Thursday, September 18, 2008

मौसम! अमीर का मज़ा, गरीब की सज़ा

अचानक बादल झूमकर बरसे और उसी के साथ मोबाईल भी घनघनाने लगा। क्या कर रहा है ? कहा है? क्या ज़िन्दगी भर काम ही करता रहेगा ? कब फ्री होगा ? और हर सवाल के बाद का सवाल एक ही था। क्या बढ़िया मौसम है ? मज़ा तो ले लें मौसम का। मुझे लगा कि इस मौसम में जहाँ कुछ लोग मज़ा लेने की सोच रहे हैं वहीं कुछ लोगों के लिए ये मौसम सज़ा से कम नहीं साबित होता है।

कल दोपहर के बाद अचानक कई दिनों के बाद आसमान पर काले कजरारे बादलों ने कब्ज़ा कर लिया था। शाम होते तक बादलों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया और धीरे-धीरे बादल पिघलने लगे। कई दिनों की ऊमस भरी गर्मी से परेशान राजधानी के लोगों ने बरखा रानी का स्वागत करना शुरू कर दिया। बरसात में भीगी शाम गरमा-गरम समोसे-पकौड़ों का मज़ा लेने का आमंत्रित कर रही थी। बेहद खुशनूमा भीगी-भीगी शाम के साथ दोस्तों के भी आमंत्रण मिलने लगे। एक का फोन रखो तो दूसरा, दूसरे का फोन रखो तो तीसरा और सिलसिला चलता रहा। सबसे पहले फोन आया हमारे ग्रुप के आघोषित लीडर डॉ. अजय शंकर सक्सेना का। वे अक्सर अपने फैसले सब पर थोपने के लिए मुझे लीडर कहते हैं।उसके बाद मणिभाई पटेल, लक्ष्मण जगवानी, संदीप वर्मा, और कुछ राजनीति से जुड़े दोस्तों के। वे राजनीति में बाद में आए दोस्त पहले थे। उनमें से कुछ तो निवार्चित जनप्रतिनिधि बन चुके हैं। अफसोस हम लोग उस ओर न जाकर इस ओर आ गए हैं।

सब दोस्त धीरे-धीरे डॉ. सक्सेना के ठिकाने पर जमा होने लगे। गरमा-गरम कचौड़ियाँ, मुंगोड़े, समोसे और मिर्ची भजिए का दौर चलता रहा। तब तक बरखा रानी ने अपना मूड बदलना शुरू कर दिया था। हम लोग गाड़ियों पर सवार होकर ताज़ा-ताज़ा नहाई सड़कों पर फिसलने लगे। बरखा रानी के बदलते तेवरों ने सड़कों को जाम से मुक्ति दिला दी थी और शहर के बीच भी गाड़ी चलाने में मज़ा आ रहा था। सब दोस्तों ने फिर एक बार कहा कि कभी मौसम का मज़ा भी ले लिया करो। दड़बे में ही कैद रहकर क्या नज़र आएगा ? थोड़ा घूम-फिर भी लिया करो।

मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा। सब घूमने-फिरने के बाद एक राय होकर एक होटल पहुँचे और रात का खाना साथ खाया। हंसी-मज़ाक और दुनिया भर की समस्याओं पर चर्चा करते-करते कब रात ढलने लगी पता ही नहीं चला था। वापस लौटे और सब अपने-अपने घर रवाना हो गए। तब तक बरखा रानी का मिजाज बिगड़ चुका था और वो रह-रहकर गरज रही थी। उसके गुस्से की कौंध आसमान पर रूक-रूककर नज़र आ रही थी।

रात लगभग 3 बजे अचानक बिजली गुल हो गई। थोड़ा इंतज़ार करने के बाद बिजली दफ्तरों के फोन खटखटाए मगर फायदा नहीं निकला। बिजली विभाग के अफसरों की नींद खराब की तो पता चला कोई फायदा होने वाला नहीं, आधे से ज्यादा शहर अंधेरे में डूबा हुआ था और भीगे हुए शहर में बिजली सुधारने का काम संभव नहीं था। तभी मुझे पता चला कि बहुत सी निचली बस्तियों में पानी घुस गया है।

