Saturday, March 5, 2011

वृध्दाश्रम बनते जा रहे हैं गाँव

गाँव अब गाँव नहीं रहे बल्कि वृध्दाश्रम बनते जा रहे हैं। ऐसा मुझे सोमवार को लगा जब मैं अपने ननिहाल गया । वहां जाकर ऐसा लगा कि गाँव को किसी की नज़र लग गई है। गांव में जिस भी घर में गया वहां बुजुर्गों के अलावा कोई नहीं मिला। बचपन के संगी-साथियों में से कोई रोजी-रोटी के लिए तो कोई बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के बहाने गाँव छोड़ चुका था।

एकदम अजनबी सा लगने लगा था मुझे अपना ननिहाल। छोटा सा गाँव धानोरा मेरा ननिहाल है महाराष्ट्र के अमरावती जिले में। बचपन से लेकर जवानी तक गर्मियों और दीपावली की छुट्टियाँ मैने वहीं बिताई थी। शहर के फुटबॉल, क्रिकेट को छोड़कर गांव की अमराइयों में, डाब-डुबली, (पेड़ों पर छूकर आऊट करने का खेल) और गिल्ली डंडा खेला करते थे। थक जाते तो पास में बहती छोटी सी खोलाट नदी के किनारों और कहीं-कहीं जमा पानी में तैरा करते थे। तैरना भी मुझे गाँव के ही दूर के मौसेरे भाई विनोद और अविनाश ने सिखाया था। खेल और तैरकर थक कर चूर होकर लौटते समय जिस घर में पहले खाना बना मिलता वहीं खा लेते थे। पता ही नहीं चलता था कब दिन निकलता था और कब रात होती थी। और फिर कब दूसरा दिन निकल आता।
गर्मियों के दो महीने की और दीपावली की एक महीने की छुट्टियाँ गाँव में ही बीतती थी। पूरे गाँव का भांजा था मैं। सभी घरों में आना-जाना, खाना और सभी से उतना ही प्यार मिलता था। एकदम शुध्द प्यार। कभी-कभी खेतों पर काम करने वालों के साथ भी खाना खा लेता था। वो तीखी मिर्च का ठेसा और ज्वार की रोटियों का स्वाद भूलाए नहीं भूलता। दीपावली की छुट्टियाँ खत्म होते ही गर्मियों का इंतजार रहता था और गर्मियाँ खत्म होते ही दीपावली का।
सब कुछ एकाएक बदला सा लगने लगा था। जब मैं सालों बाद कुछ दिनों के लिए गाँव में रूका। बगल में रहने वाली अनु मावशी (मराठी में मौसी को मावशी कहते हैं) के घर पर ताला लटका था पता चला कि वो जानवरों के लिए बने बाड़े में कमरा बनवाकर रहने लगी है। विनोद,प्रमोद के बारे में पूछा तो दोनों बगल के तहसील मुख्यालय में रहने लगे हैं। खुद गाँव में पढ़कर बड़े हुए प्रमोद और विनोद को अब गाँव का स्कूल पसंद नहीं आ रहा है। बच्चों की खातिर उस माँ को छोड़कर चले गए जिसने उन्हें पाल-पोसकर बच्चे से बड़ा बनाया। आगे निकलकर गाँव के जाने-माने मराठा परिवार के यहाँ गया, वहाँ भी वही हाल था। और यही हाल गाँव के आरेकर परिवार का था। परिवार के मुखिया मनोहर मामा नहीं रहे थे। उनका बड़ा लड़का जगदीश का गाँव का सरपंच बन गया था। सोचा उससे मुलाकात हो जाएगी। लेकिन वो भी वापस शहर जा चुका था। वो शहर से कुछ घंटों के लिए रोज गाँव आता है। दिवाकर से प्रभाकर और अनिल से सुनील पक्या (प्रकाश ) से मन्या (मनोहर) सभी रोजी-रोटी और बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए शहर में बस गए थे।
अनु मावशी से मिला तो दिमाग खराब हो गया। हमेशा हंसते-खिलखिलाते रहने वाली अनु मावशी खटिया पकड़ चुकी है। उनका सबसे बड़ा लड़का अत्री भाऊ जरूर उनके बगल में मकान बनाकर रहता है। मगर वो बंटवारे से नाराज चल रहा है। वीणा वहिनी (भाभी) का भी यही हाल है। भाऊ का कहना है छोटे भाईयों की पढ़ाई के लिए उन्होंने पढ़ाई छोड़ी थी। और अब जब बंटवारा हुआ तो भी छोटों को मन पसंद खेत और मकान दे दिए गए। वे यहाँ बाड़े में आ गए हैं। दोनों के बारे में मावशी की राय ठीक नहीं थी। और प्रमोद और विनोद के बारे में तो और गलत।
