अरूंधति आओ,देखो 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया गया है?अच्छा लग रहा है ना सुनकर?पड़ गई ना कलेजे में ठंडक?हो गया ना तुम्हारा बस्तर आना सफ़ल?तुम तो सात दिन रहीं थी नक्सलियों के साथ,है ना?उनकी दलाली मे एक बड़ा सा लेख भी लिख मारा था,है ना?बड़ी तारीफ़ हुई होगी,है ना?खैर रोकड़ा तो मिला ही होगा,इस बार नही पूछुंगा,है ना,क्योंकि इसका तो सवाल ही नही उठता।
क्या अब दोबारा बस्तर आओगी अरूंधति?क्या उन 76 जवानों की शहादत पर बिना रोकड़ा लिये कुछ लिख पाओगी?नही ना?हां तुम क्यों लिखोगी?तुम्हे तो यंहा की सरकार,यंहा की पुलिस शोषक नज़र आती है?तुम्हे अच्छे नज़र आते हैं खून की नदियां बहाने वाले नक्सली।तुम्हे अच्छे लगे हैं उनके शिविर मे दिखाये गये वीडियो।तुम्हे अच्छा लगा,उन वीडियो को देखकर वंहा बैठे नक्सलियों का उबाल मारता खून।तुम्हे अच्छा लगा तत्काल विस्फ़ोटक बना कर पुलिस पार्टी को उड़ाने को तत्पर भटके हुये युवाओं का जोश,है ना।भई ये मैं नही कह रहा हूं,मुझे किसी ने बताया कि तुमने बहुत दमदारी और दिल से नक्सलियों की अपने लेख मे वक़ालत की है।
खैर ये तो धंदे की बात है।मगर क्या तुम कल्पना कर सकती हो एक साथ 76 जवानो की बलि।इतने तो आजकल दो देशों की सीमाओं पर हुई मुठभेड़ मे नही मरते अरुंधति जी।दम है तो आओ एक बार फ़िर से बस्तर और उसका खून से सना चेहरा भी दिखाओ दुनिया को,खासकर अपनी उस दुनिया को जो गुज़रात,महाराष्ट्र मे जाकर मोमबत्तियां जलाता है।हिंदू धर्म की वकालत और विदेशी त्योहारों का विरोध करने वालों को पिंक चड़डियां भेजता है।क्या आओगी बस्तर मोमबत्तियां जलाने के लिये?कितनी जलाओगी और कंहा-कंहा जलाओगी?साढे छः सौ जवान शहीद हो चुके हैं हाल के सालों में।इतने शायद युद्ध मे भी नही मरते।आपके फ़ेवरेट स्टेट गुज़रात मे भी नही!
क्यों आओगी यंहा?है ना।सरकार से रोकड़ा तो मिलने वाला नही फ़िर इनसे संबंध का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई लाभ भी नही?है ना।मगर सोचो,अरूंधति जवानों को अगर तुम क्रूरता करने वाले राज्य का अंग भी मान लो,तो भी इस घटना से एक और घटना भी तो पैदा हुई है।क्या 76 जवानों के मारे जाने से 76 बहने विधवा नही हुई हैं?क्या 76 बहने रक्षा-बंधन पर उन भाईयों का इंतज़ार नही करती रहेंगी?क्या 76 बूढी हो चली माताओं की कमज़ोर हो चली आंखों से आंसूओं की गंगा नही बह रह होगी?क्या उन्हे अब अपने लाड़ले दोबारा दिख पायेंगे?क्या उनके मुंह से ये नही निकल रहा होगा हे ईश्वर यही दिन दिखाने के लिये ज़िंदा रखा था?
किसने दिखाया ये दिन उन 76 परिवारों को?आपके उन चहेते कथित क्रांतिकारियों ने?जिनके आतिथ्य का सात दिनों तक़ लुत्फ़ उठाती रही आप?क्या आप जायेंगी उन 76 परिवारों मे से एक के भी घर?कैसी औरत हो?क्या औरत होकर भी औरतों का दर्द नही समझ पा रही हो?क्या असमय विधवा होने के दुःख पर नही लिख सकती कुछ तुम?क्या बुढी आंखो के आंसूओं का दर्द बयां नही कर सकती तुम्हारी कलम्।क्या औरतों पर सेक्स और पेज थ्री टाईप का ही लिखने मे मज़ा आता है?