नींद आ नहीं रही थी। मैं सोचने लगा कि हम लोग तो मौसम का मज़ा ले रहे थे, पर क्या सारे लोगों के लिए मौसम मज़ेदार था ? क्या सारे लोग हमारी तरह उसका मज़ा ले रहे थे ? क्या गरमा-गर्म पकौड़ों की खुशबू हर घर में उड़ रही थी ? क्या हर कोई बरखा रानी के स्वागत में जाम छलका रहा था ? क्या सचमुच मौसम का मज़ा हर किसी के नसीब में होता है ? मेरा ध्यान अचानक कॉलोनी से लगी झोपड़पट्टी की ओर चला गया।तब मुझे याद आया कि हमारे घर काम करने वाली कमला खपरैल की छत सुधरवाने के लिए एडवाँस माँग रही थी।

उसका परिवार और उसकी झोपड़ी जैसे ऑंखों के सामने घूमने लगी। मुझे अचानक ऐसा लगने लगा कि टपकती छत से गिरते पानी की धार को कमला और उसके बच्चे अलग-अलग बर्तन रखकर जमा कर रहे हैं। पूरी झोपड़ी बुरी तरह भीगी हुई है थोड़ी-थोड़ी देर बाद वो लोग बर्तनों और बाल्टियों में जमा पानी बाहर फेंक रहे हैं। पता नहीं फिर कब नींद लग गई ?

सुबह घंटी बजने पर उठा! सोचा कमला आई होगी। दोनों बहुएँ और भाई गरमा-गर्म चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। कमला नहीं आई, उसकी छोटी लड़की आई थी, ये बताने कि घर में पानी भर गया है, माँ काम पर नहीं आएगी। दोनों बहुओं का मुँह अच्छी चाय के बावजूद कसैला हो गया था। दोनों का गुस्सा उस छोटी-सी बच्ची पर फट पड़ा। मैं उस लफड़े में पड़ने के बजाय अख़बार पढ़ने लगा। सारे अख़बार बरसात की ख़बर से अटे पड़े थे। सब ख़बरों को मिलाकर एक शीर्षक दिया जा सकता था बारिश का क़हर।

अख़बार पढ़ते-पढ़ते एक बार फिर मेरे दिमाग में घूम गया, मौसम का मज़ा लेने का आइडिया। सारे अख़बारों में निचली बस्तियों, झोपड़पट्टियों और शहर की कुछ पॉश कॉलोनियों में भी पानी भर जाने की ख़बरें तस्वीरों सहित छपी थी।अचानक मुझे अख़बार गीला लगने लगा। मैं एक बार फिर खो गया बीती रात बरखा रानी के क़हर से कपकपाती हुई रात में। मुझे झोपड़पट्टियों में दूधमुहे बच्चों को संभालते हुए झोपड़ी में घुसे पानी को उलीचती महिलाएँ, घर के बाहर का पानी किसी तरह निकालने की कोशिश करते मर्द, भीगे चिपचिपाते कपड़ों में कपकपाते बच्चों का ख्याल आने लगा। सारी रात अंधेरे में जागकर सुबह का इंतज़ार करते लोग नज़र आए। भीगी झोपड़ी में खाना नहीं बनने पर रोते-बिलखते बच्चे भी नज़र आए।

