भैय्या प्लीज राखी के दिन अपने क्लब में रक्षाबंधन का कार्यक्रम करवा दो। प्लीज ये पार्टी का कार्यक्रम है और ज़रूरी भी है। अंजान आवाज़ और अंजान महिला की रिक्वेस्ट पर मैें भौंचक्क रह गया। ये पत्रकार जो खुद सबसे ज्यादा असुरक्षित है वो दूसरों की रक्षा क्या कर सकता है।
खैर मोबाईल पर रिक्वेस्ट करने वाली बहनजी को मैंने साफ-साफ बताया कि बहनजी पत्रकार राखी के दिन भी अपनी नौकरी बचाने में लगा रहता है। वो आपकी रक्षा क्या कर पाएगा। उधर से आवाज़ आई नहीं भैय्या वो कारण्ा नहीं है, क्या है ना पार्टी ने कार्यक्रम तय कर लिया है। मैंने कहा ठीक है आ जाईएगा लेकिन पत्रकार राखी बंधवाने पहुँचेगा या नहीं इसकी गारंटी नहीं है। एक-दो भी आ जाएँ तो भी चल जाएगा। और कार्यक्रम फिक्स हो गया।
मुहुर्त की तो जैसे ज़रूरत ही नहीं थी, क्योंकि ये तो भाई बनाने की फार्मेलिटी थी। फिर सिर्फ पत्रकारों को ही नहीं मुख्यमंत्री और दूसरे मंत्रियों को भी राखी बाँधनी थी। यही फार्मेलिटी देश की राजधानी दिल्ली में भी निभाई गई। वहाँ भी प्रधानमंत्री से लेकर सोनिया गाँधी और आडवानी ने राखी का त्यौहार कैमरों के सामने मनाया। कुछ ऐसी ही उम्मीदें लिए 12 बजे पहुँच गई भाजपा महिला मोर्चे की बहनें प्रेस क्लब। आमतौर पर महिलाओं को देखकर बेवजह इकट्ठा होने वाले फोटोग्राफर भाई भी फोटोजनिक चेहरों को अवॉइड कर खिसकने लगे। भाई बनना पड़ेगा और उसके बदले बहनों की प्रेस विज्ञप्तियाँ और कार्यक्रमाें को छपवाने का कर्जा सर पर आता देख वहाँ बैठे कुछ पत्रकार भी वहाँ से खिसक लिए।
मैंने कुछ लोगों को फोन लगाया और कहा जाओ वहाँ और राखी बंधवा लो। उनका जो जवाब आया वो और चौंका देने वाला था। एक ने कहा भैय्या हमसे क्या खतरा और हम क्या सुरक्षा देंगे किसी को। दूसरे का जवाब था, पत्रकारों से अच्छा तो कांग्रेसियों को राखी बांध देती। चुनाव में भी काम आ जाते और सुरक्षा की गारंटी भी पूरी हो जाती। एक ने कहा कि भाजपाई बहनों को पत्रकारों को राखी बाँधने की क्यों सूझी। मैं और परेषान हो गया। एक ने तो कमाल ही कर दिया। वो बोला काहे झमेले में पड़ रहे हो, पहले भी कांग्रेस के खिलाफ लिखने के कारण लोग हाफ पेंट का लेवल आप पर चिपका चुके हैं, और ये करोगे तो पक्का ठप्पा लग जाएगा।
मैं भी सोचने लगा कि वाकई अचानक क्यों भाजपाई बहनों को पत्रकारों को भाई बनाना ज़रूरी हो गया। क्या पत्रकार भाजपा के खिलाफ ज्यादा आग उगल रहे हैं। या चुनाव नजदीक आ गए हैं, तो पत्रकारों की तब ज्यादा ज़रूरत होगी। कारण मुझे समझ में नहीं आया। बहुत सोचा, बहुत खोपड़ी खपाई पर खोजी पत्रकार का दिमाग इस बेहद रहस्मय नए कार्यक्रम के मूल उद्देश्य तक नहीं पहुँच पाया। मैंने एक बार फिर खोज ख़बर ली, तो पता चला कोई भी प्रेस क्लब में भाई बनने को तैयार नहीं हो रहा था। फिर मैंने कुछ लोगों से पूछा कि तुम्हें भाई बनने में आपत्ति क्यों है ? तब जाकर कुछ लोगों ने भाई बनने की फार्मेलिटी पूरी की। बताईए इससे ज्यादा दु:खद होगा कि जबरिया भाई बनाया जा रहा है।
