Saturday, April 17, 2010

नज़र नही आते लोग अब कटोरियों मे प्यार बांटते!

आज बात बहुत छोटी सी।पता नही क्यों घरों के बीच की दीवारों में अंतर रखने का नियम बना दिया गया है।इससे दीवारों के बीच अंतर तो बढा है शायद उसके साथ-साथ दिलों के बीच दूरियां भी बढती जा रही है।ऐसा मैने महसूस किया है।कल की ही बात है आई ने शाम को आम का नया अचार बनाया।रात को खाना खाते समय मुझे नया अचार देकर एक दो नामों को आई ने याद किया और गहरी सांस लेकर खामोश हो गई।मैने पूछा क्या हो गया?तो उन्होने कहा पता नही क्यों मुझे कालोनियों से मुहल्ले ज्यादा अच्छे लगते हैं।मैं समझ गया था कि उन्हे पुराने लोगों की याद फ़िर सताने लगी है।वे बोली देख ना नया अचार बना है और सिर्फ़ अपन ही खायेंगे?पहले तो अचार बनाते ही सबके घरों के लिये अलग हिस्सा निकाल कर रखना पड़ता था।
मुझे लगा वे सच ही कह रही हैं।अचार तो बहुत दूर पड़ोस मे कभी कोई खास डिश बने और मजाल है वो कटोरियों मे भर कर पहले पड़ोसियों के घर ना पहुंचे।खास डिश तो खास मौके पर बनती थी सब्जियां तक़ टेस्ट करने के नाम पर एक-दूसरे के घरों मे भेजी जाती थी।मुझे याद है कई बार हम लोग कटोरियां या दूसरे बर्तनों मे कुछ लेकर जाते थे तो उसी समय उसी कटोरी मे दूसरी सब्ज़ी या फ़िर कोई और पकवान भर कर दिया जाता था।
कटोरियों मे भरा वो प्यार होता था,जो पड़ोसी हमेशा एक दूसरे से बांटते रहते थे।सब्ज़ियों को पकाने से लेकर अचार के मसालों के बहाने उनमे लम्बी-लम्बी बातें हुआ करती थी।कटोरियों में भरा प्यार आपस के रिश्तों को मज़बूत करता था।मगर अब तो नज़र ही नही आते लोग अब कटोरियों मे प्यार बांटते हुये!
बहुत ज्यादा हुआ तो होली-दीवाली एक दूसरे के घर चले गये और जो कुछ प्यार से सामने रखो,अरे पेट भरा हुआ,आजकल यही चल रहा है ना,और भी बहुत से घरों मे जाना है कह कर उठते समय रेडिमेड पकवानों स रेडिमेड मुस्कान और फ़िर विदा।अगले त्योहार तक़्।पड़ोस की जैसे परिभाषा ही बदल गई है।और टीवी ने तो हर घर को टापू बना दिया है,हर घर क्या?हर घर के अलग-अलग कमरो को अलग-अलग टापू मे बदल दिया है।हर कमरे मे टीवी और हर किसी का अलग-अलग फ़ेवरेट प्रोग्राम।बस टीवी शुरु हुआ और सब अपने-अपने काला-पानी की सज़ा पर्।
समय ने शायद बहुत कुछ बदल दिया है।मगर आई का क्या करें?उन्हे आज भी बुन्दू याद आती है।वे अब दुनिया मे नही है,लेकिन ईद पर सेवाईंयों से भरा पहला डिब्बा वो हमारे घर ही भेजती थी।उसे मालूम था,आई नही खायेगी लेकिन बच्चे सारे खायेंगे।मेरी एक भांजी अंडा शौक से खाती थी।उसे जैसे इस बात का पता चला वो उसे अपने घर ले जाकर अंडा खिलाती थी।आई को बहुत से लोग याद आते हैं जिन्हे उनके हाथ का अचार,चिवड़ा,पोहे,भजिये और पालक की दाल याद आती है।क्या किया जा सकता है अब मुहल्ला पिछे छूट चुका है और शायद समय भी।अब तो इस शहर मे रहते हुये भी घरों के बीच की दूरियां रोज़ बढती जा रही लगती है।शायद हम लोगों ने अब घरों की दीवारों को अलग नही किया है।उन्के बीच का अंतर नही बढाया है बल्कि दिलों के बीच की दूरियां बढा ली है।छोटी सी बात भी देखिये कितनी बड़ी हो गई,ये शायद और बढते ही जाती क्योंकि यादों के खज़ाने मे घूसो तो सब कुछ लुटा देने का मन करता है,क्या आप को नही लगता ऐसा बताईगा जरूर्।

31 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

ऐसा ही हो गया है आज का समाज..