पुराने दिनों को याद कर अनु मावशी रो पड़ी थी रोते-रोते ही उन्होंने एक कड़वा सच भी कह दिया। उन्होंने कहा कि गाँव अब बूढ़े लोगों का बसेरा हो गया है। जवानों को तो शहर की हवा लग गई है। हम लोग यहाँ पुराने ढह रहे मकानों की चौकीदारी करते आखिरी सांस का इंतजार कर रहे हैं। उनसे मिलकर लौटते समय अच्छा नहीं लग रहा था। नदी की ओर गया तो छोटे से स्टाप डेम ने नदी को भी गाँव की महिलाओं की तरह बूढ़ी बना दिया था। अमराईयां अचानक बबूल के जंगलों की तरह नज़र आने लगी थी। रेखा मावशी से मिलकर जब वापस लौटने लगा तो मन और खट्टा हो चला था। उनके बाड़े में बहुत सी दीवारें उठ गई थी। दीवारें जो सिर्फ घरों को ही नहीं दिलों को भी बांट चुकी थी। गाँव में अब बड़े-बड़े बाड़े नहीं रह गए। बाड़े तो क्या अब गोठान भी नहीं रहा। वहाँ गोधुली बेला में अब धूल नहीं उठती। गाय-बछड़ों के गले की घंटियाँ लाजवाब संगीत नहीं छेड़ती। अब उठता है ट्रक, ट्रैक्टर या बसों के आने के बाद धूल का गुबार और घंटियों के सुमधुर संगीत के बजाय सुनाई पड़ते हैं कर्कश हॉर्न। अब गाँव के ग्राम पंचायत का रेडियो भी नहीं बजता। लोग रात को विविध भारती या ऑल इंडिया रेडियो के गानों का इंतजार नहीं करते।अधिकांश घरों में टीवी आ गया है। इसलिए शाम होने के बाद लोग ग्राम पंचायत भवन में इकठ्ठा भी नहीं होते। गाँव के बदल जाने का सदमा लिए मैं वापस लौट रहा था। गाँव से शहर आने के रास्ते में अंबापुर वाले मारूति के दर्शन किए। वहाँ मुझे अपने सगे मामा अरविंद के बाल सखा सुरेश मानकर मिल गए। बाकी कसर उन्होंने पूरी कर दी। मैने पूछा मामा यहाँ? गाँव......... बीच में मेरी बात काटते हुए उन्होंने कहा गाँव में रखा ही क्या है भांजे? बस अब बजरंगबली की सेवा करता हूँ। ये अच्छा है, इसके पास न छल है न कपट। मैं हक्का-बक्का था। धीरे से पूछा गाँव के लोग कुछ बदले से नज़र आए। अपनी आदत के अनुसार उन्होंने जोरदार ठहाका लगाया और गाँव के बदलने का महत्वपूर्ण कारण भी बता दिया। उन्होंने कहा कि पंचायत के चुनावों के बाद गाँव में कई पार्टियाँ बन गई है। और बाकी कसर दारू ने पूरी कर दी। अच्छा है तुम लोग शहर में रहते हो ,वहीं रहो ज्यादा अच्छा है। गाँव में अब कुछ नहीं रखा है। उनकी बातें मेरे कानों में अब भी गूँज रही है। अब जबकि मैं लगभग साढ़े 4 सौ किलोमीटर दूर वापस रायपुर आ गया हूँ। मुझे लगता है कमोबेश यही हालत आज हर गांव की होती जा रही है।                          ये पुरानी पोस्ट है इसे मैने 15 जुलाई 2008 को अपने ननिहाल जाने के बाद लिखा था।अभी पांच दिनों की छुट्टी में भी मैं अपने गांव और ननिहाल गया था।गांव की हालत देख कर बहुत दुःख हुआ और कहने,लिखने के लिये बहुत कुछ नज़र आया पर ना जाने क्यों मुझे तीन साल पुरानी ये पोस्ट याद आ गई इसे दोबारा आपके सामने रख रहा हूं।अन्यथा ना लेंगे क्योंकि गांव से लौट कर बहुत कुछ लिखना चाह रहा था मगर हिम्मत जवाब दे गई।ये हमारे भारत देश की तस्वीर है जिसके बारे में स्कूल मे पढा करता थे कि भारत कृषिप्रधान देश है,ये गांवों मे बसता है।पता नही वो पढाई गलत थी या जो देख रहा हूं वो गलत है।

14 comments:

Khushdeep Sehgal said...

काश देश ने गांधी के ग्राम-स्वराज की धारणा को अपनाया होता...

वैसे शहरों में भी बुज़ुर्गों की हालत कोई ज़्यादा बेहंतर नहीं है...

जय हिंद...

डॉ महेश सिन्हा said...

आश्चर्य होता है कैसे इस देश में इतना अनाज पैदा होता है

Atul Shrivastava said...