आओ अरुंधति फ़िर से सात दिनों तक़ बस्तर आओ।और लिखो बस्तर का सच्।तब लगेगा कि तुम सच मे लिखने वाली हो वर्ना ऐसा लगेगा कि तुम नक्सलियों के प्रायोजित प्रोग्राम के तहत बस्तर आई थी और उनका पेमेंट लेकर पब्लिसिटी के लिये अपनी साख दांव पर लगा कर एक लेख लिख मारा है तुमने।दम है तो आओ बस्तर और कर दो सच को उज़ागर।बताओ दुनिया को कि यंहा असली शोषण कौन कर रहा है?बताओ,नक्सलियों के पास कैसे-कैसे घातक और आधुनिक हथियार हैं?बताओ उनको कैसे मिल रहे हैं हथियार?बताओ उनको और कौन-कौन कर रहा है मदद?पर्दे के पीछे छीपे आप जैसे कितने और हमदर्द हैं उनके?उनकी मदद के आरोप मे पकड़ाये डा विनायक सेन को छुडाने के लिये पूरी ताक़त लगाने वाले कथित बुद्धिजीवी और मानवाधिकारवादियों के गिरोह कितना बड़ा है और उसकी जड़े कंहा-कंहा,किस-किस देश मे फ़ैली हुई है?है दम?तो आओ बस्तर एक बार फ़िर।वरना हम तो यही सवाल करेंगे,76 जवानों की मौत से खुश हैं ना आप?कलेजे मे ठंडक पड़ गई है ना?आपका बस्तर आना सफ़ल हो गया ना?
49 comments:
अनिल भाई,
हमारे पैरा मिलिट्री फोर्सेज के जवानों को सरकार ने सिटिंग डकस समझ लिया है...नक्सलवाद के तंदूर में भुनने के लिए छोड़ दिया है...तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता यही चाहते हैं न ये सिटिंग डकस चुपचाप भुनती रहे और आवाज़ भी न करें...
जय हिंद...
मेरा मानना है कि जहाँ तर्क कि सीमा समाप्त होती है वहाँ हम कुछ ना कर पाने कि छटपटाहट गालियों कि सीमा शुरू करते हैं.. आज मेरा धैर्य चूकता नजर आ रहा है.. जी भर के गलियां देने का मन कर रहा है.. इसके आलावा कुछ और कर भी नहीं सकते हैं हम..
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बहुत ही कायराना कृत्य है,
ये तथाकथित मानवाधिकारवादी मोमबत्तियाँ नही,
दिये जला रहे होगें,
मैं तो इस घटना को
सामुहिक हत्या मानता हुँ।
आपकी पीड़ा का अंदाजा। आपके लेख से हो रहा है। लेख मन को झिंझोड़कर रखने वाला है।
इन्हें शांति का नोबल पुरस्कार मिल भी मिल जाए तो कोई आश्चर्य नहीं.
इसीलिए हमने इसकी आवाज को 'रूदाली' कहा.
यही वो लोग है जिनके निजी स्वार्थो के बीच पिस आआम आदमी रहा है ! खूब फायदा उठा रहे है ये इन हालत का , चिदंबरम को भी अपनी ही रोटिया सेकनी है, जनाव भूल रहे है की ये पहले एक कोर्पोरेट वकील थे और इन्होने ही यह सब माइनिग का खेल यहाँ पर खेला , मौरिशःस के कम्पने को वेदांता ग्रुप में भागी डारी भी इन्होने २००४ में वितमंत्री बन्ने के तुरंत बाद दिलवाई थी ! ये सब जो गंदा खेल खेल रहे है उसे आम मूर्क जनता नहीं समझ पा रही !
महेश सिन्हा जी से सहमत
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Apne jis nirbhyata aur bebaaki se es kaayarana kratya ki ninda ki hai.. yah dumuhen tareeke se jeete aa rahe logon ke muhn par karaara tamacha hai....
Aaj akhbaar mein padha to bahut dukh hua.... kis-kis ko koshen aise kratyon ke liye... na jane kintne ho donghi bhare pade hai.. jo nautanki karte phirte hai...
nisandeh yas saamuhik hatya ka hi roop hai.... Ishwar iske liye jimedaaron ko kabhi maaf nahi karega...
arundhti madam ke sath yahi to dikkat hai, unke chashme se yah sab nahi dikhta....
