बस्तर में नेताओं पर नक्सली हमले के बाद उमडी नेशनल मीडिया कि रिपोर्ट्स की भीड में एनडीटीवी के हृदयेश जोशी की एक रिपोर्ट ने मेरा ध्यान खींचा.उन्होने बडी ईमानदारी से स्वीकार किया कि सुदूर बस्तर की बहुत सी खबरे नेशनल मीडिया में जगह नही बना पाती.मैं सौ प्रतिशत सहमत हूं उनसे और इसी विषय पर अपने साथियों के साथ हुई चर्चा के बाद 23 अगस्त 2009 को लिखी एक पुरानी पोस्ट यंहा शेयर कर रहा हूं,जस की तस.शीर्षक था"भैया ये नेशनल न्यूज़ क्या होती है" .........................कल कुछ नये जूझारू पत्रकारो ने मुझे घेरा और पूछा,भैया ये नेशनल न्यूज़ क्या होती है?मैंने विषय को टालने की गरज़ से कहा की जिस खबर को बड़े-बड़े शहर के बड़े-बड़े लोग, देखे उस पर विचार करे, बहस करें और जिसे सिर्फ़ बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल ही दिखाये वो ही नेशनल न्यूज़ होती है।तो अपने छत्तीसगढ मे जो कुछ भी होगा वो लोकल?मैने कहा अब छोड़ो भी ये लोकल-नेशनल का चक्कर मामला क्या है ये बताओ?
एक ने कहा कि नक्सली क्षेत्र मे काम के तनाव से परेशान एक सिपाही ने अपने ही दो साथियों की हत्या करके खुदकुशी कर ली?क्या ये गंभीर विषय नही है क्या ये ऐसे क्षेत्रों मे कार्यरत फ़ोर्स की मनोदशा को नही दर्शाता?क्या इस मसले पर विचार नही होना चाहिये?क्या ये बहस का मुद्दा नही है?क्या ये फ़ोर्स की कार्यप्रणाली मे सुधार की आवश्यकता के संकेत नही देता?
कुछ देर तक़ मैं खामोश सोचता ही रहा,फ़िर उनसे कहा सबकी अपनी-अपनी भुमिका है और सब जैसा बन पड रहा है काम कर रहे हैं।ये बात सच है कि कल कथित नेशनल न्यूज़ चैनलो ने इसे महज पट्टी पर चला कर ज़िम्मेदारी पूरी कर ली मगर ये खबर वाकई महत्वपूर्ण है।बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाके मे ये पहला मौका नही है।अब तक़ वंहा दो दर्ज़न से ज्यादा जवानों ने आत्मह्त्या की है और उनमे एक आई पी एस अफ़सर भी शामील है,जो उस समय एस पी के रूप मे पदस्थ थे।
इतनी आत्महत्यायें कंही न कंही उस क्षेत्र मे काम करने वाले के मन मे लगातार तैनाती और छूट्टी नही मिलने से तनावग्रस्त होने का पुख्ता सबूत है।इस मामले मे गंभीर फ़ैसले लेने चाहिये और कम से कम उनकी छु्ट्टियां तो सुनिश्चित हो जानी चाहिये।असुरक्षा के भाव भी जिस तरह से पनप रहे है उनके कारणो को जानने की पहल होना चाहिये ।
तो फ़िर क्यों नही बनी ये नेशनल या बड़ी खबर?एक ने फ़िर पूछा।मैने हथियार डालना ही अच्छा समझा और कहा कि तुम लोग जो कहना चाह रहे हो वो मै समझ रहा हूं लेकिन क्या किया जा सकता है?उनकी भी अपनी विवशता है,प्राथमिकतायें है,प्रतिस्पर्धा है।और मंदी के इस कठिन दौर मे बाज़ार मे टिके रहने की चुनौती भी है।यंहा से ढाई सौ किलोमीटर दुर कोंडागांव थाने मे पदस्थ सीएएफ़ के हवलदार ने किन परिस्थियों मे अपने प्लाटून को और एक और जवान को गोली मार कर मौत के घाट उतारा और खुद फ़ांसी पर लटक गया,ये घट्ना उन लोगो के हिसाब से शायद एक टीवी आर्टिस्ट द्वारा एक बच्ची को पीटने की खबर से कम भीड़ खींचने वाली होगी।वैसे एक बात मै बता दूं जंहा-जंहा देश के इन नये ठेकेदार न्यूज़ चैनल वालों का प्रतिनिधि तैनात है वंहा की सड़ी से सड़ी खबर भी नेशनल है और जंहा इनका प्रतिनिधि नहो वहा की बड़ी से बड़ी खबर भी लोकल है।समझ गये ना।बाकी डिटेल मे कभी फ़ुरसत मे बात कर लेंगे,ठीक है।
2 comments:
यह सम्वेदनहीनता की पराकाष्ठा को दर्शाता है.
ये ख़बरें संभवत: आईपीएल की तरह दर्शकों को आकर्षित नहीं करती होंगी।
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