसमें सारे चैनेल का जिक्र नहीं किया .......आखिर वे भी तो वही कर रहे है ... तो उन्हें कैसे भूल सकते है ...
धन्यवाद
नमस्कार बहुत अच्छा लिखा है पर आपने इसमें सारे चैनेल का जिक्र नहीं किया .......आखिर वे भी तो वही कर रहे है ... तो उन्हें कैसे भूल सकते है ...
धन्यवाद
अखबारों के चरित्र मे बदलाव को अब सब पहचानने लगे है अनिल भाई ।
Post a Comment