PD ke kathan se 100 feesdi sahmat hu
खून भी तो नही उबाल लेता अब खौलने की तो बात छोडिये . ना जाने कितनी लाशे गिनने के बाद हम ऩक्सल को समस्या मानेंगे . हम से मतलब सरकार से है ................
हतप्रभ हूँ -आक्रोशित भी ! इस लड़ाई को हम रणनीति और कुशलता से नहीं लड़ सकते ?
निश्चित रूप से ह्रदय विदारक घटना है ! इस तरह की बर्बरतापूर्ण कायराना हरकत की जितनी भी निंदा की जाए कम है !
लेकिन एक दूसरा भी बहुत ही बड़ा पहलू है जो हमें राजनीतिक नौटंकियों ....टी-20 क्रिकेट और सानिया मिर्जा जैसे राष्ट्रीय आपदा विषय के कारण दिखाई ही नहीं देते और न ही मीडिया उन पर बात करता है ! इन आदिवासी पिछड़े क्षेत्रों में नक्सली समस्या क्यों बढती जा रही है ? इनको स्थानीय लोगों का समर्थन क्यों प्राप्त हो रहा है ? इन क्षेत्रों में रहने वालों की क्या समस्याएं हैं ?
सैकड़ों सालों से यहाँ के निवासियों के हितों की अनदेखी की जाती रही है .... निरंतर शोषण होता रहा !
मूलभूत तथ्यों को जब तक हम अनदेखा करते रहेंगे तब तक बात नहीं बनेगी
Aaj newspaper dekha to man ko gahara aaghat pahunch... Itne sainikon kee ek saath hatya.... Ishwar yah krtya karne walon aur iske liye jumedaar logon ko kabhi maaf nahi karega.......
Samvedanheen hote sirf apne jeete samaj or do muhen jeetee logon ke muhn par aapne karara tamacha mara hai..
Kash es disha mein jagruk log ek manch par aa paate to shayad aaj kee bigadti haalt mein kuch sudhar ho paata...
$&^*^%*&^ and
*$&*^&*#& then
^*&*$*&$#* and its not over...
सचमुच बहुत ही दिल दहला देने वाली घटना है और इस अवसर पर यह भी सोचने की ज़रूरत है कि ये इतने लोग एक साथ उग्रबामपंथ में ही रास्ता क्यों तलाश रहे हैं। इन्हें लोकतांत्रिक ढंग में रास्ता क्यों नहीं दिख रहा जबकि इस लोकतांत्रिक पद्धति में भी राजनीतिक दल काम कर रहे हैं। जब देश का प्रधानमंत्री, गृहमंत्री आदि बार बार दोहरा रहे हैं कि उग्रबामपंथ सबसे बड़ा खतरा है और वे 140 ज़िलों तक अपना प्रभाव बना सकने में सफल हो गये हैं, तब सानिया की शादी और मध्य प्रदेश के मंत्रियओं , अफसरों के भ्रष्टाचार, उमा भारती की नौटंकी, आदि मीडिया पर क्यों छाये हुये हैं, ये हरामखोर ज्योतिषी और भविष्यवक़्ता और बाबा वहाँ क्या कर रहे हैं? इस विषय पर जो देश की प्रमुख समस्या है खुल कर बहस क्यों नहीं होती जिसमें नक्सलियों का पक्ष भी सामने आये।
unsaalo ke liye to
#@^&%*$#@%^%$#@#$
bas thoda padha-likha hone ka naatak karna padta hai nahi to
#@$%^&%$#@ un salo ki ....
शहीदों को शत् शत् नमन् सही है हमारे अर्धसैनिक बलों को शतरंज के प्यादों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा हैं......जिन्हें कहीं भी कभी भी मरवाया जा सकता है...जब ये प्रहार करते हैं तो अरुंधती राय जैसे देशद्रोही मानवाधिकार कार्यकर्ता चिल्लाते हैंं .....शर्म की बात तो ये है कि इस लेख पर भी किन्हीं दो नालायकों ने ब्लोगवाणी पर नापसंद का चटका लगाया हैं......
