Friday, February 20, 2009

स्कूल से भाग कर जहां क्रिकेट खेलते समय पकड़ाया था आज वहां का ……………।

खुराफ़ाती तो अपन बचपन से थे।हाईस्कूल पहुंचते-पहुंचते स्कूल गोल करना सीख गए थे।उस समय रायपुर मे एक पब्लिक और एक ही कान्वेंट स्कूल हुआ करता था।हम भी होली क्रास के छात्र थे।सारे फ़ुटर्रे यानी स्कूल से फ़ूट कर भागने वालो ने एक क्लब भी बनाया था फ़ुटर्रा क्लब्।उस क्लब मे सिर्फ़ होली क्रास के ही नही वरन शहर के अन्य स्कूलो से फ़ूट कर भागने वाले शामिल थे।स्कूल से भागने का किस्सा एक दिन प्रेस क्लब मे सुना रहा था तब हितवाद प्रेस के फ़ोटोग्राफ़र रूपेश यादव (जिसे मे प्यार से इंटेलिजेंटेस्ट फ़ोटो जर्नलिस्ट कहता हूं)ने कहा की इस किस्से को आप ब्लोग पे क्यों नही लिखते?जब मैने उससे कहा कि सारी दुनिया के सामने पोल खुलवाकर मानेगा क्या?तो रूपेश ने कहा कि सच बात सामने रखने मे डर किस बात का।मै भी स्कूल से भागता था,बहुत से लोग स्कूल से भागते थे,हैं और रहेंगे और बहुत से नही भी भागते हैं।लेकिन आप जब हमको सुना रहे हो तो ब्लोग पर लिखने मे डर किस बात का?स्कूल और बचपन तो शैतानी के लिये ही होता है?

इस पर मैने रुपेश से कहा था कि ज़रुर लिखूंगा,और आज रुपेश ने फ़िर ब्लोग का ज़िक्र किया तो मैने उससे वादा किया कि मै स्कूल से भागने वाला किस्सा आज ज़रुर लिखूंगा।सो अपनी शरारतो के पिटारे से एक सहेज कर रखा गया बेशकिमती फ़ुल ब्लोग परिवार के सामने पेश कर रहा हूं।

जिस दिन होम वर्क पूरा न हो उस दिन स्कूल नही जाने के जितने बहाने इस्तेमाल हो सकते थे हम लोग किया करते थे।घण्टो शौचालय का आनंद लेने के बाद भी जब बाहर से हिटलरी फ़रमान सुनाया जाता कि चाहे जितनी देर हो जाए आज स्कूल जाना ही पड़ेगा,तो मन मार-कर स्कूल जाकर जी भर कर ठुकाई खाते थे।वो तो गनीमत है हमारी क्लास मे एक भी लड़की नही थी इसलिए सारे छात्र बेशर्मी से मार खाते थे।एक हमारी ही क्लास थी जिसमे लड़किय नही थी।रोज़-रोज़ के होम-वर्क और रोज़-रोज़ की ठुकाई का तो एक दिन हमारे ग्रुप का सबसे जुगाड़ू मेम्बर हनी ढूंढ कर लाया।उसके पड़ोस मे रहने वाले सरकारी स्कूल के छात्र ने उसे गुरूजी की मार से बचने का ये आईडिया बताया था।

हम चार लोगो का ग्रुप हुआ करता था।एक और चार लोगो का ग्रुप था जो हमारे ग्रुप की तरह एडवेंचरस था।और उसके बाद बचे सारे लड़के रट्टू तोते यानी पढाकू थे। खैर हनी के आयडिया पर पहले हमारे ग्रुप मे डिस्कस हुआ फ़िर दो-दो के एक-एक तरफ़ हो जाने के काअरण बहुमत के अभाव मे हमने दूसरे ग्रुप से अपना आय्डिया बिना रायल्टी शेयर किया।उन्होने इस आयडिया को गुरूजी की मार और होम वर्क से आज़ाद कराने वाला महान क्रांतिकारी आयडिया करार दिया।उसके बाद डरते-डरते एक दिन गोल मारा गया और उसके बाद तो सब स्कूल से भागने का मौका ढढने लगे।

