Thursday, October 27, 2011

दिया तले अंधेरा नही,दीवाली तले दरिद्री

दीवाली आई और चली भी गई।कल मैने देखा मां लक्ष्मी का जलवा।चारो ओर जगमग-जगमग करता ऐश्वर्य।लगातार धमाको के साथ अपने साम्राज्य का एह्सास कराता धन।सुख-शांति और संतुष्टी स्वादों की इन्द्रधनुषी छ्टा  हर ओर पसरी हूई मिली।अमावस की रात को भी दिखावे की रौशनी आसमान पर रह रह कर अट्ट्खेलिया कर अंधेरे का उपहास उड़ा रही थी।खुशियां अट्टहास कर रही थी चारो ओर्।हर कोई खुश,कंही कोई मायूसी नही।महंगाई का तो जैसे अता-पता ही नही था।ऐसा लगा लोग बेवजह मनमोहन सिंह और यूपीये सरकार को गालियां देते है।हर तरफ़ अमीरी का जलवा।साली महंगाई,गरीबी तो कंही नज़र ही नही आई।धन-समृद्धी का ऐसा प्रदर्शन देखा तो मन मस्त हो गया।पता नही कब घर लौटा और सो गया।थोड़ी ही देर में लगा कि कोई जगाने की कोशिश कर रहा है।घबरा कर ऊठा तो देखा बड़ा सा मनहूस सन्नाटा पसरा हुआ था घर में।अपने ज़माने में किसी बड़े नेता के टपक जाने के बाद रेडियो और टीवी पर वायलिन की ओई उदास धुन याद आ गई मुझे।मैने देखा तो चमक गया पास ही में एक मैली-कुचली,मरियल सी औरत खड़ी थी।मैं घबरा गया तो उसने कहा कि घबराओ मत तुम मुझे ढूंढ रहे थे ना?,मेरी तो सिट्टीपिट्टी गुम हो गई थी।मैने फ़िर सोचा साला ज्यादा तो नही लगा लिया था।उसने फ़िर कहा कि मैं तुम्हे कल नज़र नही आ सकती थी इसलिये आज आई हूं।मेरा समय अब शुरू हुआ है।मैने कहा समय,मैं समझा नही।उसने कहा बेटा कल रात तुम अपनी शानदार कार में शहर का बेमतलब चक्कर काटते समय नही बड़बड़ा रहे थे क्या?कंहा गरीबी?हर ओर तो अमीरी ही अमीरी नज़र आ रही है।मुझे कुछ-कुछ खयाल आया कि हां कल शायद ऐसा ही कुछ हुआ तो था।मैंने धीरे से सिर हिलाकार कहा कि हां,ढूंढ तो रहा था,पर ……………।उसने मेरी बात काट कर कहा कि मैं ही गरीबी हूं,दरिद्रता भी कह सकते हो।मैं घबरा गया और लगभग चिल्ला कर कहा तो मेरे पास क्यों आ गई मेरी मां।उसने कहा क्यों बड़ा डर लग रहा है?कल तो घन-दौलत के नशे में चूर होकर मुझे ढूंढने निकल पड़े थे?मैने कहा गलती हो गई मेरी मां।मुझे माफ़ कर दो? और ………………………। और क्या यंहा से निकल लो,यही ना,उसने मेरी बात काट कर कहा।मेरी तो घिग्घी बंध गई।उसने कहा बेटा घबरा मत।मैं यंहा रहने नही आई हूं।रहने तो वो तो आती है बस एक दिन के लिये?मैने पूछा वो कौन?वो ज़ोर से हंसी वही जिसे तुम लोग मां कहते हो।मां…मां का मतलब जान्ते भी हो तुम लोग।अरे मां तो मैं हूं।मेरी गोद में पता नही कितने लोग पलते हैं।वे लोग भी जिन्हे तुम्हारे मां के चाहने वाले शौक पूरा हो जाने पर या गलती हो जाने पर फ़ेंक  देते हो।जो अपने बच्चों को लोक-लाज़ से डर कर फ़ेंक रही है वो मां और जो बिना लाज-शरम के किसी को भी पाल रही वो मां नही है?