जब आग फैल रही थी, सर तक कम्बल ढके सो रहे थे सब । अब जब घर तबाह होने लगे तो वही लोग फू फा में जुट गये । भान अब सबको हो गया है अब कि ताकत झोंकनी पड़ेगी और वह भी नक्सलवाद के आमूलचूल विनाश तक । भ्रम में तो कोई भी नहीं अब । दुख असह्य यह है कि 76 आत्माओं की आहुति यह ज्ञान जागृत करा पायी ।
आदरणीय जैन साब आपने पते की बात की है.हमने यंहा प्रेस क्लब मे एक बार इससे जुडॆ सलवा जुडूम आंदोलन पर भी बहस कराई है.उसमे मुख्यमंत्री डा रमन सिंह,कांग्रेस के आदिवासी नेता महेन्द्र कर्मा और वामपंथी नेता धर्मराज महापात्र ने अपनी बात रखी थी.वंहा भी हिंसा की निंदा की गई थी और सभी हिंसा की निंदा करते हैं लेकिन हिंसा है कि थमने का नाम नही ले रही है.इससे पहले भी बस्तर के ऐर्राबोर मे ५५ जवानो को और मदनवाडा मे ४० जवानो को नक्सलियों ने मार डाला था.साढे छः सौ जवान शहीद हो चुके हैं हाल के सालों में,इतने तो किसी युद्ध मे नही मरते आजकल.सबसे हैरानी की बात तो ये है कि वे जिन आदिवासियों के शोषण की बात कर रहें हैं उनमे से एक भी वंहा नक्सल आंदोलन का नेता नही है.और सच पूछो तो उन्हे मतलब भी नही है बाहरी दुनिया से.मस्त थे वे अपनी दुनिया में,पता नही कंहा से ये रोग लग गया बस्तर को?
मिहिरभोज जी,आप भी कमाल की नज़र रखतें है.रुदालियों के भाई लोग होंगे,बुरा लग रहा होगा इतनी तारीफ़ सुनकर.हा हा हा हा हा.
बहौत उबाल आ रहा है अभी बोलने लगा तो सिर्फ़ गाली ही निकलेगी, बस अभी सोचता हूँ 76 शहीदो के बेवा और यतीमो के बारे मे, उनके सपनो के बारे मे… और दिल मे एक भूचाल सा दौड उठता है!साला सारे जहाँ से अच्छा को पोट मे डाल कर फ़्लश चला दूँ! देशवासियो के जीवन का कोई मोल नही है ! कौन सुरक्षित है यहाँ ??? बस अफ़्ज़ल और कसाब !
आपके ब्लाग में सत्य लिखा है. इतना जरूर कहना चाहता हूं..
बुद्धिजीवी मतलब बुद्धि बेच कर जीने वाला...
पूरे देश में नक्सल वाद फैलने वाला है और देश गृहयुद्ध की भट्टी में जलने वाला है..
शोषण, पक्षपात, अन्याय, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, नेताओं का देश को विध्वंस करने का रवैया
अफसरों का राजाओं जैसा व्यवहार
कानून को पंगु बनाने वाले लोग...
माननीय बहुत जल्द यह पूरे देश में फैलेगा बस चेहरे अलग होंगे.
और दूसरा शहीदों के लिये
हे सैनिक मर
मर जायेगा तो क्या जायेगा ?
वोट बैंक भी तो नहीं है
फिर क्या पता कितने अपने कितने विपक्षियों के होते
हो सकता है कि साम्प्रदायिक होते,
धर्मनिरपेक्षियों के लिये न होते...
इसलिये मर..
आत्मा है अजर, अमर
इस पर विश्वास कर...
मर..
मरेगा तभी तो शहीद का दर्जा पायेगा...
तभी तो वादा कर पायेंगे तेरे बुत लगाने का..
एक पेट्रोल पम्प दिलाने का...
तू मरेगा तभी तो नोबेल शांति का हमें मिलेग..
शांति की जमीन पर ही तो खड़ा होता है दोस्ती का महल..
चल घर से निकल, टहल..
अपनी चेकपोस्ट पर पहुंच,
सीमा पर पहरेदारी कर,
और इंतजार कर,
दुश्मन की गोली का,
नेताओं की बेशर्म ठिठोली का,
घर से निकल,
बाजार चल, यात्रा कर,
और फिर इंतजार कर,
बम के फटने का, एक दुर्घटना घटने का,
कफन का, भाषण का..
