संभवतया मैं अपनी बात ठीक से कह नही पाया या उसे विस्तार से न लिखकर माईक्रो पोस्ट के रूप मे लिखना मेरी भूल थी?मेरी पिछली पोस्ट से कुछ लोग सहमत हुए और स्वाभाविक रूप से कुछ असहमत भी।जो भी हो उस पोस्ट से एक बात जो निकल कर आई,वो है फ़िल्मो की तरह विज्ञापनो के लिये सेंसर की ज़रूर्त की।मैने अपनी पिछ्ली पोस्ट मे अख़बारों और टी वी पर दिखाए जाने वाली गर्भ निरोधक गोलियों के विज्ञापन पर लिखी थी।मेरा ऐतराज उत्पादन से नही बल्कि उसके विज्ञापन के स्वरूप और उसे अख़बारो और टीवी पर दिखाए जाने से था।विज्ञापनो के आर्थिक महत्व को देखते हुए इसमे भरपूर प्रयोग हो रहे हैं। क्माई का उद्देश्य उसे अच्छा बना रहा है तो,बुरा भी।ऐसे मे जब फ़िल्मो के लिए सेंसर बोर्ड है तो विज्ञापनो के लिए क्यों नही?
दरअसल मेरी आपत्ति उस विज्ञापन के भौंडे स्वरूप से भी ज्यादा उसे अख़बारो और टीवी पर प्रमुखता से प्रसारित,प्रचारित करने पर थी।खैर ये तो पिछली पोस्ट की बात है जिस पर मुझे पहले ही सविस्तार लिखना चाहिये था ।उस पोस्ट पर सबसे पहले बी एस पाब्ला जी ने कमेण्ट किया।उन्होने माईक्रो टिपण्णी के जरिये उस उत्पादन पर पाबंदी लगाने पर सवाल खडे कर दिये?फ़िर आये राज भाटिया जी।उन्होने भी विज्ञापनो के भौंडे स्वरूप पर आपत्ति जताई।उन्होने भी पत्र-पत्रिकाओं मे ऐसे विज्ञापनो को गलत माना।आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी,धीरू सिंह ,सीजीफ़ारभड़ास और डा श्रीमती अजीत गुप्ता
ने भी मेरे विचारो से सहमती दिखाई।
उसके बाद आये कुश,डा अनुराग और ब्लाग गुरू ज्ञान दत्त पाण्डेय्।कुश ने मेरे विचारो को अपनी जगह सही बताते हुए उस गोली की ज़रूरत बताई।मै भी उनकी बात से इतेफ़ाक रखता हूं कि विवाहित जोडो के लिये ये ज़रूरी है,मगर मेरा ऐतराज तो उस विज्ञापन से अन्जानी भूल से डरने वाले अबोध लोगो के दिमाग से उस डर के निकल जाने से था।डा अनुराग का मैं बहुत सम्मान करता हूं और उनकी प्रतिक्रिया भी उनके स्वाभाव के अनुरूप थी।उन्होने अपने पेशे के हिसाब से उस गोली को बहुत ज़रुरी बताया,साथ ही उन्होने इसके सदुपयोग और दुरूपयोग पर भी कहा।उन्होने इसके चिन्हित स्थलो पर इसकी बिक्री तयशुदा उम्र वालो के होने की बात कही।मेरी भी मंशा वही थी,मगर मै शायद अपनी बात को सही तरीके से रख नही पाया।ज्ञान दत्त ने भी इस्के स्वरूप को भौंडा तो माना मगर जनता को शिक्षित करने के लिये इसके विकल्प का आईडिया उनके पास नही था।परमजीत बाली ने भी इसके दूरगामी परिणाम होने और बडो की बजाय छोटो द्वारा इसके उपयोग की आशंका जताई।
साईंस ब्लागर ऐसोसियेशन ने इसके पाज़िटिव पहलू पर भी सोचने की बात सामने रखीं।अनिल कान्त ने भी इसके सदुपयोग और दुरूपयोग की बात कही।फ़िर आई रंजना जी,सुजाता जी,डा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर, ज्ञान जी,अनाम भाई,हरि जी,मुकेश तिवारीऔर निर्भय जी।सब के विचार भी उतने ही महत्व्पूर्ण थे जितने पहले आये विद्वानो के।उन सबकी बात मै जस की तस रख रहां हूं।
रंजना said...