आज जब समाज में चारों ओर नैतिक पतन के ढेरों अनचाहे उदाहरण नज़र आते हैं, ऐसे में रक्षाबंधन जैसे पवित्र त्यौहार का राजनीतिक इस्तेमाल करना अंदर से कचोट गया। क्या फार्मेंलिटी के लिए बाँधा गया एक धागा भाई-बहन के पवित्र बंधन के समान हो सकता है। क्या राखी बाँधने-बंधवाने भर बस से ही भाई-बहन हो जाते हैं ? क्या बिना राखी बाँधे कोई लड़की हमारी बहन नहीं हो सकती ? या हम किसी के भाई नहीं हो सकते। बहुत से विचार उमड़-घुमड़ रहे हैं दिमाग में। बहुत कुछ अच्छा और बुरा भी लिखा जा सकता है। अच्छा बनने या साबित करने के लिए कुछ ऊँचे आदर्शों का ढिंढोरा भी पीटा जा सकता है। पर मुझे ऐसा लगने लगा है कि अब मेरा दिमाग काम करना बंद कर रहा है। ऐसा लग रहा है सिर फट जाएगा। राखी का या पवित्र बंधन का बहनों द्वारा इतना सस्ता इस्तेमाल मैंने आजतक नहीं देखा। भगवान न करें ऐसा किसी और भाई या और किसी पत्रकार के साथ हो। सभी भाई-बहनों को राखी के पवित्र त्यौहार की बधाई। जाने-अनजाने यदि किसी भाई-बहन को मेरी बात बुरी लगी हो, तो नादान भाई समझकर माफ कर देना। मेरा इरादा किसी का दिल दुखाना नहीं बल्कि अपने दु:खी दिल का दर्द आप लोगों से बाँटना है।
9 comments:
चलो अच्छा हुआ भैया जो अपन ने आज राखी के दिन प्रेस क्लब में झांका तक नहीं ;)
सब राजनीति का चक्कर हैं इन नेत्रियों को समझाओ कि प्रेस क्लब को ऐसे राजनैतिक कार्यक्रमों से दूर ही रखें। सब पी आर खूंटे न बनें ;)
बस्तर वाला टूर कैसा रहा सबका?
मुझे लेख चाहिए बस्तर पर बस्तर ब्लॉग के लिए।
भाई आंखे खोलने वाला लेख हे, मतलब के लिये यह लोग पता नही कहा तक गिर रहे हे,ओर हमारे पवित्र त्योहारो को भी बदनाम करने पर तुले हे..
धन्यवाद एक अच्छे लेख के लिये
किसी भी मौके का इसे गंदा राजनीतिक इस्तेमाल नहीं हो सकता।
bhaiyaa
ganeemat hai agar inako pataa chale ki kumhaaron ke vote unake gadhon ko maan dene se milenge to ye kaka kya baap bhee banaa lenge...
अनिल भाई,
आपकी पोस्ट पढने के बाद हम भी एक इसी तरह के कार्यक्रम में जा रहे हैं राखी बंधाने. भाई बहन की बात पर एक बात और याद आयी जो कि धर्म के आधुनिक ठेकेदारों को शायद ही पसंद आए - पहली राखी देवराज इन्द्र को उनकी पत्नी ने बंधी थी.
अनिल जी बहुत आँखे खोलने वाला लेख है ! इन लोगो के लिए गालियाँ मुंह से निकलती है ! सार्वजनिकता का ध्यान रखते हुए गालियाँ बक कर.... अब आगे लिख रहा हूँ की हमारे त्योंहारों का भी बाजारी करण और राज-नैतिक करण हो चुका है ! त्योहारों की वो गरिमा और सहजता आपको नही लगता की हमसे कहीं दूर होती जा रही है ?
इन तथाकथित बहनों के राजनैतिक नाटक पर आपका चिंतन और दिल के दर्द को हम सबको बांटनें के लिये धन्यवाद ।
bahut hi rochak bebaak post. abhaar
रक्षाबंधन जैसे त्यौहार को व्यावसायिक एवं नाटकीय बनाने के लिए जितनी भर्त्सना की जाए उतना कम है ! पत्रकारों के समूह में होते हुए भी इस घटना के बारे में कोई चर्चा नही हुई, यह भी आश्चर्य है ! आशा करें कि लोग इस प्रकार हमारी परम्पराओं का मजाक उडाने वाले समारोहों का तिरस्कार करेंगे ! आपने यह लिखा इसके लिए धन्यवाद !
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