तब एक विकट समस्या सामने आई कि स्कूल से फ़ूटने के बाद समय कहां काटा जाय्।उन दिनो बहुत दूर-दूर बगीचे या रिसोर्ट का ज़माना भी नही था,और सारे के सारे स्कूल भी सायकिल या रिक्शा से जाते थे।इस समस्या का हल निकाला हमारे मलयाली भाई वी सी आनंद ने ,जिसका हम लोगो ने स्कूल मे नाम वी सी देवआनंद कर दिया था।उसने बताया कि अगर दोपहर का शो देखा जाए तो तीन घण्टे थियेटर मे काटे जा सकते हैं यानी 3 बज़े के बाद लगभग डेढ घण्टे का समय और काटने का इंतज़ाम बाकी था।और उसका भी हल खोज लिया था दूसरे ग्रुप ने।शहर के बीचो-बीच बने कंपनी गार्डन यानी मोती बाग दोपहर के बाद सूना रहने की खबर को चेक कर के देखा गया और फ़िर उसे फ़ायनल कर दिया गया।

अब जब स्कुल से भागे तो मैटिनी शो देखने के बाद सब मोती बाग मे मिलते थे और वहां बगीचे मे बने एक मात्र रविंद्र भवन की दीवार पर लकीरो से स्टंप बनाकर क्रिकेट खेला करते थे।शुरू-शुरू मे सप्ताह मे एक आध दिन फ़ूटने का प्रोग्राम बनता था लेकिन् बाद मे मज़ा आने लगा और आए दिन हमारा ग्रुप स्कूल से भागने लगा।ये बात जब तक़ हम लोग समझ पाते तब-तक़ स्कूल मे नए-नए आये पाण्डे सर समझ गये और एक दिन जब उन्होने क्लास मे शक़ ज़ाहिर किया तो रट्टू तोतो के सरदार मुकेश ने बात लीक कर दी।

पाण्डे सर ने तत्काल मोती-बाग मे छापा मारा।उन्हे बगीचे मे आते एक फ़ुटर्रे ने देख लिया वो ज़ोर से चिल्लाया भागो।देखते ही भगडड़ मच गई सब भागने लग॥मैने भी अपना दिमाग दौड़ाया और भागते समय पकड़ा जाने के रिस्क को देखते हुए बगीचे की तरफ़ न भाग कर भवन के अंदर भागा।दौड़कर मैने वहां के कमरे का दरवाज़ा खटखटाना शुरू किया।दरवाज़ा नही खुलते देख मैने ज़ोर से आवाज़ भी लगाई और उसके बाद नीचे देखा तो मेरे होश उड़ गये।दरवाजे पर ताला लटक रहा था।तब-तक़ पाण्डे सर वहां पहुंच गए थे।उन्होने मुझे रंगे हाथो पकड़ा और स्कूल ले जाकर फ़ादर यानी प्रिंसिपल के सामने पेश कर दिया।

मैने कैसे उस मुसीबत से बचा वो अलग किस्सा है।मगर उस घटना के कई साल बीत जाने के बाद जब मैने पत्रकारिता शुरू की तो कुछ दिनो बाद प्रेस क्लब जाना हुआ।मै वहां पहुंचा तो हक्का-बक्का रह गया।ये तो वही कमरा था जिसका ताला उस समय बंद मिला था।मैने इस बारे मे पूछा तो मुझे बताया गया पहले क्लब सिर्फ़ प्रेस कान्फ़्रेंस के लिये ही खुलता था।इस्लिये उस दिन उस पर ताला लटका था।खैर 1995 मे मैने पहली बार प्रेस क्लब का चुनाव लड़ा और अध्यक्ष चुना गया और उसके बाद 2000 मे और 2006 मे दूसरी और तीसरी बार अध्यक्ष चुना गया।अब प्रेस क्लब उस भवन के एक कमरे मे नही लगता बल्कि पूरे भवन को प्रेस क्लब को आवटित कर दिया गया है और अब वहां दिन मे कभी ताला नही लटकता।ये कोई बहदुरी का किस्सा नही है,मह्ज़ एक इत्तेफ़ाक़ है,और अपने साथी रुपेश यादव की प्रेरणा से एक ईमानदार कन्फ़ेशन,अपने ब्लोग परिवार के सामने।

18 comments:

राज भाटिय़ा said...

अरे वाह, क्या बात है भगओडे तो हम भी रहे है, ओर हमरी कहानी थॊडी इस से आगे भी है , कभी लिखेगे.
आज आप की कहानी पढकर बचपन याद आ गया ओर बहुत मजा भी आया.
धन्यवाद

Abhishek Ojha said...

वो प्रिंसिपल से बचने वाला किस्सा अगली पोस्ट में आ रहा है न?

