आईए आज आपको बस्तर की हसीन वादियों में स्थित शक्तिपीठ दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी मंदिर की। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव के तांडव के बाद माता सती का दांत या दंत यहां गिरा था। इसीलिए दंत के नाम पर दंतेवाड़ा और मैय्या का नाम दंतेश्वरी पड़ा। जगदलपुर से ये 84 किलोमीटर और रायपुर से 383 किलोमीटर दूर है।
दंतेश्वरी मैय्या के दर्शन के लिए आपको धोती या लुंगी धारण करना ही होगा। इस मंदिर में सिले हुए वस्त्रों को पहनकर प्रवेश करने नहीं दिया जाता। मंदिर बहुत ही खुबसूरत मकान की तरह बना है। लंबे-चौड़े खुले परिसर में मंदिर की भव्यता और भी बढ़ जाती है। सामने कल-कल करती शंखिनी और डंकिनी नदियां आपस में मिलकर एक होकर बहने लगती है। छोटा सा दंतेवाड़ा कस्बा बदलते राजनीतिक परिवेश में राज्य बनने के बाद पहले पुलिस जिला और फिर जिला बन चुका है। हालाकि कहीं से भी ये जिला मुख्यालय या बड़े शहर जैसा नज़र नहीं आता। नक्सलियों का इस इलाके पर जबरदस्त प्रभाव है। इस इलाके में हर थाने पर नक्सली हमला कर चुके हैं। बेहद शांत और घने जंगलों के बीच मंदिर परिसर की शांति अद्भूत आध्यात्मिक तृप्ति देती है।
एक मान्यता और भी है दंतेश्वरी मैय्या के मंदिर को लेकर। ऐसा माना जाता है कि बस्तर के पहले काकातिया राजा अन्नम देव वारंगल से यहां आए थे। उन्हें दंतेवश्वरी मैय्या का वरदान मिला था। कहा जाता है कि अन्नम देव को माता ने वर दिया था कि जहां तक वे जाएंगे, उनका राज वहां तक फैलेगा। शर्त ये थी कि राजा को पीछे मुड़कर नहीं देखना था और मैय्या उनके पीछे-पीछे जहां तक जाती, वहां तक की ज़मीन पर उनका राज हो जाता। अन्नम देव के रूकते ही मैय्या भी रूक जाने वाली थी।
अन्नम देव ने चलना शुरू किया और वे कई दिन और रात चलते रहे। वे चलते-चलते शंखिनी और डंकिनी नंदियों के संगम पर पहुंचे। यहां उन्होंने नदी पार करने के बाद माता के पीछे आते समय उनकी पायल की आवाज़ महसूस नहीं की। सो वे वहीं रूक गए और माता के रूक जाने की आशंका से उन्होंने पीछे पलटकर देखा। माता तब नदी पार कर रही थी। राजा के रूकते ही मैय्या भी रूक गई और उन्होंने आगे जाने से इनकार कर दिया। दरअसल नदी के जल में डूबे पैरों में बंधी पायल की आवाज़ पानी के कारण नहीं आ रही थी और राजा इस भ्रम में कि पायल की आवाज़ नहीं आ रही है, शायद मैय्या नहीं आ रही है सोचकर पीछे पलट गए।
वचन के अनुसार मैय्या के लिए राजा ने शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम पर एक सुंदर घर यानि मंदिर बनवा दिया। तब से मैय्या वहीं स्थापित है। मैय्या की मूर्ति खुबसूरत काले पत्थर से बनी है। मैय्या का श्रृंगार सिर पर खुबसूरत मुकुट और नाक में चांदी की नथ से किया गया है। आंखें और भौहें भी चांदी की है। सिर पर चांदी का बारीक काम किया हुआ छत्र सुशोभित है। वहीं भगवान नरसिंह की प्रतिमा भी है। गर्भगृह से जुड़े सभा मंडप और नृत्य मंडप हैं। वहां बारसुर शैली की नटराज की प्रतिमा के अलावा एक खड़ी दुर्गा मैय्या, नंदी व दो विशालकाय द्वारपाल की प्रतिमा है। वहां और भी प्रतिमाएं हैं। मंदिर परिसर में गरूड़ स्तंभ की उपस्थित उस क्षेत्र में उस काल में वैष्ण्वों के प्रभाव की छाप है। यहां ये भी मान्यता थी कि यात्रियों को सफल यात्रा की कामना करते हुए एक बकरी देना होता था।
मशहूर तांत्रिक चंद्रास्वामी भी यहां आ चुके हैं। उस समय वे वहां किसी खास अनुष्ठान के लिए आए थे। वो दौर था राजनीतिक उथल-पुथल का और अर्जुन सिंह व नरसिम्हा राव के बीच बढ़ते विवाद से चंद्रास्वामी की यात्रा को जोड़कर देखा गया। ऐसा बताया जाता है कि चंद्रास्वामी अपना अनुष्ठान पूरा करने के पहले ही वहां से रवाना हो गए थे। कमोबेश यही स्थिति छत्तीसगढ़ की 2 अन्य देवियों महामाया और बम्लेश्वरी के मंदिर में भी हुई थी। ऐसा बताया जाता है कि उनके अनुष्ठान की काट के लिए अर्जुन सिंह समर्थक तांत्रिक भी अनुष्ठान कर रहे थे। संभवत: इसलिए चंद्रास्वामी अपना दौरा अधूरा छोड़कर चले गए थे। चंद्रास्वामी का वहां आना भी मंदिर की महत्ता को और बढ़ाता है।
7 comments:
अनिल जी आपने नवरात्रि के अवसर पर इतनी अच्छी जानकारी दी । आपको नवरात्रि की शुभकामनाएं।
अनिल जी, मा दंतेश्वरी की कथाए न्यूज पेपर मैगजींस में पढी थी आज आपने चित्रों सहित और जानकारी दी ! राजा और मैया की बहुत मीठी और गूढ़ कहानी बताई ! असल में निरंतर चलते रहने का कहानी में सांकेतिक अर्थ निरंतर कर्म करते रहने से है ! निरंतर कर्म नही करने से राज्य की सीमाए भी सिकुड़ जाती है ! आपकी कहानी बहुत पसंद आई ! असल में हमारे सारे ग्रन्थ ही ऎसी गूढ़ कथाओं से भरे पड़े हैं ! बहुत शुभकामनाएं !
चन्द्रास्वामी वाला एंगल मजेदार है, बाकी जानकारी के लिये शुक्रिया…
कथा रोचक लगी।
माता दुर्गम स्थलों पर ही क्यों बैठी हैं?
बहुत आभार इस आलेख के लिए.
दिलचस्प कथा !
माँ दंतेश्वरी को बारमबार प्रणाम !!कभी वहा के यश्स्वी राजा प्रवीरचंद्र भजदेव के बारे मे भी लिखे कहते है कि महात्मागांधी की तरह वह भी अजानुबाहु थे!!
छ्त्तीसगढ पर्यटन को बढावा देनेवाला आपका यह प्रयास सराहनीय है!!
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