देश के जाने-माने 2 वकीलों की वकालत पर अदालत ने 4 महीनों के लिए रोक लगा दी। पढ़कर अच्छा भी लगा और बुरा भी। अब भला करोड़ों रूपए की रिश्वत एक ही केस में देने वाले वकील की सेहत पर 4 महीने के बेन से क्या फर्क पड़ता है। कौन-सा वो रोज कमाता और खाता है।
वैसे भी इस देश में कड़ी सज़ा भुगतने का टेण्डर गरीबों के नाम लिखा हुआ है। फिर गरीबी से बढ़कर और कोई सज़ा क्या हो सकती है। जिसे भगवान गरीब बनाकर सज़ा दे दे, उसे तो सज़ा भुगतते ही रहना है। बड़े लोगों पर तो ईश्वर की कृपा होती है। अगर उन पर ईश्वर की कृपा नहीं होती तो वे इस समाज में सर्वसुख साधन संपन्न कैसे होते। सभी जानते हैं इस बात को और जिस पर ईश्वर की कृपा हो उसे सज़ा देकर ईश्वर की नाराजगी कौन मोल लेगा।
अब उन गरीबों लोगों को ही ले लो, जिनके पास खाने को पैसा नहीं होता। वे अगर सफर करें भी तो उनके पास टिकट के लिए पैसे नहीं होते। घटिया पैसेंजर रेलों के जनरल बोगी में टॉयलेट के आसपास बैठकर किसी तरह नजदीक के गाँव जाने के लिए जाते समय अगर वे टिकिट निरीक्षक के हत्थे चढ़ते हैं तो सीधे जेल ही जाते हैं। और उसी रेल में ऊँचे दर्जों में सफर करने वाले तत्काल बटुवा निकाल टिकिट बनवा लेते हैं। अब बताईए भला जिसके पास टिकिट खरीदने के लिए पैसा ही नहीं है वो जेल जाए और जिसके पास पैसा है और टिकिट न खरीदे वो रसीद कटवाकर सफर करता है, क्या ये गरीबी और अमीरी का फर्क नहीं है।
मामला यहीं तक नहीं सीमित रहता। मेरे अपने ही शहर के कई मामले ऐसे ही जो हर शहर में होते हैं। कोई बड़ा डॉक्टर, नेता, अफसर या रसूख वाला गुण्डा, बदमाश पुलिस के हत्थे चढ़ता है और उसे जमानत नहीं मिलती तो वो अचानक गंभीर रूप से बीमार हो जाता है। और तब तक बीमार रहता है जब तक उसकी जमानत नहीं हो पाती। जेल जाने की बजाय वो अस्पताल के पेइंग वार्ड में जमानत के इंतज़ार में अपने सगे-संबंधियों से मिलता रहता है। दूसरी ओर भगवान का सताया गरीब होता है जो रात को कहीं जाते वक्त पुलिस वालों के हिसाब से संदिग्ध होने के कारण प्रतिबंधात्मक धाराएँ 109, 151 के तहत बुक होकर अदालत पहुँचता है। रूपया पैसा न होने के कारण न उसे जमानत मिलती और न ही वो बीमार होकर किसी अस्पताल में फाइव स्टार सुविधा का लाभ ले पाता है। वो जाता है सीधा जेल क्योंकि उसको तो सबसे बड़ी सज़ा गरीबी भगवान ने दे रखी है। अब फिर भगवान के सताए आदमी की मदद कर भगवान से दुश्मनी कौन लेगा ?