नेताओं की कुटिल राजनीति के
राशन का.
मर.
अब् ये तथा कथित मंवधिकर वादी बिलो मे गुस गये हैन अब इन के मुह सिल ग्ये है क्योन कि मओ वादी इन के स्गे सम्ब्नधी है अरुन धती क्य ऐसे तमाम लोग इस पर ज्शन मना र्हे होंगे
इन देश के दुश्म्अनो क प्र्द फाश क्र के आप ने बदा काम किया है
वेद व्यथित
82 जवानों में से 76 को मौत के घाट उतार दिया....!!!!
नक्सलवाद को रोकने के लिए सरकार गंभीर नहीं है। अंरुधति पर तीखा प्रहार किया है। जो नक्सलवाद का समर्थक वो देश का दुश्मन। अच्छी पोस्ट है।
kya tippani karu. bus bhagvan desh ko buri nazar se bachaao.manavadhikar vadio kuch to sharm karo.
ये घटना और इसके जैसी तमाम दूसरी घटनाएं, बताती है कि हमारा पूरा का पूरा सरकारी तंत्र कूटनीतिक और रणनैतिक दोनों जगह पर असफल है.
आज़ादी के ६० सालों के बाद भी अगर आदिवासी मुख्यधारा में नहीं आ पाए और जनतंत्र उनके लिए जीवन की अल्पतम ज़रूरतों को नहीं भर पाया. लगातार सरकारी दमन और उनके संसाधनों की लूटपाट की वजह से ही आदिवासी सरकार पर नहीं माओवादियों पर भरोसा करतें है. लोकतंत्र में संवाद की एक पारदर्शी प्रक्रिया होनी चाहिए, और हमें सरकार और दमित शोषित दोनों की तरफ से क्या सच्चाई है, ये मालूम होना चाहिए. समस्या का अंतत: समाधान राजनैतिक ही होगा. हमारा मीडीया दोनों तरफ की ठीक ठीक खबर नहीं रखता. अरुंधती ने सिर्फ ये किया है कि ऐसे प्रतिबंधित इलाके में जाकर वों वहाँ की खबर और पक्ष लेकर आयी है. माओवादी समस्या के लिए या फिर नर्मदा से आदिवासियों के निर्वासन के लिए मेधा और अरुंधती ज़िम्मेदार नहीं है. बल्कि शायद लोकतंत्र में पारदर्शिता और सही राजनैतिक समाधान की दिशा में ही ये देश कुछ आगे बढे, अरुंधती की इस हरकत से.
दूसरा सवाल रणनीतिक असफलता का भी है, जिस तरह से हमारे सैनिक और पुलिस की ट्रेनिग है, वों बहुत आले दर्जे की नहीं है. उसमे प्लानिग का कौशल नहीं है. उनके पास ठीक-ठीक संचार की सुविधा और यहाँ तक कि पुलिस चौकी में सरकारी वाहन भी नहीं होता. हाथ मैं डंडा लिए अपनी सायकिल पर घूमते पुलिस के सिपाही से हम क्यों देश की सुरक्षा की उम्मीद लगायें बैठे है. सिर्फ आपाधापी में हमारे सैनिक कभी आतंकवादी हमले और कभी माओवादी हमलों में मारे जातें है और सारा दोष कभी हम माओवादियों को गाली देकर कभी पकिस्तान को गाली देकर निकाल लेतें है. फिर नया दिन उसी सूरत में शुरू होता है.
कब ठीक-ठीक हम अपनी असफलताओं के कारणों की पड़ताल करना सीखेंगे? अगर नहीं करेंगे तो जैसा चल रहा है वही होगा. हमारी देशभक्ति बेवजह गाली-गलोच तक रह जायेगी.
सचेत और देशभक्त नागरिकों का रोल होना ये चाहिए कि राजनैतिक और रणनैतिक दोनों मोर्चों पर अपनी जनतांत्रिक सरकार से जबाबदेही मांगे. और इनमे लगातार अपडेट का प्रेशर बनायें. अरुंधती को गाली देना सबसे आसान काम है. जो कठिन है वों है हमारी शिरकत कि हमारा लोकतंत्र आम आदमी के लिए ठीक-ठीक कैसे काम करे?
