Sunday, May 30, 2010

ज़िंदगी के लिये मौत की छलांग!

ज़िंदगी के लिये मौत की छलांग!जी हां ये सच है और उस छलांग की कीमत भी कितनी?आप कल्पना भी नही कर सकते कि इंसान की ज़िंदगी इतनी सस्ती है।महज़ कुछ सौ रूपये,बस।एक छ्लांग के लिये इतना और छलांग सही हुई तो दूसरी छलांग की तैयारी और अगर एक बार भी चूक हुई तो फ़िर भगवान ही मालिक है।महंगाई के इस दौर मे जब हर चीज़ रोज़ और महंगी होती जा रही है,लगता है कि इंसान की ज़िंदगी सस्ती हो रही है।अगर ऐसा नही होता तो यंहा का मंगल सिंह आज़ाद मात्र पंद्रह हज़ार रूपये मे चालीस दिन के लिये मौत की छलांग लगाने का ठेका नही लेता। पंद्रह हज़ार मे चालीस दिन और एक रात मे दो छलांग।यानी हिसाब लगाया जाये तो 187रू 50 पैसे प्रति छलांग।छ्लांग भी मौत की,चुके तो सच मे मौत और छलांग किसलिये,ज़िंदगी के लिये।
बहुत दिनो बाद मीनाबाज़ार का नाम सुना।आजकल ये सुनाई ही नही आता।उसकी जगह ले ली है फ़न वर्ल्ड,फ़न पार्क,फ़न गेम्स,फ़न फ़ेयर और जाने क्या-कया।आधुनिकतम झूलों और तकनीक के सामने परंपरागत मीनाबाज़ार शायद गुम हो रहे हैं।खैर मीनाबाज़ार का नाम सुनते ही मौत की छलांग भी याद आ गई।मैने पुछवाया क्या इस मीना बाज़ार मे मौत की छलांग का प्रोग्राम है।पता चला है।मैने उस पर स्टोरी बनाने के लिये एक जूनियर को कहा और दो-तीन दिन तक खुद गया लेकिन छलांग हो नही पाई,कारण कुयें मे पानी टिक नही रहा था।रिपेयरिंग के बाद छ्लांग हुई।

सत्तर फ़ीट ऊंची एक दम सीधी सीढी पर चढकर शरीर पर आग लगा कर नीचे बने मात्र दस फ़ीट चौडे कुयें मे कूदना सच मे मौत की छलांग ही है।ज़रा सा चुके और खेल खतम।मंगल सिंह आज़ाद अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ यंहा रहता है।वो इस खेल का पुराना महारथी है।जब ये खेल बंद सा हो गया है तो अपनी ज़िंदगी की गाडी जैसे-तैसे खींच रहा था।अचानक उसे ये करतब दिखाने का मौका मिला तो वो ना नही कर सका और लगा दी उसने अपनी ज़िंदगी दो सौ रूपये प्रति छलांग के हिसाब से दांव पर्।जब उसका इंटरव्यूह का प्रसारण लोकल केबल न्यूज़ पर किया तो वो स्टूडियो आया और भावुक हो गया।खैर ज़िंदगी को दांव पर लगाने की क्या मज़बूरी होगी ये तो सवाल मेरे सामने था ही एक और सवाल सामने था क्या सच मे इंसान की ज़िंदगी इतनी सस्ती है?

24 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मंगल सिंह आज़ाद का ये अपनी ज़िंदगी को जीने का जरिया है....सच ही कहा आज ज़िंदगी बहुत सस्ती हो गयी है.....यहाँ तो मौत के कुएं में छलांग इस लिए लगायी जा रही है जिससे जी सकें....पर जो लोग आत्महत्या कर लेते हैं ज़िंदगी से परेशान हो कर...

आपके इस लेख से याद आया कि १९६४ में मेरठ में एक मेले में देखा था ये करिश्मा ..आज तक रोंगटे खड़े हो जाते हैं सोच कर ...

मनोज कुमार said...

ज़िंदगी को दांव पर लगाने की क्या मज़बूरी होगी ये तो सवाल सामने है ही एक और सवाल सामने है क्या सच मे इंसान की ज़िंदगी इतनी सस्ती है?

Gyan Darpan said...

सच कहा आपने आज इस महंगाई के दौर में यदि कुछ सस्ती है तो वह इंसान की जान ही है जिसकी कोई कीमत नहीं |

डॉ टी एस दराल said...

देश में इतनी अधिक आबादी , गरीबी , महंगाई और बेरोज़गारी है कि कोई भी कुछ भी करने को तैयार हो जाता है ।
बेशक मंगल सिंह को इसमें माहरत हासिल है , लेकिन ज़रा सी चूक मौत तो बन ही सकती है ।

डॉ महेश सिन्हा said...

जो चीज बहुतायत में पायी जाती है वह सस्ती होती है.
वैश्वीकरण की देन

Unknown said...