मैंने जोर से सर झटका और दिमाग को दूसरी ओर ले जाने की कोशिश करने लगा। बरसात के कारण भतीजे ओम को स्कूल नहीं भेजा गया था। वो तब तक उठ चुका था। मैं उसके साथ खेलने लगा। उसे हल्की-हल्की खाँसी थी। उसके पापा यानि मेरा सबसे छोटा भाई सुशील उसे चेतावनी दे रहा था, बरसात में बाहर नहीं निकलना, तुम्हें खाँसी है। साढ़े तीन साल के ओम की समझ में कुछ भी नहीं आया और उसके साथ-साथ मुझे भी। मुझे लगा मामूली सी खाँसी और ऑंगन में जाने की मनाही। फिर मन भटक गया गरीब बस्तियों की ओर।

अचानक मुझे लगने लगा कि क्या बरसात से गरीबों के बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ता ? क्या उन्हें खाँसी नहीं आती ? क्या उनको मौसम का मज़ा लेने का हक नहीं है ? क्या उनका मन नहीं होता होगा गरमा-गर्म पकौड़े खाने का ? क्या वे भी बरसात का स्वागत नहीं कर सकते ? फिर अचानक मैं खुद ही अपने सवालों का जवाब ढूँढने लगा। तब मुझे समझ में आया कि मौसम का मज़ा गरीबों के लिए नहीं होता।गरीबों के लिए मौसम तो किसी सज़ा से कम नहीं होता। उसका मज़ा चंद लोगों को हीनसीब होता है। मुझे अजीब सा लगने लगा। मैं अपने आप को खुशनसीब समझने की गल्ती भी नहीं कर पा रहा था। लगभग 11 बजे बिजली लौटी। टंकी में पानी चढ़ाने के बाद नहाकर, तैयार होकर घर से बाहर निकला तब भी बरसात जारी ही थी। मैं गाड़ी में बैठकर दफ्तर पहुँचा। तब तक बारिश और तेज़ हो गई। दफ्तर पहुँचते ही सारे साथियों की ओर से फिर वही प्रस्ताव सामने आया। इतने बढ़िया मौसम में कुछ गरमा-गर्म हो जाता तो मज़ा आ जाता। मैंने कुछ कहा नहीं पर मुझे ऐसा लगा कि मेरा चेहरा कुछ बिगड़ा ज़रूर था। सारे लोग काम में लग गए। और थोड़ी देर बाद सबने मुझे बुलाया और कहा भैय्या गरमा-गर्म समोसे मंगवाएँ हैं। मैं कुछ कह नहीं पाया, न उन्हें मना कर पाया। मुझे लगा अगर मैं अपना ख़राब मूड उन पर थोपूँगा तो उनके साथ ज्यादती होगी।अनमने ढंग से मैंने समोसा उठाया और खाते-खाते मेरे दिमाग में फिर बिजलियाँ कौंधने लगी, सवालों की, क्या वाकई मौसम का मज़ा हर कोई ले पाता है ? उसके बाद से आसमान पर उमड़ते-घुमड़ते बादलों की तरह दिमाग में भी तरह-तरह के विचार उमड़ने-घुमड़ने लगे। दिमाग जब फटने सा लगा तो मुझे उसे खाली करने का ज़रिया याद आ गया। मैंने सारी बातों को जस का तस ब्लॉग पर उतारना शुरू कर दिया। पता नहीं कैसा चित्र बना है ? कुछ को हो सकता है अच्छा लगे और कुछ को बुरा भी। वैसे भी किसी के विचार से सभी का सहमत होना ज़रूरी भी नहीं। हाँ! इतना ज़रूर है कि जो दिल में आया वो आप लोगों से बाँट लिया।

16 comments:

श्रीकांत पाराशर said...

Anilji, ek samvedna bhara lekh hai yah. bahut badhia. shayad heading men truti rah gayee hai- |ka maza| ki jagah |ki maza|chhap gaya hai.

राज भाटिय़ा said...

अनिल जी बहुत ही भावुक ओर सोच वाली हे आप की यह लेख, शायद सभी सोचते होगे ऎसा पता नही लेकिन मे जरुर सोचता हू, ओर जितनी कर सकता हु कभी कभी मदद भी कर देता हु, आप ने बहुत ही सुन्दर शव्दो मे अपने मन की व्यथा जाहीर की हे.
धन्यवाद

रंजन राजन said...