बहुत शर्मनाक और कायरतापुर्ण कृत्य, शहीदों को श्रद्धांजली.
रामराम.
अरुन्धति प्रसन्न होंगी अपनी पब्लिसिटी पर!
बहुत दुखद और अफसोसजनक घटना.
सत्ता की बंदूक जब बेगुनाहों का खून बहाती है तब आप लोगों को रोना नहीं आता।
दिल दह्लादेने वाली घटना पर बहुत अच्छा लेख...या आक्रोश कहूँ तो ज्यादा उचित होगा....सरकार बस कमेटी बना देगी ..जांच बैठा देगी....जिनकी शहादत हुई उनका क्या? भूल जायेंगे लोग २ दिन में....मीडिया के पास और बहुत ज़रूरी चर्चाएँ हैं...सानिया मिर्ज़ा और शोएब की शादी का मसला है ....नक्सलवादी लोग तो देश के जवानो को मारते ही रहते हैं....ये कहाँ है हमारे देश का अहम मुद्दा ???? जागरूकता देने वाले लेख के लिए आभार
बहुत दुःख की स्थिति है. यह स्वार्थी तस्कर हत्यारे मार्क्सवाद से लेकर माओवाद तक कोई भी चोला ओढ़ लें असलियत में इनका वाद सिर्फ अवसरवाद और आतंकवाद है. अरबों रुपये की वसूली हो रही है. नेपाल-चीन तक तस्करी का जाल बिछा हुआ है. हथियार आ जा रहे हैं. ज़रा दिखाएँ तो जिस आदिवासी, किसान, मजदूर की आड़ लिए फिरते हैं उसे कहाँ दफ़न कर रखा है बारूद के सौदागर इन हत्यारों ने?
साथ ही सरकार को भी चिदंबरम-टाइप बडबोलापन छोड़कर तेज़ी से इन आतताइयों से निपटना चाहिए. इनके पाप का नाला बहुत पहले भर चुका है.
Sanjeev ji ki baat se sahamat.. ye rudaliyan ab nobel prize ki taiyaree kar rahi hogi ..
अरुंधती राय और डाक्टर विनायक सेन क्या हैं? क्यों आप उन्हें हर बार अपनी आलोचना के जरिये हीरो बना देते हैं?
आप उन नेताओं की क्यों नहीं बात करते जिन्हों ने जंगल में हत्याओं के लिए सन्नद्ध नक्सलियों के बीच अधूरी तैयारी और अधूरे मन से जवानों को झोंक दिया। जिन्हें वक्त पर सहायक बलो की सहायता तक उपलब्ध नहीं हुई। आप सुरक्षा बलों के उन अफसरों की बात क्यों नहीं करते जो अपने एयर कंडीशंड चेम्बरों में कच्ची योजनाएँ बनाते हैं। आप राज्यों और केंद्र के उन अफसरों और बिचौलियों की बात क्यों नहीं करते जिन की जेबें और बैकों के लॉकर नक्सलियों से मुकाबला करने के लिए आए धन से फूल रहे हैं।
समस्या की जड़ हमारी दोषपूर्ण प्रणाली में है। मैं नक्सल प्रभावित इलाकों से बहुत दूर रहता हूँ।
हो सकता है हकीकत कुछ भिन्न हो और मेरी समझ में त्रुटि हो। लेकिन मैं उन लोगों को जानता हूँ जो इस व्यवस्था के शिकार हैं। वे बरसों बरस इस पंगु न्याय व्यवस्था से लड़ कर उसी से अपने हक में फैसले प्राप्त करते हैं और यही न्याय व्यवस्था जब उन फैसलों को तब तक भी लागू नहीं कराती जब तक कि उन न्यायार्थियों के पैर कब्र और शमशान की तरफ नहीं हो जाते। ये वो लोग हैं जिन्हें लाल झंडो से हमेशा परहेज रहा। हमेशा बीजेपी और जनसंघ को वोट देते रहे और शायद आगे भी देते रहेंगे। लेकिन अपने हकों को ऐसे मारे जाते देख वे नक्सलियों को याद करने लगते हैं। वे चाहते हैं उन में से कोई आए और जिन्हों ने उन के हक मारे हैं और हकों में के मिलने की राह में रोड़े बिछाए हैं उन्हें भून डालें। ये वही लोग हैं जिन के बेटे सुरक्षा बलों और सेनाओँ में भर्ती होते हैं और कमजोर रणनीति के शिकार हो कर मारे जाते हैं। कल के हादसे में मेरे एक ऐसे ही क्लाइंट का रिश्तेदार मारा गया।
समस्या की जड़ें यहाँ हैं। हमारी भ्रष्ट और धनिकों की पोषक व्यवस्था में है। न्याय पूर्ण व्यवस्था के बिना क्या नक्सलवाद से लड़ा जा सकता है? मुझे तो लगता है कि नेतृत्व में उन से लड़ पाने की इच्छा शक्ति ही नहीं है। वे तो केवल धन बटोरने के धंधे में जुटे हुए हैं।
ये बेनामी सामने आने में क्यों डरते हैं ?
