Sunday, January 8, 2012

सड़क़ पर आम आदमी की बलि लेने वाले रईसजादों को जमानत मिल जाती है,क्या उन्हे कठोर सज़ा नही होनी चाहिये?

एक रईसज़ादे ने नशे में धुत्त होकर एक आटो रिक्शा को ठोकर मार कर उसके चालक/मालक की जान ले ली।रईसज़ादों का सड़क पर आम आदमियों की बलि लेने का ये पहला मामला नही है।हर बार हाय तौबा मचती है और फ़िर सब अपने काम-धंधे से लग जाते हैं।इस बार रईसज़ादो की रफ़्तार की शौक का बलि चढा ललित अपने घर परिवार का एकलौता कमाऊ सदस्य था।अब उसके पीछे अनाथ छुट गये है आठ साल और सवा माह के दो बच्चे बेवा पत्नी,बुढे आंखो से नही देख पाने वाले पिता।अब उस परिवार की देख-रेख कौन करेगा?लालन-पालन कौन करेगा?ये सवाल सिर्फ़ उस परिवार के लोगों का रह गया है जबकि उनकी कोई गलती नही है।गलती करने वाला हरामखोर कानूनी दांव-पेंच का इस्तेमाल करेगा और अंग्रेज़ो के ज़माने के बने मोटरयान कानून की कमज़ोरी का फ़ायदा लेकर तत्काल ज़मानत पर रिहा हो जायेगा।सज़ा भी इसमे बहुत ज्यादा नही है।सालों से ऐसे मामले हो रहे हैं,मगर उस कमज़ोर कानून को बदलने या उसमे संशोधन की बात कभी नही ऊठती।ना किसी नेता के पास फ़ुरसत है और नाही समाचारों के ठेकेदार इस विषय पर बहस करवाते हैं।सवाल ये है कि क्या एक आदमी का बेमौत मारा जाना और उसे मौत के घाट उतारने वाले का जमानत पर रिहा हो जाना,न्यायसंगत लगता है?क्या उस नशेडी रईसजादे को उसके किये की सज़ा नही मिलनी चाहिये?सालों,सालों क्या दशको पहले इसी विषय पर एक फ़िल्म बनी थी दुश्मन।उस फ़िल्म में दोषी ट्रक चालक को मृतक के परिवार के साथ रहने की सज़ा मिलती है।क्या वैसा ही कुछ उस रईसज़ादे के साथ नही होना चहिये?ललित के परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उस पर डालनी नही चाहिये?क्या मोटर व्हीकल एक्ट में संशोधन नही होना चाहिये?क्या रफ़्तार और नशे की बलि चढाने वालो पर सज़ा का खौफ़ नही होना चाहिये?पता नही इस देश में क्या जरूरी है और क्या नही?संविधान में अपनी सुविधाओं के हिसाब से पता नही कितने संशोधन हो गये है मगर कानून उसकी हालत भी लोकपाल जैसी ही है।

6 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

दिल्ली में दो दो सरकारों की नाक के नीचे बाइकर्स परेशान किए हुए हैं। इलाज कहाँ है?

Atul Shrivastava said...

हर सडक हादसे के बाद इस तरह के सवाल सामने आते हैं पर इस पर अब तक मौन पसरा हुआ है......

गंभीर विषय, ध्‍यान अपेक्षित।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

यहाँ तो कुएँ में भाँग पड़ी है!
नक्कारखाने में तूतू की आवाज कोई नहीं सुनता!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

RITU BANSAL said...

सड़क हादसों में न जाने कितने लोग अपनी जान गँवा देते हैं..
इसमें काफी हद तक सड़क शिष्टाचार का सही ज्ञान न होना ,जिम्मेवार है..
kalamdaan.blogspot.com

रेखा said...

पाता नहीं सरकार कोई कठोर कदम क्यों नहीं उठा रही है ....?,साथक आलेख

Pratik Maheshwari said...

आपके इस पोस्ट के शीर्षक को देख कर मुझे भी वही फिल्म की कहानी याद आ गयी जिसमें मुजरिम को उस परिवार के साथ रहकर या फिर शायद उल्टा, पीड़ित को अमीर साहबजादे के घर रहकर न्याय मिलता है..
बहुत ही बड़ी विडम्बना है कि आज भी देश में ऐसे क़ानून को जगह दी गयी है जिनका आज के समय और समाज में कोई भी योगदान नहीं है.. प्रणाली को भीतर से जब तक नहीं बदला जाएगा एक आम आदमी त्रस्त ही रहेगा..

प्यार में फर्क पर अपने विचार ज़रूर दें...