एक जमाने में लोगों के लिये मीनाबाजार में "मौत की छलाँग" बहुत बड़ा आकर्षण हुआ करता था। अब जमाना बदल गया और वह आकर्षण समाप्त हो गया। मुझे तो यही सुनकर आश्चर्य हो रहा है कि आज भी मौत कि छलाँग लगाने वाला है। प्रति छलाँग की कीमत दो सौ रुपये से भी कम होना तो शोषण है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

सबसे बड़ा मुद्दा मंहगाई है, जिसके लिये सरकार जिम्मेदार है, आदमी करे भी तो करे क्या...

योगेन्द्र मौदगिल said...

desh ke karndhar doob kyon nahi marte in stithiyon par....

Arvind Mishra said...

हैरतंगेज -जिजीविषा को सलाम और आपका आभार !

कडुवासच said...

... ये सब बाजीगर हैं!!!

Manish Kumar said...

"इस दौर मे जब हर चीज़ रोज़ और महंगी होती जा रही है,लगता है कि इंसान की ज़िंदगी सस्ती हो रही है।"

सही कहा आपने...

Alpana Verma said...

यह कूद इस व्यक्ति की मजबूरी रही , हर बार जान हथेली पर रखना आसान नहीं होता ..कुशल खिलाड़ी भी मात खा जाते हैं.
आज कल इसी तरह की एक कूद 'बंजी जंप '..पैसे दे कर बकायदा मेडिकल टेस्ट करवा कर सिर्फ रोमांच के लिए की जाती है!
वर्ना Giant व्हील में सब से ऊपर जब उसे कुछ पल के लिए रोक लिया जाता है तब सारे भगवान याद आ जाते हैं..और दिल डूबने लगता है...
**मजबूरी में ऐसे खेल दिखने वालों के भी दिल जिगर होते हैं लेकिन मजबूरी उन्हें फोलाद बना देती है.वर्ना विकल्प रहे तो कौन रोज़ रोज़ मारना चाहेगा?
**बेशक इंसान की ज़िंदगी आज बहुत सस्ती है.

राज भाटिय़ा said...

पेट क्या कुछ नही करवाता, इस लेख को पढ कर बहुत कुछ सोचने पर मजबुर होना पडता है

shikha varshney said...

Paapi Pet ka sawal hai..

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

अब कोई और चारा भी कहां रहा होगा इसके पास सिवा ज़िन्दगी को यूं रोज़ दो सौ रूपये में ख़र्च कर देने के सिवा.

Udan Tashtari said...

दो वक्त की रोटी इन्सान से जो न करवा ले..क्या क्या करने को मजबूर है इन्सान!!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

सच कहा आपने आज इस महंगाई के दौर में यदि कुछ सस्ती है तो वह इंसान की जान ही है जिसकी कोई कीमत नहीं |

दीपक 'मशाल' said...

उम्र भर तरसा था दाने-दाने को वो.. अब मज़ार पर उसकी पैसे चढाते हैं लोग.. जाने कब लोग जिन्दगी की कीमत समझ पायेंगे.

Khushdeep Sehgal said...

दीपक मशाल की बात से सहमत...

मंगल सिंह आज़ाद जैसा कोई स्टंटमैन हॉलीवुड मे ये कारनामा कर रहा होता तो लाखों में खेल रहा होता...

जय हिंद...

GOURAV SHARMA "BHARTIYA" said...

गरीब की जिन्दगी सच में बड़ी सस्ती है , इससे दूर कहाँ मौत की बस्ती है !!
निर्धन के जान की कहीं न कोई कीमत है , और जिन्दगी यहाँ हरदम मौत को टक्कर देती है !!
आपने बहुत ही मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किया है, धन्यवाद और अशेष सुभकामनाएँ........

Anita kumar said...

दुख तो इस बात का है कि इंसान की जिंदगी की कीमत लगाने वाला कोई और नहीं दूसरा इंसान ही है।

आचार्य उदय said...

वत्स
सफ़ल ब्लागर है।
आशीर्वाद
आचार्य जी

शरद कोकास said...

भिलाई मे अस्सी और नब्बे के दशक मे यह मौत की छलांग नामक खेल हुआ करता था | मै उन दिनो रोज़ इसे देखने जाया करता था और एक दिन मैने उस जांबाज़ से बात भी की थी ॥मैं सोचता था कि अब यह खेल बन्द हो गया होगा लेकिन आज पता चला कि ऐसे आज़ाद अभी ज़िन्दा है | ऐसे लोगों को जो रोटी के लिये खतरों से खेलते है ज़रूर रेखान्कित किया जाना चाहिये । मुझे बहुत खुशी हुई अनिल यह देखकर । आप इसके लिये साधुवाद के पात्र है ।

अनूप शुक्ल said...

यह विडम्बना ही है कि ऐसे काम करके लोगों को पेट पालने पड़ रहे हैं।