Lekhika par aapka gussa najayaj hai. unhone sike ka pehlu pesh kiya hai. nakasliyon se nipte ki jimmedari sarkar ki hai.
...शहीदों को नमन ... श्रद्धांजलि ...!!!
उम्मीद है मेरी टिप्पणी महसूस कर लेंगे !
So called Intellectuals are very dangerous for our Nation.
Beware of them
नक्सलवादी, आतंकवादी देश की रक्षा में लगे सैनिकों को गोली का शिकार बना रहे हैं और ऐसे पत्रकार देश की आंतरिक सुरक्षा में लगे संगठनों और व्यक्तियों को अपनी कलम का शिकार बना रहे हैं। दोनो की वास्तविकता एक ही है। ये आज मोमबत्ती नही दीपक जलाएंगे खुशियों के। इनके मन्सूबे सफल जो हुए हैं। भारत का जनजातीय समाज सबसे अधिक संवेदनशील समाज है, वे ऐसे कृत्य करने की सोच भी नहीं सकते। उनमें किसी भी प्रकार का असंतोष भी नहीं है। ये जो फौज खड़ी की गयी है यह विदेशी पैसे और धर्म के आड़ में खड़ी की गयी है। देश में 450 जातियों में यह समाज बंटा हुआ है। यूएनओ सहित सभी का मकसद है कि इन सभी जातियों को स्वतंत्र घोषित करके भारत को 450 टुकड़ों में बांटना। यूएनओ ने तो प्रस्ताव पारित भी कर दिया है कि कोई भी जनजाति अपना स्वतंत्र राष्ट्र बना सकती है। इसलिए इन खबरों को इस परिपेक्ष्य में भी लेना चाहिए।
आदरणीय डा. सुषमा नैथानी यानी स्वप्नदर्शी जी| इतना सब पढ़ने और जानने के बाद भी आप देश द्रोहिनो के साथ खडी दिखती है| आपकी शिक्षा दीक्षा विदेश में हुयी है और शायद इसी कारण आप जीएम फसलों की खुली समर्थक रही है| आपसे अनुरोध है कि कभी छत्तीगढ़ आइये और जंगलों में कुछ समय गुजारिये| विदेश में वातानुकूलित कमरों में बैठकर सिस्टम को कोसना बहुत आसान है|
पता नहीं आपका मत क्या है? पर इतना मै यकीन के साथ कह सकता हूँ कि यदि कोई आपकी कनपटी में बन्दूक टिका दे तो आप उसी की भाषा बोलने लगेंगी| आदिवासियों के साथ भी यही बात है| वे साफ़ कहते है कि किसी दिन दुश्मन बिना बन्दूक के आये और दो-दो हाथ कर ले, हम दिखा देंगे कितना दम है हममे|
इसीलिये कहता हूँ कि आप छत्तीसगढ़ आइये| बाहर बैठकर बाते करना आसान है| आप जो पैसे के लिए विदेशी बच्चो में अपना ज्ञान बाट रही है, उसकी सही मायने में आवश्यकता इस देश को है जिसने आपको जन्म दिया और आपको अपने पैसों पर पढ़ाया| कम से कम कालेज तक|
वैसे जो अपनी मातृभूमि का नहीं हुआ उसकी बातों के क्या मायने -----
@ दिनेश जी, हम आप भी इसी सिस्टम में रहते हैं पर हम तो इसे कोसकर हथियार नही उठा लेते हैं| हम इसमे रहकर ही सुधार की बाते करते है| आप सोचिये कहीं आप सिस्टम को कोसकर अनजाने में ही देश द्रोहियों की गतिविधियों को सही तो नहीं ठहरा रहे हैं?