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

"पता नही क्यों मुझे" Bhee "कालोनियों से मुहल्ले ज्यादा अच्छे लगते हैं"

Unknown said...

जो चीज हमारे पास होगी वही तो बाँटेंगे ना हम! आज हमारे पास प्यार नाम की चीज रह ही कहाँ गई है?

कडुवासच said...

...अभिव्यक्ति बेहद प्रभावशाली है.. बिलकुल सही कहा आस-पडोस में भी किसी को किसी से कोई मतलब नहीं रह गया है ... सब एक-दूसरे को अजनबी की निगाह से देखते हैं ... अगर यही हालात बने रहे तो आने वाले समय में अर्थी को कंधा देने के लिये भी एक-दो आदमी किराये पे लाने पड सकते हैं !!!

SAMEER said...

बिलकुल सही कहा आपने समय के साथ-साथ हमारे दिलों के बीच का ये प्यार कम और दूरियां बढती ही जा रही है

P.N. Subramanian said...

आपने सही कहा है. दिलों की दूरियां बढती जा रही हैं

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

इस बदलाव का कोई सानी नहीं. सदियों से बदलाव होता ही चला आया है...यही सोच कर इसे भी स्वीकार कर लेने में ही भलाई है (शायद)

डॉ महेश सिन्हा said...

तकनीक का कमाल है

shubham news producer said...

bilku sahi hai bhaiya
aj kal to padosi nam kya aur koun hai ye nahi pata chalta
nalogo ke pas itna smay hai ki pyar bat sake

राज भाटिय़ा said...

अनिल जी आप ने बिलकुल सही कहा, मेने वि जमाना देखा है जब मां ने सरसो का सांग बनाया तो कटोरी साथ वालो के यहां भिजवा दी, लोटते समय कहते थे बरतन खाली नही देते, तो पडोसन ने कुछ ओर लोटा दिया... सब एक दुसरे के सुख ओर दुख मै शामिल होते थे, आज कल लोगो के सोचने का ढंग हि बदल गया है.... अगर आप किसी की मदद कर रहे है तो वो सोचता है जरुर इसे कोई मतलब होगा....
बहुत सुंदर लिखा आप ने बहुत सी बाते याद आ गई

उम्मतें said...

अगर मैं भूला नहीं हूँ तो इस विषय पर कुछ अरसा पहले घुघूती बासूती नें एक पोस्ट लिखी थी ! मुद्दा सामयिक है तथा बदलते समय...बदलती बसाहट...बदलते संबंधों पर रौशनी डालता है !

दीपक 'मशाल' said...

थी।मुझे याद है कई बार हम लोग कटोरियां या दूसरे बर्तनों मे कुछ लेकर जाते थे तो उसी समय उसी कटोरी मे दूसरी सब्ज़ी या फ़िर कोई और पकवान भर कर दिया जाता था।
कटोरियों मे भरा वो प्यार होता था,जो पड़ोसी हमेशा एक दूसरे से बांटते रहते थे।
bhaia dil ko chhoo gayi ye post.. vaise to aapki har post hi khaas hoti hai par shayad aapki aaj tak ki poston me se sabse behtareen me se ek hai ye.. mujhe bhi mere bachpan me bhej diya aapne.. ye sab dekhe hue ab to saal guzar gaye..
lagta hai hum dono 'ek hi gulaab ke patte' hain(ek hi thaili ke chatte-batte ka naya roop jo maine banaya .. :) )

डॉ टी एस दराल said...

अनिल जी , बात तो बिलकुल सही है । लेकिन समय को भला कोई रोक पाया है। परिवर्तन तो लाजिमी है।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

बिल्कुल सही कह रहे हैं। पहले तो पड़ोसी के बच्चे को क्या पसंद है यह भी परिवारों को याद रहता था। वैसा कुछ बनते ही पहले उस बच्चे को भेजा जाता था। साथ ही खाली बर्तन भी कभी नहीं लोटाये जाते थे उनमें कुछ ना कुछ रख कर ही वापस भेजा जाता था।
आजकल तो जूतियों में दाल बंटने लगी है।

Khushdeep Sehgal said...

अनिल भाई,
आप कटोरियों में प्यार बांटने की बात कर रहे हैं...आजकल तो ये आलम है कि हर इनसान एक दूसरे को काटने की फिराक में रहता है...सैडिस्ट एप्रोच में ही खुशी मिलती है...मज़ा तो तब भी है अपने पास जो चीज़ है, वो कॉलोनी में और किसी के पास न हो...या यूं कहें कि अपने घर में भी रोटी बने और साथ के घर में भी रोटी बने...फिर क्या फायदा अपने तुर्रम खां होने का...मज़ा तो इसी में है कि अपने घर में देसी घी से चुपड़ी बने और साथ वाले घर में सादी सूखी रोटी....और अगर अपने घर में सादी रोटी बने तो साथ वाले घर में चूल्हा ही न जले...तभी तो आनंद है अपने जीने का...