और भी बहुत कुछ है कहने को। सड़क पर खड़े रिक्शे के पहिए की हवा निकालते पुलिसवाले हर जगह दिख जाते हैं। मगर क्या कभी किसी पुलिस वाले को किसी ने किसी लंबी चौड़ी कार के पहियों की हवा निकालते देखा है। डंडा भी पुलिस का अक्सर देखकर चलता है। कोटवार, पटवारी, तृतीय वर्ग कर्मचारी इनकी हड़ताल पर ये बेमुरव्वत चलता है लेकिन बड़े नेताओं की रैली में सरकारी आदेश के बावजूद बड़े नेताओं को छोड़ छोटे कार्यकर्ताओं को ही सिलेक्ट करता है।
अब संजय दत्त को ही ले लो, छोटी-मोटी बंदूक या देसी कट्टा नहीं रखा था उसने। और जिनके साथ उसके संबंध थे वे भी कोई छुटभैय्ये नहीं थे । बड़े धमाके करने वाले आतंकवादी थे। अब एक ही मामले में कुछ लोग आतंकवादी और संजय दत्त आतंकवादी नहीं तो इसे तो ईश्वरीय कृपा ही मानी जाएगी। क्योंकि बाकी तो रूपए लेकर खून बहाते थे और संजू बाबा तो शौक के लिए बंदूक रखते थे। बाकी लोग तो अपराध की दुनिया में रोजी-रोटी के लिए आए थे वो भी इसलिए क्याेंकि गरीबी से त्रस्त थे। और संजू बाबा वो तो गरीब नहीं था। सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुआ था। अब इस पर ईश्वर मेहरबान हो तो वो गधा कैसे हो सकता है। गधे तो गरीब है।
छोटी-मोटी दुर्घटनाओं में अच्छा वकील नहीं मिलने पर जेल काटने वाले अक्सर छोटे-मोटे गरीब ड्राइवर ही होते हैं। बड़ी-बड़ी गाड़ियों में चलने वाले बड़े-बड़े लोगों के बड़े-बड़े वकील होते हैं। वे बड़ी-बड़ी रिश्वत देते हैं मगर उन्हें सज़ा बड़ी नहीं मिलती। कारण उन पर ईश्वर की कृपा है। शायद उनकी महलनुमा कोठी में अलग से मंदिर होगा जिसमें कोई पंडित उनकी जगह पूजा करता होगा और सारा पुण्य वे लेते होंगे ठीक वैसे ही जैसे उनका जूनियर उनकी जगह खड़ा होता है और फीस वे लेते हैं। उनके यहां पूजा भी आधुनिक भगवान नगद नारायण और असत्यनारायण की होती है। और जिन पर नगद नारायण और असत्यनारायण की कृपा हो उन पर भला क्या ऑंच आएगी ? किसी गरीब को 4 महीने से काम से बेदखल करते तो शायद वो रोजी-रोटी के लिए तरस जाता। वो कहलाता डंडा। अब जिनकी कमाई करोड़ों में हो उनके लिए 4 महीने का बेन हो सकता है उन्हें वर्ल्ड टूर पर जाने का मौका दे दे। बोलो नगद नारायण की जय। बोलो असत्यनारायण की जय। अमीरी की जीत हो, गरीबी का सत्यानाश हो।
12 comments:
न्याय का डंडा कमजोरों पर ही चलता है, और गरीब से ज्यादा कमजोर कौन होता है. इस विषय पर मेरा लेख पढ़ें - 'अतिथि देवता होता है.'
