आज एक मित्र के पिता नही रहे।काफ़ी उम्र हो गई थी और काफ़ी समय से बीमार भी थे।मित्र शहर,या यूं कहिये राज्य का जाना माना डाक्टर है।उसके पिता का देर रात को निधन होने के बावज़ूद शहर के सारे बड़े और जाने-माने लोग अंतिम यात्रा मे पहुंचे।मुख्यमंत्री और मंत्री-संत्री सब शामिल हुए। जिसे देर से खबर मिली वो बाद मे घर पहुंचा।रात को हम मित्र-मण्डली उसके घर बैठने पहुंचे तो उसके पास एक लिफ़ाफ़ा रखा हुआ था।ग्रीटिंग कार्ड को देख कर सभी भौंचक थे।वो इस बात को शायद समझ गया था।उसने कार्ड सबके सामने रख दिया।वो एक शोक-संवेदना व्यक्त करने वाला कार्ड था।मैने तो अपने जीवन मे इस तरह का कार्ड नही देखा था।कार्ड उसीके हमपेशा एक डाक्टर दंपती ने दिया था जो हम सबसे कुछ देर पहले उससे मिलने घर आये थे ये बताने की सुबह उन्हे वक़्त नही मिला इसलिये अंतिम यात्रा मे शामिल नही हो सके। अपने नही पहुंच पाने की गल्ती सुधारने के लिये शायद वे कार्ड लेकर पहुंचे थे।
सच मे अफ़सोस भी हुआ अफ़सोस जताने के तरीके पर और गुस्सा भी आया।क्या हम वाकई इतने व्यस्त हो गये है कि ऐसे वक़्त के लिये कुछ वक़्त नही निकाल सकते। और अगर हम वाकई व्यस्त है तो क्या शोक जताने के लिये क्या कार्ड देने जैसी औपचारिकता निभाना ज़रुरी है।गुस्सा उसके अंतिम यात्रा मे शामिल नही होने पर नही आया। हो सकता है कोई एमरजेंसी हो मगर कार्ड देना तो कहीं से भी बात हज़म नही हुई।
कार्ड देने-लेने की परम्परा हमने तो सिर्फ़ त्योहारो मे देखी थी और आज-कल के चलन के अनुसार कुछ दिन विशेष पर भी कार्ड का आदान-प्रदान होते देखा था मगर म्रृत्यु पर कार्ड पहली बार देख रहा था।मुझे अफ़सोस तो हो ही रहा था मगर उससे ज्यादा गुस्सा आ रहा था। अपने-आप पर और हिंदू धर्म और संस्कृति की बात करने वालो पर्। हम आखिर पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुसरण करेंगे तो कब-तक?क्या जब-तक कि हमारी संस्कृति पूरी तरह नष्ट नही हो जाती या हम पूरी तरह पाश्चातय सभ्यता के गुलाम नही हो जाते?
16 comments:
अनिल जी आप ने सही पहचाना यह बिमारी पाश्चात्य सभ्यता की एक नकल ही है, क्योकि यहां युरोप मे मानविया रिश्ते उतने मजबुत नही, जितने हमारे यहां है, लेकिन हम लोगो को बस इन गोरो की नकल करनी है, बिना सोचे समझे, वेसे ९०% गोरे अग्रेजी नही बोलते,
क्या हम दिमागी तोर ओअर गुलाम नही???
अगर आप मेरे बच्चो से अंग्रेजी मे बात करेगे तो वो आप को झट से टोक देगे कि आप अपनी भाषा मै हम से बात करे, जब कि उन्हे अंग्रेजी इन गोरो जितनी ही आती है,क्योकि यहां सब के दिमाग गुलाम नही भाषा सिखना गलत नही, लेकिन....
धन्यवाद, आप का आज लेख बहुत अच्छा लगा, हमेशा की तरह से.
धन्यवाद.