कुछ टंटों की वजह से नियमित कमेंट नहीं कर पा रहा...कारण अपनी कल की पोस्ट में स्पष्ट करने वाला हूं...

जय हिंद...

Smart Indian said...

जाने कहाँ गए वो दिन...

SACCHAI said...

" sahi title ke saath sahi post ...aaj kal to log pyaar alfaz ko hi bhulte nazar aa rahe hai sir "

" bahut hi acchi post "


------ eksacchai { AAWAZ }

http://eksacchai.blogspot.com

S.M.Masoom said...

प्यार सभी चाहते हैं , जब सबको इसकी तलाश है तोह लूग लोग केवल लेना क्यूं चाहते हैं, देना क्यूं नहीं चाहते? देना सीखो प्यार, कोई नेक होगा इंसान तोह बदले मैं साचा प्यार भी मिलेगा.

अजित गुप्ता का कोना said...

हूक सी उठ गयी दिल में। सारे पड़ोसी ही अपने थे। उनके रिश्‍तेदार भी अपने थे। कुछ भी अलग नहीं था सब कुछ सांझा था। आप सच कह रहे हैं कि घरों में ही मन की दीवारे खिंच गयी हैं। एक टेबल पर भी सबके पसन्‍द के अलग खाने हैं। कोई छीन-झपटकर अब नहीं खाता। शायद अब हम सभ्‍य हो गये हैं?

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

..... पुराने दिन ... ..क्या कहें....

अनूप शुक्ल said...

बरतन तो अभी भी खाली नहीं लौटाये जाते हमारे यहां। अतीत हमेशा सुहाना लगता है।

प्रवीण पाण्डेय said...

सच में । कहीं से कटोरी आने के बाद उत्सुकता रहती थी कि माँ क्या बनाकर भेजेगी ।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

चमत्कारी पोस्ट को नमस्कार!

Anonymous said...

मुझे मूल में नज़र आता है आक्रामक बाज़ारवाद या फिर महेश सिन्हा जी की मानें तो तकनीक

Gyan Dutt Pandey said...

हमारे घर के पास तो लगभग गंवई माहौल है। शाम दफ्तर से आने पर फलाने के घर का प्रसाद या फलाने का नया अचार दिख जाता है।

अरुणेश मिश्र said...

सटीक ।

Satish Saxena said...

हम अपने ही यहाँ से शुरू क्यों न करें ....सवाल पहल करने का है ..
शुभकामनायें आपको !

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपने इस पोस्ट से याद दिला दी कॉलोनी में रहने के दिनों की ....सच कटोरियों में कितना नेह भरा होता था....अब तो पड़ोस में कौन है ये भी नहीं पता चलता....

Girish Kumar Billore said...

अनिल भैया पैनी नज़र है इधर कम ही सोचतें हैं हम

सुशीला पुरी said...

अच्छी पोस्ट ......

शरद कोकास said...

अनिल भाई , बहुत पहले यही सब सोचते हुए एक कविता लिखी थी .. देखो शब्द मेरे है और भाव तुम्हारे.........

लौट गया उलटे पाँव

जो डरते डरते शहर में बस गये
वे गाँवों से आये थे
मजबूरियाँ उन्हे खींच लाई थीं
वे गाँव साथ लेकर आये थे

शहर की बस्तियों ने
उन्हे बेदखल नहीं किया
सडकों ने मंज़िलों को नहीं किया गुम
टहलने से नहीं रोका बागीचों ने
बाज़ारों ने जेब नहीं काटी
खंज़र नहीं भोंका दोस्तों ने पीठ में
प्रेमिकाओं ने बेवफाई नहीं की
रिश्तेदारों ने लानतें नहीं भेजीं
मालिकों ने पेट पर लात नहीं मारी
नहीं उछाला नाम अखबारों ने
शहर ने पूरी पूरी कोशिश की
शुरु शुरु में उनके कन्धों पर हाथ रखने की

मगर उन्होने अन्धों को सडक पार करवाई
फैले हाथों पर
अपनी मेहनत का कुछ अंश रखा
बच्चों को दुलराया खिलौने दिये
पड़ोसियों से हाल पूछे
एक कटोरी सब्ज़ी उनके घर पहुँचाई

शहर फिर आया अपनी तमाम बुराइयाँ लिये
उन्हे निगल जाने को
उन्होने शहर के पाँव पखारे
न्योता दिया हमदर्दी जताई
गाँव की बातें कीं
देहरी से लौट गया शहर उल्टे पाँव |
शरद कोकास