कोसी के क़हर से बिहार थर्रा रहा है। लाखों लोग प्रभावित हैं बाढ़ से। घर-बार, परिवार-रिश्तेदार, ज़मीन-जायदाद सब कुछ जैसे कोसी ने निगल लिया हो। ऐसे में सारा देश बिहार के साथ पहले दिन से खड़ा नज़र नहीं आ रहा है। छोटे-छोटे मुद्दों पर देशव्यापी बंद और हड़तालों के लिए मशहूर भारत देश में इतनी बड़ी प्राकृतिक विपदा से लड़ने के लिए सारे देशवासी इकट्ठे नज़र नहीं आ रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि हम भूलते जा रहे हैं कि हम सब एक हैं।
याद आते हैं स्कूल के दिन और उन सालों में आई प्राकृतिक विपदा। तब स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चे भी अपनी हैसियत के मुताबिक जो बन पड़ता था देश में आई त्रासदी से निपटने के लिए अपनी चुट्की भर राहत का योगदान देते थे। ऐसा कोई प्रयास अभी तक इस प्रदेश में तो कम से कम नज़र नहीं आया है। लगातार लाइव कव्हरेज के बाद अब नेता टाइप के लोग ज़रूर सड़कों पर राहत सामग्री इकट्ठा करने के लिए निकल रहे हैं। लेकिन ये काफी देर से हो रहा है।
स्कूलों में हर साल कई मौकों पर बच्चों से रूपए मंगाए जाते हैं जिनमें कुछ मदद के नाम पर भी होते हैं, लेकिन बिहार की गंभीर स्थिति के बाद भी अभी तक इस दिशा में पहल न होना शर्मनाक तो है ही हमारे धीरे-धीरे असंवेदनशील होने की चुगली भी करता है। इससे पहले भी देश में भूकम्प और बाढ़ का क़हर बरपा है तब भी सारा देश एक साथ प्रभावित लोगों की मदद के लिए खड़ा नज़र आता रहा है।
कहीं भगवान दूध पीते हैं तो सारा देश मंदिरों में उमड़ पड़ता है। कहीं नंदी पानी पीता है तो सारा देश पानी पिलाने के लिए भागते नज़र आता है। कहीं कोई बवाल होता है तो सारे देश पर तनाव के गिध्द मंडराते नज़र आते हैं। कहीं कोई नेता पर आफत आती है तो सारा देश सड़क पर उतर आता है। कहीं किसी अभिनेता की तबियत बिगड़ती है तो भी लोग दुआ करते नज़र आते हैं। कभी किसी खेल में प्रतिष्ठा दांव पर लगती है तो सारा देश जागता नज़र आता है। और अभी बिहार में मौत नाच रही है, भूख तांडव कर रही है, महामारी पैर पसार रही है और देश फिर भी टुकड़ों में ही राहत इकट्ठा करते नज़र आ रहा है। हम नहीं कहते कि आप धर्म के काम मत करो लेकिन इंसानियत भी तो एक धर्म है। उसका भी ख्याल रखना चाहिये।
चंदा खोरी में एक्सपर्ट सभी राजनीतिक दलों के लोग भी जितना सक्रिय अपने सम्मेलनों को सफल बनाने में नज़र आते हैं, उसका अंश मात्र भी बिहार की आपदा से निपटने के लिए राहत सामग्री जुटाते नज़र नहीं आ रहे हैं। कभी सरकारें अपील किया करती थी, अपने कर्मचारियों से एक दिन का वेतन देने के लिए, वैसा भी कुछ होता नज़र नहीं आ रहा है।
धर्म चाहे कोई सा भी हो उसकी रक्षा कहिए, उसका उत्सव कहिए, या उसका प्रदर्शन कहिए, कुछ बनाना कहिए या कुछ तोड़ना कहिए, हज़ारों-लाखों लोग पल में इकट्ठा होते रहे हैं। पर बिहार में सबसे बड़ा धर्म मानवता संकट में है और उसके लिए लोग इकट्ठा होने में सोच रहे शायद। यात्राओं पर जाने के लिए धूम मच जाती है, सार्वजनिक उत्सवों पर रूपया पानी की तरह बहा दिया जाता है। पूरा समय समर्पित कर दिया जाता है। मगर बिहार के लिए सोचने का वक्त ही नहीं मिल पा रहा है शायद।
