समझ में नहीं आ रहा है कि छत्तीसगढ़ का मध्यप्रदेश से अलग होकर राज्य बनना उसका सौभाग्य है या दुर्भाग्य। रोज घोटालें हो रहें है और उनकी जांच भी। दोषियों का पता भी चल रहा है लेकिन कार्यवाही शून्य है। इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात क्या होगी कि अस्पतालों की मशीनों की खरीदी में भी घोटालें हो रहें है। 25 करोड़ रूपयों की कलर डॉपलर, माइक्रोस्कोप, आपरेशन थियेटर और आईसीयू में काम आने वाले उपकरण ब्रांडेड कंपनी का लेबल लगाकर सप्लाई कर दिये गए। इस बात की जांच में पुष्टि भी हो गई लेकिन आजतक धोखाधड़ी के मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हो पाई।
अब जब मशीनें ही नकली हो तो उससे होने वाली जांच कैसी होगी या उन उपकरणों से होने वाला इलाज कैसा होगा! शर्म भी आती है और गुस्सा भी। चांदी के चंद सिक्कों के लिये इंसान की जिंदगी दांव पर लगाने वालों का कुछ नहीं बिगड़ पा रहा है। एक निकम्मी सरकार है जो सिर्फ जांच कर सकती है और कुछ नहीं। दूसरी नपुंसक पुलिस है जो अपराध तो दर्ज कर सकती है पर गिरफ्तारी नहीं। बंद कमरों में होने वाले आर्थिक अपराध, जुंआ-सट्टा या शहर से दूर सुनसान इलाकों के फार्म हाउसों में होने वाले देह व्यापार को कुत्ते की तरह सूंघकर पहुॅच जाने वाली पुलिस को नकली सामान बेचने वाले नहीं मिल पा रहें है।
पिछले साल नवंबर माह में स्वास्थ्य विभाग की जांच रिर्पोट राजधानी की पुलिस को सौंपी गई थी। जांच में चार कंपनियों को 25 करोड़ रूपयें के उपकरणों की सप्लाई में गड़बड़ी का दोषी पाया गया था। पिछले साल के नवंबर माह से पुलिस इस मामले में आज तक सिर्फ इतना पता कर पाई है कि चार में से तीन कंपनियों ने गलत पते दिये थे और चौथी कंपनी का पता तो चला लेकिन संचालकों का पता नहीं चल पाया। ऐसी पुलिस से क्या उम्मीद की जा सकती है जो इतने संवेदनशील मामले में मुकदमा तक दर्ज नहीं कर पा रही है।
कुल मिलाकर देखा जाये तो साफ नजर आता है कि या तो पुलिस राजनितीक या प्रशासनिक दबाव में है या उसका पेट भरा हुआ है। ऐसा नहीं होता तो मामूली मामलों में फटाफट मुकदमें दर्ज करने वाली पुलिस खामोश नहीं बैठी होती। अब पुलिस को ही क्या दोष दें असल दोषी तो सरकार जो सब कुछ जानते-बुझते गांधी के तीनों बंदरों का मिला-जुला रूप है। न वो देख सकती है, न वो सुन सकती है और न बोल सकती है। सच पूछा जाये तो वो चौथे बंदर की तरह है जिसका हाथ कही और होता इस बात का सबूत देते हुए कि वह कुछ नहीं कर सकता।
बहरहाल इसको सरकार के निकम्मेपन और पुलिस की नपुंसकता से ज्यादा जनता का दुर्भाग्य मानना चाहिये जो दवा के नाम पर जहर देने वालों के हाथ मरने पर मजबूर है।
2 comments:
खुली मुट्ठी तो हमेशा खाक की होती है..और जब दोनों mp और cg एक मुट्ठी थी, एकता थी तो दम था. अब तो दोनों जूझ रहे हैं. सब सियासी खेल की बदरंग हालात हैं.
sach kaha aapne,siyasat ne na sirf cg ya mp balki sare desh ka bhatta baitha diya hai
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