विदर्भ के बारे में लगातार लिखा जा रहा है।देश का सबसे बडा काटन मार्केट यही था।बापू का आश्रम सेवाग्राम भी यहीं है।तकली-पोनी,चरखे का दौर भी विदर्भ ने देखा है।खादी और गांधी टोपी यहां की शान रही है। चारो ओर सफ़ेद चांदी से भरे खेत यहां की परम्परा थे।मगर अब लगता है जैसे सब कुछ बदल रहा है।कपास के खेत दूर-दूर तक नज़र नही आते।यही हाल रहा तो लगता है बापू की तकली के लिये पोनी भी नही मिलेगी।
छुट्टियों मे विदर्भ के बहुत से गावों मे गया।सालों पहले भी जाता था।तब त्योहारों के मौसम का स्वागत घरों मे कपास के भरे गोदाम किया करते थे। हर घर मे थोडा या ज्यादा कपास दिख जाता था।शाम को खेतो से लौटकर आती टोलियां कपास अपना तोडा के पास तौलवा कर घर जाती थी।जिधर नज़र डालो खेतों मे सफ़ेदी बिखरी नज़र आती थी।किसान जैसा भी था खुश ही नज़र आता था।कर्ज़ उस वक़्त भी हुआ करता होगा मगर तब किसान आत्महत्या नही करते थे।
इन सालों में बहुत कुछ बदला है।किसान का कर्ज़ सर के उपर से निकलने लगा है।लोग मर रहे हैं।समय बदल गया है। अगर नही बदली है तो सरकार की कपास नीति। आज भी किसान सरकारी समितियों को ही कपास बेचन पर मज़बूर है।वह अपना उत्पादन बज़ार मे नही बेच सकता।समितीयां जो रेट तय करती है वही फ़ायनल होता है।किश्तो मे रुपये मिलते हैं।लागत कई गुना बढ चुकी है,मगर दाम नही बढे।विदर्भ सिंचाई के मामले मे जितना पिछडा है उतना शायद ही देश का कोई और इलाका पिछडा होगा।
कपास उगाने की लागत और उससे मिलने वाली कीमत का फ़र्क़ किसानो को जिंदा रखने के लिये काफ़ी नही है,ये कडुवा सच किसानो को बहुत देर से यनी अब समझ मे आ रहा है। उसे अब पता चल रहा है की उसकी मेहनत का असली फ़ायदा उसे मरने पर मज़बूर कर रहा है। और शायद इसिलिये वहां का किसान अब धीरे-धीरे कपास से दूर भाग रहा है।एक और महत्व्पूर्ण कारण है कपास की खेती नही करने का।वो है मज़दूरो की समस्या । हैरान करने वाली बात ज़रुर है मगर है सच्।कपास पकने के बाद उसे तोडने के लिये मज़दूर नही मिलते आज कल्।मज़दूर नही है ऐसा नही है।बल्कि वहां का मज़दूर सरकारी योजना का सस्ता अनाज और पेंशन योजना के रुपयों से खा-पीकर घर मे पडा रह कर किसानो को भी अपने जैसा गरीब बनते देखना चाहता है।सरकार की सस्ती और मुफ़्त्खोरी करवाने वाली योजना पता नही किस का भला कर रही है।वोट की खातिर मेहनतकशों को अलाल बनाया जा रहा है। और उसका दुष्परिणाम किसान भोग रहा है।
विदर्भ का किसान सारी बातों से त्रस्त होकर पराटी यानी कपास से दूर होता जा रहा है।खेतों मे अब सफ़ेद चांदी बिखरी नही नज़र आती।दूर-दूर तक पराटी यनी कपास के खेत नज़र नही आते।सब सोयाबीन उगाने मे लग गये हैं। अच्छा है जिससे चार पैसे ज्यादा मिले वही अच्छी चीज़ है फ़िर चाहे बापू की तक़ली के लिये पोनी मिले या ना मिले।
19 comments:
योजना के निर्माण की नीयत, उद्येश्य और फ़िर, उसका उसी रूप में, उन्हीं लोगों के लिए क्रियान्वयन, जिनके लिए यह निर्मित है.....कुछ कुछ ऐसा समीकरण बनता है..इस पूरे उपक्रम में ईमानदारी नाम की बूटी भी होनी चाहिए है..तब कहीं जाकर गरीबी..उपेक्षा और अदूरदर्शिता रूपी " पाइथागोरस का प्रमेय " सिद्ध हो पाता है. शायद यही तो दुनिया को आप समझा रहे हैं....पत्रकारिता का धवल पक्ष.