स्कूल और कॉलेजाें में वेलकम और फेयरवेल पार्टियों के दौर चल रहे हैं। उसके लिए छात्रों से 100 से लेकर हैसियत अनुसार रूपए मंगवाए जाते हैं। लगता है जैसे-जैसे शिक्षा के कथित स्तर और स्कूलों की भव्यता बढ़ी है वैसे-वैसे शायद संवेदनशीलता कम हुई है। एक बड़ी स्कूल जिसकी शाखाएँ सारे देश में है के चेयरमेन के जन्मदिवस पर सारे बच्चों को ग्रीटिंग कार्ड भेजना ज़रूरी होता है। चेयरमेन के जन्मदिवस पर जश्न मनाने वाले उस स्कूल के बच्चों को क्या बिहार के बच्चों का दर्द नहीं बताया जा सकता ? शायद गड़बड़ी स्कूल से ही शुरू हो रही है। अच्छे नागरिक बनाने वाले कारखानों में ही गड़बड़ है, तो क्या कहा जा सकता है ? शायद इसीलिए राजठाकरे जैसे अवसरवादियों के बिहारियों के खिलाफ फ़रमान से नाराज़ होकर सारा देश उसके ख़िलाफ एकजुट हो जाता है मगर कुदरत के बिहार पर क़हर के ख़िलाफ अभी तक वैसी एकजुटता नज़र नहीं आई। इसीलिए ऐसा लगता है कि हम शायद भूलने लगे हैं की हम सब एक हैं।
16 comments:
सही कह रहे हे आप,एक पत्थर की मुर्ती को सब दुध पीलाने के लिये भागे भागे जाये गे,अरे पागलो अगर भगवान को सही पुजना हे तो उस के बन्दो को मुसिबत मे सहारा दो, यही समय हे, कल हमारे साथ भी यह सब हो सकता हे,मुसिबत कभी बता कर नही आती
धन्यवाद अनिल जी
wajib sawaal hai bhaisahab.
ham unke saath hain.dilli mein hamlog apne star par sahayta pahunchane ka kam kar rahe hain.jo log kisi tarah wahan se jaan bachakar aa paye hain.
भूलते जा रहे नहीं, भूल चुके हैं कि हम सब एक हैं, हर गांव और हर शहर , हर राज्य में अब बेवकूफों की जमात खडी हो गयी है जो गाहे बगाहे याद दिला देती है कि हम अलग अलग प्रांत के हैं, अलग धर्म और अलग जाति के है कहीं North Indians के नाम पर कहीं बिहारी के नाम पर तो कहीं हिंदू के नाम पर....जाने कहां जाकर ये जानबूझकर भूलने की प्रकिया खत्म होगी।
सहमत। हमारे नेशनल साइके में कहीं खोट आ गया है। पर ऐसे मौके पर एक करिश्माई लीडर राष्ट्र को जगाता है। कहां है वह?
सच कहा आपने. अच्छी बातों को भी reinforcement की ज़रूरत होती है.
५ दिन की लास वेगस और ग्रेन्ड केनियन की यात्रा के बाद आज ब्लॉगजगत में लौटा हूँ. मन प्रफुल्लित है और आपको पढ़ना सुखद. कल से नियमिल लेखन पठन का प्रयास करुँगा. सादर अभिवादन.
Bhai, sachai likhi hai aapne. hamari sanvedanayen bhi choosi ho gayee hain.yah theek to nahi hai parantu ho raha hai.Bihar men jo trasadi aayee hai usse badi vipda aur kya ho sakti hai magar log abhi bhi so rahe hain.
आपने बिल्कुल सही लिखा है कि हम सब भूल चुके है कि हम सब एक है । बाढ़ से आई तबाही मे भी नेता अपना उल्लू सीधा करने मे लगे है।
जहां इक खिलौना है इसां की हस्ती, ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती.
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.
आश्चर्य है है कि पत्थर के लिए दूध तो है, इंसान के दो घूंट पानी नहीं.
" you have written very sensibly and heartly on a critical issue which needs national attention. at this pont of time it is really required to be together and support the bearers to overcome from natural disaster"
Regards
बहुत सुब्दर और सटीक ऐ! धन्यवाद
अनिल जी क्या बोलूं ? आपकी बात से सहमत हूँ !
और आत्मचिंतन से काम नही चलने वाला कुछ ठोस
कदम होने चाहिए ! आप तो अलख जगाते रहिये !
एक दिन मनसूबे अवश्य पुरे होंगे ! बहुत धन्यवाद !
मैं आपसे पुरी तरह समाती रखता हूँ !
शुभकामनाएं !
सही बात.....
हम नहीं कहते कि आप धर्म के काम मत करो लेकिन इंसानियत भी तो एक धर्म है। उसका भी ख्याल रखना चाहिये।
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बिल्कुल सही...सहमत हूँ आपसे.
यह प्रस्तुति आपकी सुलझी हुई,
सार्थक,सकारात्मक,सजग और
सतर्क करने वाली सोच का
सामयिक और उत्तरदायी पड़ाव है.
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अनिल भाई,आपने
बहुत अच्छा लिखा है
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
kab ke bhool chuke bhai........
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