Thursday, May 29, 2008

सरकार के अस्पताल मर रहें हैं

हीरे से लेकर कोयला, चूना पत्थर और लौह खदानों से अटे छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य ही कहा जाये तो ठीक होगा कि यहां के सरकारी अस्पतालों को ही ख़ुद इलाज की जरूरत है। गरीब मरीज तो वैसे भी भगवान भरोसे रहता है और यहां के सरकारी अस्पतालों में भर्ती होने के बाद तो लगता है कि भगवान भी उसका साथ छोड़ देता है । विशेषज्ञ डॉक्टरों के अधिकांश पद खाली पड़े है। संविदा पर नियुक्तियां हो रही है। पूरे प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में एक भी न्यूरोसर्जन नहीं है जबकि यहां दुर्घटनाओं में सालभर में 3000 से ज्यादा लोग जान गंवा देते है। राजधानी के सबसे बड़े डॉक्टर आम्बेडकर अस्पताल में डायलिसिस तक की सुविधा उपलब्ध नहीं है।

कहने को राज्य सरकार बड़े-बड़े दावे कर सकती है। 2007-08 में सरकार ने स्वास्थ्य विभाग के लिये बजट में ६६९.26 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा है। भाजपा की रमन सरकार ने प्रदेश में 7 नये जिला अस्पताल, 202 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, १७ सी.एच.सी. 874 उपस्वास्थ्य केन्द्र खोले है। रमन सरकार ने अपना बजट जोगी सरकार के 235 करोड़ की तुलना में लगभग तीन गुना बढ़ा दिया लेकिन इसके बावजूद राज्य के सरकारी अस्पतालों की सेहत में कोई सुधार नहीं आ पाया है। सरकारी अस्पताल में इलाज कराने वाले एक मरीज के खाने पर सरकार सिर्फ 16 रूपये खर्च करती है। 16 रूपये में दो समय का खाना कैसा दिया जाता होगा इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।

तहसील, छोटे जिलों के सरकारी अस्पताल की तो बात करना ही बेकार है प्रदेश की राजधानी के सरकारी अस्पताल की ही हालत खस्ता है। ये बात जरूर है कि जब पब्लिसिटी पाने का मौका मिला तो इसी सात सौ बिस्तर वाले सरकारी आम्बेडकर अस्पताल में स्यामी जुड़वा बच्चों का सफल आपरेशन किया गया लेकिन गांव देहात (कसडोल विधानसभा) से आई दो साल की अबोध बच्ची को अस्पताल के मानसेवी डॉक्टर ने अपने निजी अस्पताल में ऑपरेशन कराने के लिये भेज दिया। निजी अस्पताल में हजारों रूपयों का खर्च उठाने में असमर्थ गरीब परिजनों ने क्षेत्र के विधायक राजकमल सिंघानिया से संपर्क किया तो उन्होंने सरकारी अस्पताल में धरना दे दिया। विधायक के धरना देने के बाद मस्तिष्क रोग से पीड़ित बच्ची को दोबारा भर्ती किया गया। भर्ती करने के हफ्तों बाद आपरेशन किया गया। बच्ची की हालत गंभीर बनी हुई है। बच्ची तकदीर वाली थी कि उसके लिए विधायक ने धरना दे दिया और जिनकी पहुँच विधायक, मंत्री तक नहीं है उन गरीब मरीजों का तो भगवान ही मालिक है। ये हाल है राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल का।
डायलिसिस की सुविधा सालभर से बंद है। मशीन रिनल आईसीयू में धूल खाते पड़ी है लेकिन मरीजों की भर्ती बदस्तूर जारी है। डायलिसिस के जरूरतमंद मरीजों को भर्ती कर कुछ दिन अस्पताल में रखकर निजी अस्पतालों का रास्ता दिखा दिया जाता है। नेफ्रोलाजी यूनिट में अब तक मात्र 27 मरीजों का ही डायलिसिस हो पाया है। किडनी के मरीजों को तत्काल चिकित्सा दे पाने में असमर्थ अस्पताल उन्हें भर्ती करके उनकी बीमारी ठीक करने के बजाए कुछ और बढ़ा देता है।

सबसे बुरा हाल तो बर्न यूनिट का है। 'बर्न यूनिट' की हालत देखकर तो ऐसा लगता है कि उसे चलाने से अच्छा 'बर्न' कर देना चाहिए। मई-जून के महिनों 40-45 डिग्री सेल्सियस तक गर्म रहने वाली राजधानी रायपुर में बर्न यूनिट के मरीज जलन और गर्मी से बेहाल रहते है। एअरकंडीशनर तो दूर कुलर और पंखे तक की यूनिट में ठीकठाक व्यवस्था नहीं है। पंखे-कुलर की व्यवस्था करने के लिए मरीज के परिजनों से कहा जाता है और शिकायत करने वालों को बाहर का रास्ता दिखा दिखा दिया जाता है।

सबसे दुर्भाग्यजनक बात यह है कि पूरे प्रदेश में डॉक्टरों के सैकड़ों पद खाली पड़े है। हालांकि रमन सिंह की सरकार ने चिकित्सकविहीन अस्पतालों में 292 डॉक्टरों की संविदा नियुक्ति की है। ये आंकड़ा खुद बता देता है कि यहां बिना डॉक्टरों वाले अस्पताल चल रहें है। पी.एस.सी. के माध्यम से भी 449 डॉक्टरों की नियुक्ति की गई लेकिन अभी भी सैकड़ों पद खाली पड़े है। पूरे प्रदेश में एक भी न्यूरोसर्जन सरकारी अस्पताल में पदस्थ नहीं है। जबकि केन्द्र सरकार का प्रस्ताव था कि सड़क दुर्घटनाओं में घायलों को तुरंत चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिये हाइवे पर स्थित अस्पतालों में 'ट्रामा यूनिट' खोलें जाए।

गरीब मरीजों को सरकारी अस्पताल में दवाईयां मिल पाना उतना ही कठिन है जितना प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में डॉक्टरों का मिलना। महंगी दवाईयां खरीदने के लिये अगर गरीब के पास पैसे रहे तो वह सरकारी अस्पताल का मुंह ही न देखें। इस बात को जानते हुए भी सरकारी अस्पताल में इलाज के लिये आने वाले मरीज को बाहर से दवाई खरीदने के लिये मजबूर कर दिया जाता है।कुलमिला कर देखा जाए तो अस्पताल में भर्ती मरीजों से ज्यादा बीमार राज्य के सरकारी अस्पताल लगते है और राज्य की राजधानी के सरकारी अस्पताल को देखों तो ऐसा लगता है कि वो अगले ही पल बोल पड़ेगा कि मैं खुद मर रहा हुँ दूसरो को क्या जिंदगी दे पाऊंगा।

2 comments:

डॉ .अनुराग said...

कबसे मरे पड़े है साहब ....अब तो बस किस्तों मे जीते है......

Sanjeet Tripathi said...

:)