अनिल भैया बहुत सही बात पकडी आपने।
भारत गांवों में बसता है। यह बात अब पुरानी हो चुकी है। गांवों से निकलकर लोग शहर की चकाचौंध में खोने लगे हैं। अब नौजवानों को खेतों में काम करना रास नहीं आता, शहर की किसी फैक्‍ट्री में अपना फेफडा गलाना उन्‍हें पसंद है।
आपकी एक और अच्‍छी पोस्‍ट।
समय निकाल कर मेरे ब्‍लाग पर आईए। एक ताजा पोस्‍ट आपके इंतजार में है।
http://atulshrivastavaa.blogspot.com/

Sanjeet Tripathi said...

आपका यह लिखा हुआ तब भी उतना ही कड़वा सच था जितना जी आज. ये हकीकत है हमारे समय की, जिस माटी ने हमें इतना कुछ दिया, हम उसकी कितनी कद्र कर रहे हैं, हम अपने अंतर्मन से ही पूछ लें... तस्वीर साफ़ हो जाएगी...

नीरज मुसाफ़िर said...

दूसरों को क्या कहें। हम खुद ही गांव छोडकर शहर में पडे हुए हैं। सबके साथ यही हो रहा है। आजकल की यह पीढी करे भी तो क्या। मजबूरी है।

दीपक 'मशाल' said...

Ye post jab bhi padhta hoon bhaia, lagta hai kuchh toot raha hai, dhah raha hai, sookh raha hai andar kuchh...... ajeeb si ghutan paida hoti hai. sawaalon ki deewaren kaam ke aade aakar khadi ho poochhne lagti hain. kya kar rahe ho? kyon kar rahe ho? kiske liye kar rahe ho? pata nahin ye saturation ko darshata hai ya depression ko.

Rahul Singh said...

सच्‍ची तसवीर. यह भी जोड़ना चाहूंगा कि शहर के पुराने हिस्‍से के घर भी अब बुजुर्गों के हवाले हैं और अधिकतर बच्‍चे शहर के दूसरे हिस्‍से में अलग नई कालोनी, फ्लैट या सरकारी क्‍वार्टर में रह रहे हैं.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बढ़िया संस्मरण!

प्रवीण पाण्डेय said...

विकास और संसाधन शहरों में ही रख दिये हैं, गाँव त्यक्त हैं।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

aapke mamaji ne panchayati aaj ki asaliyat bayaan kar di...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

यह तो होना ही है :(

Smart Indian said...

सच है कि आज की पीढी पहले से कहीं अधिक मोबाइल है लेकिन भारत के अनेकों क्षेत्रों और समुदायों के लिये यह नई बात नहीं है। ऐसे परिवारों के युवा तो पीढियों से रोज़गार की तलाश में बाहर जाते रहे हैं, बुज़ुर्गों को अकेला छोडकर। मेरी कहानी "अनुरागी मन" में ऐसी ही एक नगरी की चर्चा है:

यहाँ पर ज़िन्दगी मानो ज़िन्दगी से थककर विश्राम करने आती थी। अधिकांश घरों के युवा बेटे-बेटी पढ़ने-लिखने या दो जून की रोटियाँ कमाने के उद्देश्य से देश भर के बड़े नगरों की ओर निकले हुए थे। कुछेक नौजवान देशरक्षा का प्रण लेकर दुर्गम वनों और अजेय पर्वतों में डटे हुए थे।
...
गर्मियों की छुट्टियों में हम जैसे प्रवासी पक्षी भी लगभग हर घर में दिख जाते थे। तो भी यदि मैं कहूँ कि कुल मिलाकर विरामपुरे में केवल रजतकेशी सेवानिवृत्त ही नियमित दिखते थे तो शायद गलत न होगा

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बिल्कुल यही हो रहा है.....

शरद कोकास said...

अनिल भाई , यह हमारा अतीत के प्रति सम्मोहन है । जब हम अपने अवचेतन मे बसे गाँव से वर्तमान गाँव की तुलना करते हैं तो हमे वह कुछ नज़र नही आता जिसे हम पीछे छोड आये हैं > गाँव ही नही शहर जैसे कस्बों के भी यही हाल हैं । मै जब अपने बचपन के गाँव भंडारा जाता हूँ तो , गलियों में भटकता रहता हूँ और उन दृश्यों को ढूँढता रहता हूँ जिनका मैं साक्षी रहा । वहाँ वैसा कुछ नहीं दिखाई देता । मुझे भी बहुत तकलीफ होती है । लेकिन क्या कर सकते हैं इस आधुनिकता ने सब कुछ खत्म कर डाला । और अब वह दोबारा आ भी नही सकता । मुश्किल तो यह है कि अभी जो बच्चे हैं उनके बडे होने के बाद उनके पास अपने बचपन के क्या चित्र होंगे ?