Anonymous said...

घण्टो शौचालय का आनंद लेने के बाद भी बाहर से हिटलरी फ़रमान ...
क्लास मे एक भी लड़की नही थी इसलिए सारे छात्र बेशर्मी से मार खाते थे ...
दूसरे ग्रुप से अपना आय्डिया बिना रायल्टी शेयर ...

अनिल जी, आप कहीं खोजी पत्रकारिता तो नहीं कर रहे? ये सब तो हमारी बातें हैं। आपको कैसे पता लगीं? :-)

चलिए, कम से कम अब किसी फ़ुटर्रा क्लब वाले को, प्रेस क्लब पर ताला तो नहीं मिलता!!

एक ईमानदार कन्फ़ेशन

Udan Tashtari said...

ब्लॉग में कन्फेशन कर देने में क्या परेशानी-यूँ भी मित्रों के बीच तो करते ही रहते हैं. :)

बेहतरीन संस्मरण. मगर बचे कैसे, ये जरुर बताना कभी.

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

इस किस्से से यह शिक्षा मिलती है कि जो ताला
कभी खुला नही मिला वह एक दिन अपने इशारे
पर खुला और बंद हुआ करता है .

दिनेशराय द्विवेदी said...

अनिल भाई, स्कूल से गोत मारने का काम हर विद्यार्थी जीवन में एक बार ही करे पर करता जरूर है और पकड़ा भी जाता है। पर ऐसा संयोग कम ही मिलता है कि वक्त पर जो दरवाजा ताले के साथ अंदर आने से मना कर रहा हो उसे हमेशा के लिए खोल देने का अवसर मिल जाए।
प्रेस क्लब का यह भवन आप ने हमें दिखाया। पर उस दिन वह दरवाजा नहीं दिखाया। खैर अगली बार सही।

Arvind Mishra said...

क्या खूब चल रही संस्मरण की रेल !

Vinay said...

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कुश said...

वाह बचपन में ले ही गये आप.. हम भी स्कूल से ऐसे ही गुल हो जाते थे.. बस पार्क का नाम बदल गया.. हालाँकि पकड़े नही गये.. क्योंकि क्लास के एक रट्टू तोते को सब्ज़ी काटने वाले चाकू से डराया था.. जो एक दोस्त अपने घर से लाया था..

वैसे ज़िंदगी इतेफ़ाको से भारी पड़ी है.. बचपन में जिस प्रेस क्लब के अंदर जा नही पाए थे आप बाद में वही पहुँचे... बढ़िया किस्सा रहा..

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत लाजवाब संसमरण है जी. अब आगे का किस्सा भी लिख डालिये. लगता है अपनी करतुते ही अलग परिवेश मे पढ रहे हैं.

रामराम.

अनिल कान्त said...

वो बचपन के दिन ...वो आज़ादी की जिंदगी ...वो स्कूल गोल करना ....लगा यूँ जैसे कल कीई ही बात हो .....बहुत अच्छा लगा पढ़कर

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

’"राफ़ाती तो अपन बचपन से थे-"
तभी तो ब्लागर बने:)

Puja Upadhyay said...

mazedaar raha ye confession :) ham bachpan me kabhi school college se to bhagne ka mauka nahin mila isliye office bunk khoob mara hai :D

Gyan Dutt Pandey said...

ये संस्मरणात्मक पोस्टें तो नक्सली समस्या पर आपके लेखन से ज्यादा पापुलर लग रही हैं!

नीरज मुसाफ़िर said...

अनिल जी,
ये तो आपने मेरी स्टोरी लिख दी है. फटाफट बताओ कहाँ से मिली?
मजाक कर रहा हूँ. बुरा मत मानना. स्कूल के दिन होते ही ऐसे हैं.

Shamikh Faraz said...

anil ji aap jo bhi likhte hain shandar hota hai kai bar maine aapka blog news pare me padha hai

Sudhir (सुधीर) said...

अनिल जी,
आपने हमे अपने स्कूल के दिन याद दिला दिए। साथ ही हिम्मत दी कि हम भी अपनी ऐसी ही एक घटना सबसे बाट सके। हमने भी अपने ब्लॉग 'अप्रवासी उचाव' पर घटना को लेखबद्ध करना शुरू कर दिया हैं। जल्द ही सार्वजनिक करंगे। साधू ।

समयचक्र said...

बेहतरीन संस्मरण...