आपकी चिंता जायज है, शायद बदलते हुए समय की एक निशानी यह भी है।
कहीं-कहीं किसानों की बेहद दुर्दशा है और कहीं (जैसे मालवा) वे बहुत मजे मे हैं, सरकारों की नीति समग्र विकासवादी नहीं है और इसीलिये क्षेत्रवाद का असंतोष पकता है…
आप गहरा विश्लेषण कर लेते है अनिल भाई ....ओर कुछ ऐसे मुद्दों पर नजर भी डालते है जो इस शहर के कोने में बिठा मुझ जैसा इंसान नही समझ सकता
acha hai.... kabhi to log is bare me sochte hai ...
विदर्भ का किसान सारी बातों से त्रस्त होकर पराटी यानी कपास से दूर होता जा रहा है।खेतों मे अब सफ़ेद चांदी बिखरी नही नज़र आती।दूर-दूर तक पराटी यनी कपास के खेत नज़र नही आते।सब सोयाबीन उगाने मे लग गये हैं। अच्छा है जिससे चार पैसे ज्यादा मिले वही अच्छी चीज़ है फ़िर चाहे बापू की तक़ली के लिये पोनी मिले या ना मिले।
" bhut achee treh aapne apnee soch fikr or samvaidna ko vykt kiya hai or aapke chinta jayej bhee hai.. accha lga pdh kr or smej kr.."
Regards
किसान अगर नकदी फसलों की तरफ ध्यान दे रहा है तो उसके पीछे किसान की मजबूरियां हैं। हांलकि इसके नुकसान हैं। दरअसल देश में एक कृषि क्रांति और नई कृषि नीति की जरूरत है। हमने आज तक एग्रीकल्चर ग्रोथ रेट पर ध्यान नहीं दिया।
अच्छा यह नहीं मालुम था कि विदर्भ में कपास की जगह सोयाबीन खेती पर जोर बढ़ रहा है।
शायद किसान के लिये बेहतर है।
man dukhi ho jata hai ye sab dekh sunkar.
khadee topee pahan janmat lootne waalon ke kano par pata nahi kabhi joon rengegi bhi ya nahi.
दुर्भाग्य है कि अन्नदाता को आत्महत्या करनी पड रही है और नेता बंशी बजा रहे हैं.
आप सही कह रहे हैं।
अजी जब बापू को ही जगह नही इस देश मै तो उस की तकली ओर पोनी को कोन पुछने वाला है, वेसे बापू की तस्वीर हर नोट पर हर दफ़्तर मै तंगी है, जेसे बार बार बापू को सब मिल कर चिढा रहै हो,
आप की बच्चे से पुछे महातमा गांधी के बारे??
आप के लेख मै हमेशा की तरह से एक सच्चई है एक फ़िक्र है इस देश के बारे,
धन्यवाद एक अति सुन्दर विचार के लिये
ह्म्म, एक स्टोरी के सिलसिले में एक सज्जन ने मुझसे कहा कि सोयाबीन की फसल अगर हम लेनें लगें उसके बाद वह जमीन बेकार सी हो जाती है। इस बात पर जानकारों से चर्चा करनी जरुरी है।
बहुत ही दुखद स्थिति है, आख़िर हर मुसीबत समाज के सबसे निर्धन वर्ग पर जाकर ही क्यों रूकती है?
एक आम किसान अक्सर अपने खेत से,धरती से जुड़ा होता है, चाहे उसकी खेती से गुजर-बसर हो या नहीं,यह भावनात्मक संबध ही मार डालता है। रही बात सरकार की, वो तो अब पूँजीपतियों के बाजार में बिक गई है।
अब खेती भी व्यवसायिक आधार पर की जाने लगी है . भाई किसान को जिस चीज से फायदा होगा वाही तो करेगा. हाँ एक बात कहना चाहूँगा . कपास पैदा करने वाले किसान यहाँ न रहे पर कपास जरुर मिलेगा और बापू जी की तकली भी कायम रहेगी बशर्ते बापू जी के सिद्धांत मानने वाले मौजूद हो . धन्यवाद्. .
हमारे देश मे सबसे बुरी दुर्दशा किसानों की ही है। कर्ज में डूबे हुए हैं ये, जिन्हे छुटकारा केवल मौत ही देती है।
बहुत अच्छा िलखा है आपने । कई प्रश्नों को उठाकर प्रखर वैचािरक अिभव्यिक्त की है । अपने ब्लाग पर मैने समसामियक मुद्दे पर एक लेख िलखा है । समय हो तो उसे भी पढे और अपनी राय भी दें -
http://www.ashokvichar.blogspot.com
बहुत अच्छा लेख है अनिल भाई !
Post a Comment