क्या यही है तुम लोगों के पढे लिखे होने का सबूत्।मेरी नज़रे नीची थी।उसने कहा बेटा मैं तुझे किसी दिन फ़ुरसत में बताऊंगी की मां क्या होती है?फ़िलहाल तो मुझे जाना है तेरी मैया का टाईम खतम हो चुका है।वो निकल ली होगी अगले साल तक़ के लिये टाटा करके।आज से मेरा समय शुरू।दिन निकलते ही चारो ओर मैं ही मैं नज़र आऊंगी।तुम लोगों की रात की झूटी प्लेटे धोते हुये,और अगर नही तो दुनिया भर की गालियां खाऊंगी इसिलिये कहते हैं गरीबो पर दया नही दिखाना चाहिये।कल ही मैंने उसे बचा हुआ पूरा खाना भी दिया था लेकिन देखो आई नही अभी तक़्।सड़को पर तुम्हारे रंगबिरंगे कपड़ो में सज़े-धज़े राजकुमारो के फ़ोड़े हुये पटाखों के कचरे में अपनी मुट्ठी बहर खुशी ढूंढते नज़र आ जायेंगे मैले कुचले बच्चे।सुबह से ही मांगने वाले तुम्हारे लोगों के पाप का एकाऊंट कम करने और पुण्य का खाता बढाने के लिये आ जायेंगे।प्लेटो में कल्चर के नाम पर छोड़ी गई झूटन में स्वाद का मज़ा लेने।मेरे कान गरम हो गये थे।मुझे कुछ सूझ नही रहा था।मैने कहा बस करिये।उसने कहा बस कंहा बेटा अभी तो शुरूआत है।तू तो कह रहा था कि इसे कहते है अमीरी का जलवा।बस एक दिन का?और अब साल भर दीवाली मनाने के लिये लिये गये एडवांस और लोन को पटाते समय का तनाव,चिख-चिख।दिखावे को ही सच नही मान लेते बेटा।मैं तो सरेंडर हो गया था।उसने कहा गरीबी देखना था तो चमचमती कार मे साफ़-सुथरी सड़को पर नही गलियों में,झुग्गी-झोपडियों में,रेलवे प्लेटफ़ार्म पर सरकारी अस्पतालों ही झांक लेता?मैने हार कर कहा मुझसे गलती हो गई।उसने कहा चल तुझे माफ़ तो कर रही हूं मगर इस शर्त पर कि तू सबको बतायेगा,कि दीवाली सिर्फ़ एक दिन की होती है,बाकी के दिन गरीबी का ही राज रहता है।जैसे दिया तले अंधेरा वैसे ही दीवाली के बाद दरीद्री।समझा।मैने सिर हिलाया।उसने जाते-जाते कहा कि तुम लोग अपनी मैया वाली डेफ़िनेशन पर भी ज़रा खयाल करना।चल्ती हूं ,कभी फ़ुरसर में आकर तुझसे चर्चा करूंगी।

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मँहगाई को धता बताता हुआ एक दिन का आनन्द।

अनूप शुक्ल said...

दीवाली सिर्फ़ एक दिन की होती है,बाकी के दिन गरीबी का ही राज रहता है।जैसे दिया तले अंधेरा वैसे ही दीवाली के बाद दरीद्री।

इसी से बड़ा खराब लगता है! :(

संगीता पुरी said...

सड़को पर तुम्हारे रंगबिरंगे कपड़ो में सज़े-धज़े राजकुमारो के फ़ोड़े हुये पटाखों के कचरे में अपनी मुट्ठी बहर खुशी ढूंढते नज़र आ जायेंगे मैले कुचले बच्चे।
सच है !!

Atul Shrivastava said...

सब अपनी अपनी हैसियत के मुताबिक त्‍यौहार की खुशियां मना ही लेते है.....

DUSK-DRIZZLE said...

EKDAM SAHI LIKHA HAI APNE