जिस अव्यवस्था की बात आप करते है उसे कैसे सुधारा जाए इस पर भी अपने विचार रखें|
नक्सलवाद वास्तव में धूर्ततापूर्वक देश के संसाधनों पर अवैध कब्जे का मुखौटा है. ऊपर से लेकर नीचे तक मिलीभगत है. नाम आदिवासियों के हितों का दिया जाता है.
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श्री अवधिया जी
मैं अब भी भारतीय नागरिक हूँ. और इस देश पर जितना अधिकार आपका है उतना ही मेरा भी है. लाखों भारतीय विदेशों में पढ़ रहे है, और विदेशों मैं या विदेशी कम्पनियों मैं नौकरी कर रहे है, इससे वों देशद्रोही नहीं हो जाते. आपने जिस भी समझ से मुझे GMO का समर्थक माना है, वों आपकी अपनी समझ है. मेरी समझ सिर्फ ज्ञान का अन्वेषण करने की समझ है, और उसी के आधार पर विरोध या सहयोग हो सकता है. विरोध हो तो सही तर्कों और सत्य पर हो, सहयोग हो तो भी सत्य के आधार पर. मेरा इस मामले में भी यही कहना है कि हमें अपनी रणनीती को अपनी योजनाओं को बेहद समझ और तकनीकी के स्तर पर बेहतर करना होगा. ताकी बेवजह सैनिक अपनी जान न गवाएं. और हम शईद्गान के बाद चुप हो जाएँ. इसी तरह राजनैतिक स्तर पर और राजनीतक समाधान अगर माओवादी समस्या का हो सकता है तो उसे भी बेहद सजगता, कूटनीती और पारदर्शी समाधानों की ज़रुरत है. तभी माओवादियों को अलगाव में डाला जा सकताहै.
सुषमा जी, आपके उत्तर के लिए आभार| मैंने कहाँ लिखा है कि विदेशों में पढ़ने या रहने वाले भारतीय देशद्रोही है| यह तो आपकी अपनी समझ है जो आपने मेरे लिखे को अपने फ्रेम में फिट कर लिया|
मुझे मालूम है कि आपके साथ क्या अन्याय हुआ है| कैसे आपको लम्बे संघर्ष के बाद भी शोध वैज्ञानिक का पद नहीं मिला और जब आप विदेश गयी तो आपको हाथो-हाथ ले लिया गया| आपका दर्द आपके अटलांटिक वाले लेख में साफ़ झलकता है और उसे पढ़कर मैं कहीं न कहीं आपको मुझ जैसा ही पाता हूँ| जब मै स्थानीय कृषि विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक के पद के साक्षात्कार के लिए गया तो मुझसे खुलेआम घूस माँगी गयी और मुझे रिजेक्ट कर दिया गया| मैंने हार नहीं मानी और न हीं सिस्टम से विद्रोह किया| मुझे विदेश बुलाया गया और नागरिकता देने का आफर दिया गया पर मैंने देश में रहकर उन लोगों का हौसला बढाने का फैसला किया जो इस तरह के शोषण के शिकार हैं| किसी पद में चयन न होने से जीवन वहीं नहीं रुक जाता है| मै अपने देश में हूँऔर सारी विपरीत परिस्थितियों से लड़कर लोगों में आस जगाये हुए हूँ|
मेरा मानना है कि विदेश की राह पकड़ना आसान है बेहतर जीवन के लिए पर देश में रहकर दूसरों की मदद करना बहुत मुश्किल| पर दूसरा रास्ता ही देश का भला कर सकता है|
आपने अपने जवाब में बातों को स्पष्ट कर दिया है| धन्यवाद|
Bhaiya Pranam
अरूंधति राय
Ek Khuskhor thi ye bat apne ekdam shi lekhe hai bhaiya
Man Gaye Abhut Achha hai likhe apne
Bhaiya Pranam
अरूंधति राय
Ek Khuskhor thi ye bat apne ekdam shi lekhe hai bhaiya
Man Gaye Abhut Achha hai likhe apne
ab to aane do usko ....main bhi intezaar kar raha hun. aap aise lekh badi sanjeedagi se likhte hain , badhaee.
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