कहीं धूप कहीं छांव तो सदा से है और हमेशा रहेगा।
आपके साथ मैं भी बािरश का मजा ले रहा था। वैसे हर काम में आप भावुक हो जाते हैं....सारे अख़बारों में निचली बस्तियों, झोपड़पट्टियों और शहर की कुछ पॉश कॉलोनियों में भी पानी भर जाने की ख़बरें तस्वीरों सहित छपी थी। अचानक मुझे अख़बार गीला लगने लगा।....

Arvind Mishra said...

अनिल भाई ,आपने सोचा और लिखा भी बहुत -काबिले तारीफ़ .अपनी सेहत का ध्यान रखें !

Udan Tashtari said...

संवेदनशील आलेख.

ताऊ रामपुरिया said...

अनिल जी इसीलिए कहते हैं जो अमीर का मजा होता है वो ही गरीब का अभिशाप होता है !
जैसे खाडी देशों में छोटे बच्चों को ऊंट की पीठ पर बैठा कर बर्बरता की हद की जाती है !
आप भावुक हैं , अच्छे लेखक हैं और अच्छे लेखक/कवि का मन बहुत कोमल और ग्रहण शील होता है !
आप कम-से-कम महसूस तो कर पारहे हैं ! दुसरे तो शायद आपकी बात पढ़ कर यही कहेंगे - यार कहाँ सुबह २
ये राग ले बैठे और सारा बारिश का मजा किरकिरा कर दिया ? मन की व्यथा को आपने मार्मिकता से लिखा है !

seema gupta said...

"very well described and true also that rain does not give happyness and relief to every one. its also playing game with poor and rich people. how poor people can enjoy it when there house is full of water and they dont have space even to cook food for them in thier own house, and what about those people who only depends on road side area where they are sleepin in nights under the open sky...Ah! your description has again created a seen of it in front of eyes. great human thoughts of your's"
Regards

रंजू भाटिया said...

सही लिखा आपने ..बारिश के रंग भी सबके लिए अलग अलग हैं ...

योगेन्द्र मौदगिल said...

यथार्थपरक, मार्मिक, संवेदनशील पोस्ट...

Gyan Dutt Pandey said...

ऐसी ही अनुभूति मैं भी करता हूं और व्यथित रहता हूं। यह व्यथा एक बार घर कर लेती है तो कई दिन हॉण्ट करती है!

डॉ .अनुराग said...

अनिल जी गरीबो के बच्चे में अपने आप एक खास किस्म की इम्मुनिटी आ जाती है.....रोजमर्रा के जीवन भी हम कई बार इतना विवश महसूस करते है की इस बच्चे को अब महंगे antibiotic की जरुरत है ओर बाप के हाल देखकर कलेजा मुंह को आता है

दीपक said...

आपने दिल की बात कह दी !!

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अनिल भाई,
बारिश में बेबस ज़िंदगी के लिए
इस तरह मन का भीग जाना
मामूली बात नहीं है.
तन भिगोने वाली बरसातें तो
फ़िर भी आती रहेंगी,
लेकिन अब के बरस ये जो
बिन बरसात बरसने वाली
निरीह, निरुपाय आखों में झाँककर
देखा आपने, समझिए आपने
अनलिखी इबारत को जी लिया
इंसानियत का अमृत पी लिया !
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बधाई दुःख-दर्द से तरसती दुनिया से
सरोकार के साथ
इस बरसती पेशकश के लिए.

डॉ.चन्द्रकुमार जैन

सचिन मिश्रा said...

yahin to rona hai.

Smart Indian said...

बहुत अच्छी बात कही है.
सुखिया सब संसार है, खाए और सोवे
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये

Dr. Amar Jyoti said...

कठोर समसामयिक यथार्थ का मार्मिक चित्रण।