हमारी तरफ़ से भी आप के दोस्त के पिता जी को श्रधंज्लि.
इत्दाये कमीनापन है रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या
पाश्चात्य मूल्य और जीवन शैली में व्यक्ति अकेला होता जा रहा है । उसके पास स्वयम् के लिए भी समय नहीं रह गया है । कार्ड की परम्परा भी पश्चिम की ही है । जीवन षैली पाश्चात्य और आग्रह अपनी परम्पराओं को बनाए रखने का - इस विकट विरोधाभास को हम कब तक झेल पाते हैं, यही हमारी परीक्षा है ।
इस तरह का चलन हमारी कुंद भावनाओं को छुपाने का जरिया मात्र बन गया है।
अनिलजी बात तो आपकी सोलह आने खरी है ! पर यहीं क्या ? आप देख लीजिये की हमने कहाँ कहाँ वेस्टर्न तौर तरीकों को छोडा है ? हम जन्म दिन, परण दिन ( विवाह ) तो खुले आम पश्चिमी स्टाईल में मना ही रहे हैं अब मरण दिन भी सही !
एक समय आएगा जब हमारे लिखे ब्लाग्स में हमारी पीढी दुन्ढेगी की उनका साँस्कृतिक इतिहास क्या था ?
रामराम !
कार्ड देने-लेने की परम्परा हमने तो सिर्फ़ त्योहारो मे देखी थी और आज-कल के चलन के अनुसार कुछ दिन विशेष पर भी कार्ड का आदान-प्रदान होते देखा था मगर म्रृत्यु पर कार्ड पहली बार देख रहा था
" आश्चर्यचकित हूँ, ऐसे अवसर पर कार्ड देने की परम्परा पहली बार पढ़ रही हूँ.....अफ़सोस हुआ जान कर"
regards
हम कहाँ जा रहे हैं। यह सब देखकर गुस्सा आता हैं। इतनी जल्दी हम अपनी परंपरा भूलते जा रहे हैं।
सही कहा आपने। शोक के अवसर पर भी कार्ड भेजना पहली बार सुन रहा हूं। ऐसे अवसर पर गुस्सा आना स्वाभाविक है।
मौत के कार्ड में भी वेरायटी आने वाली है, आग से जलने के लिये अलग कार्ड, बम विस्फ़ोट के लिये अलग, सादी मौत के लिये अलग और आत्महत्या सबके लिये अलग-अलग… :) :) अरे भाई तभी तो कार्ड, फ़ूल, चॉकलेट, मोमबत्ती का धंधा जोरदार चलता है आजकल… :) जय हो, जय हो…
पढ़कर ही मुझे एक अजीब किस्म से गिल्ट फिलिंग हो रही है... मन कर रहा है उल्टी कर दु.. कैसे कैसे लोग पैदा हो गये है .. भारत में
dukh prakat karane ka naayab tareeka, vaise achcha hi hai, jab bhawnaayen mrat ho gayin hon, aankhon me aansoo aur hraday men shok n ho to isse achcha tarika ho hi nahi sakta.
पता नहीं, यह होने लगे कि हम बोलने की बजाय आर्चीज के बने कार्डों के माध्यम से बात करने लगें।
पत्नी से बात करने दफ्तर से लौटते पांच-दस कार्ड खरीद कर ले जाने लगूं।
ऐसा भी होता है क्या....लेकिन इसमें अचरज कैसा जब अच्युतानंद एक शहीदी मौत पर ऐसे वकत्व्य दे सकता है,तो उस मानुष ने कार्ड देकर कौन सी गलती कर दी...
मेरा भी अफ़सोस शामिल कर लें...
जीवन की आपाधापी में हम साब आत्मकेंद्रित ओर संवेदना से दूर हो रहे है ,कहने को हम टेक्निकली आगे है पर मानवीय दृष्टि से उतने ही पीछे
सामयिक - सटीक पोस्ट के लिये साधुवाद
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