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बोलो नगद नारायण की जय।
अमीरी की जीत हो, गरीबी का सत्यानाश हो।
आपने आज की व्यवस्था पर सटीक व्यंग्य किया है। दुर्भाग्य से हो भी ऐसा ही रहा है।
अनिल जी,बहुत ही दर्द भरी ओर सच से भरी लेख लिखी हे आप ने,मेने भी अक्सर एसे केस देखे हे, होना तो यह चाहिये इन दोनो वकीलो को जेल मे ठुस दे, ओर उस जज को जिस ने इन्हे सिर्फ़ चार महीने के लिये बेन किया हे उसे उठा कर आदलत से बाहर फ़ेक दिया जाये,
लेकिन हमारे यहां सब उलटा हो रहा हे, लेकिन कब तक, एक दिन जब गरीब उठेगा तो इन हरामियो को कोन बचा सके गा, ऎसी खबरे सुन कर दिल को दुख बहुत होता हे,
धन्यवाद
हम वकीलों की आपत्ति भी यही है कि, कोई भी व्यक्ति किसी भी पेशे से हो, कितने ही ऊँचे पद पर बैठा हो उसे अपराध की सजा मिलनी ही चाहिए। कानून में सजा कम पड़ती हो तो कानून को बदलना चाहिए। उच्च-न्यायालय सजा दे सकता है। भारत में तीन तरह की सजाएँ दी जा सकती हैं। जिस में मृत्यु दंड, कारावास और अर्थ दण्ड सम्मिलित है। ये सजाएँ अदालत दे तो कोई आपत्ति नहीं है। जिस को आपत्ति होगी वह अपील करेगा। लेकिन किसी नौकरी करने वाले की नौकरी केवल उस का नियोजक छीन सकता है। उसी तरह किसी व्यक्ति को वकालत करने की अनुज्ञप्ति केवल बार काउँसिल ही जारी कर सकती है और वही उसे निरस्त या निलम्बित कर सकती है। ऐसा करने पर गलती करने पर बार काउँसिल के निर्णय को उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जा सकती है। यहाँ न्यायपालिका ने बार काउंसिल के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप किया है। निश्चित ही वकीलों की आपत्ति उचित है। अदालत बार काउंसिल को निर्देश दे सकती थी कि वह ऐसे वकीलों के खिलाफ कार्यवाही करे। यदि स्वयं न्यायालय ही कानून की पालना नहीं करेंगे तो उन की खुद की गरिमा क्या रह जाएगी?
"oh, ya very well said, it always happen, each word of the article is narrating its own painful story. always poor are the sufferes in every field"
REgards
आपने बहुत सुंदर लिखा है की गरीबी से बड़ी और क्या सजा होगी ! गुस्सा तो बहुत आता है पर गालियाँ देने से भी कुछ होने वाला नही है ! बड़े ही दुखी मन से इतना ही कहूंगा
" गरीब की जोरू सबकी भाभी " !
केवल कानून या वकालत ही नहीं, मुझे तो गरीब हर क्षेत्र में छला जाता प्रतीत होता है। शायद यह नियति है।
पर गरीब को अपनी गरीबियत से स्वयं छुटकारा पाना होता है।
यही तो त्रासदी है आज के ज़माने की. आम आदमी अपनी शाम की रोटी की जुगाड़ करे कि देश को संभाले!
अनिल जी, ऐसी ही घटनाओं से "राज्य सत्ता" के खिलाफ़ असंतोष भड़कता है, रही बात वकीलों की तो द्विवेदी जी ने अपने पेशे से सम्बन्धित बचाव किया है, लेकिन मैं उनसे पूर्ण आदर व्यक्त करते हुए कहना चाहूंगा कि वकीलों की इमेज भी उनके कर्मों के कारण बहुत-बहुत खराब हो चुकी है… हालत तो यहाँ तक पहुँच चुकी है कि कस्बे के गुंडे-बदमाश-छात्र नेता सभी एल-एल-बी बने फ़िर रहे हैं, पुलिस भी उनकी "यार" है, आम आदमी सिर्फ़ पिटने के लिये बना है, जहाँ संगठन है वही सरकार को दबा लेता है, बाकी सब जायें भाड़ में…
डंडा तो डंडा ही होता है
जो नोटों के आगे ठंडा होता है
और गरीबों के आगे गर्म
चाहे हो पुलिस का
चाहे कानून का हो
वो सिर्फ गरीबों को ही डराता है
और अमीरों के आगे बिछ जाता है।
होता है एक गरीब (पुलिस) के हाथ में
उसकी (पुलिस) गरीबी दूर करता है
ताकत दिखलाने का यंत्र भी है
और मजबूती का मंत्र भी है
यह डंडा।
- अविनाश वाचस्पति
aapne sachai likhi hai. hamare desh men tathakathit rasukh walon se adalaten bhi darti hain bhale hi ve yah dikhayen ki unse bada koi nahi.janta ab khud sajayen dene lagi hai. janta jagegi to sabki akla thikane aa jayegi. aapke man ka dard samjha ja sakta hai.
जी हा , कोई शक ? आप को अबतक क्यो नही पता चला , इस पर खॊजबीन शुरू करदे :)
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