इस विषय ने इसी तरह से इतना व्यथित किया है कि कुछ दिनों पूर्व मैंने भी इसपर एक पोस्ट डाली थी....वस्तुतः सही गलत,भोंडापन शालीनता,करणीय अकरणीय इत्यादि के बीच कोई ठोस दीवार नहीं होती...आजकल तो लोग इसकी परिभाषा और सीमाओं को अपनी सुविधानुसार तय करते हैं.सही गलत,भोंडापन शालीनता,करणीय अकरणीय इत्यादि के बीच कोई ठोस दीवार नहीं होती...आजकल तो लोग इसकी परिभाषा और सीमाओं को अपनी सुविधानुसार तय करते हैं.भ्रूण हत्या/गर्भपात को रोकने में जो वरदान स्वरुप है,उसीका उपयोग लोग व्यभिचार के लिए करने लगें तो क्या कहा जा सकता है...नैतिकता की चिंता कितने लोग करना पसंद करते हैं. लेकिन एक तरह से देखा जाय तो यह दवा सही इस माने में है कि ,पहले जो अनैतिक संबंधों से उत्पन्न नवजात अबोध शिशु का निर्ममता पूर्वक वध कर दिया जाता था, अब कम से कुछ जाने तो बचेंगी. और जहाँ तक विज्ञापन और मिडिया का प्रश्न है,उन्हें अपने कर्तब्यबोध का स्मरण रह कहाँ गया है.
February 26, 2009 6:00 AM
सुजाता said...
अनिल जी , आपको ऐसा लगा तो शायद सही ही लगा होगा,लेकिन इस पोस्ट मे एक स्त्री के नज़रिए की कमी है।दर असल बाज़ार ने जो जो उत्पाद बनाएँ हैं उनमे स्त्री के लिए सबसे उपयोगी गर्भनिरोधक हैं।स्त्री को अपनी अस्मिता और पहचान बनाने मे सबसे ज़्यादा उसके शरीर की यह रहस्यमय परिस्थितियाँ सब्से बड़ी बाधक साबित होतीं हैं कि वह जान ही नही पाती कि कब उसके शरीर ने क्या रचना शुरु कर दिया।मातृत्व का समय खुद चुन कर वह अधिक आज़ाद हुई है।दूसरी बात ,आप जानते ही होनेग कि आई पिल जैसी गोलियाँ आपातकाल के लिए हैं न कि गर्भपात के लिए जैस कि ऊपर के कमेंट मे कहा गया है।अनचाहे गर्भ को हटाना स्त्री के शरीर और स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक साबित होता है इसलिए यह उत्पाद सामने आने से बहुत सी स्त्रियों को लाभ हुआ है मानना होगा।इस तकनीक के अभाव मे व्यभिचार नही होता या नही हो सकता ऐसा भी नही है, हर गर्भनिरोधक का प्रचार दर असल व्यक्ति की आज़ादी को और मज़बूती से रेखांकित रखता है इसलिए उसे लेकर बहुतो के मन मे परेशानी पैदा होती है।बाकी , हर नई तकनीक और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल जैसे नियंत्रित नही कर सकते आप वैसे ही इसका भी इस्तेमाल कौन कब करे इसे आप नियंत्रित नही कर सकते।
February 26, 2009 8:58 AM
डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...
क्या भाईसाहब आपने क लिख दिया? जरा सोचिए उन नवजवानों की जो किसी कारण से कण्डोम न खरीद सके तो कम से कम इस गोली की मदद तो ले ही सकते हैं। अब वह बात नही रही जबकि यौनाचार के मामले मे षर्म करी जाती थी अब तो कहा जाता है कि जिसने की षर्म उसके फूटे कर्म। कर्म को कोई भी नहीं फोड़ना चाहता है और इसी कारण कभी परिवार नियोजन का साधन समझे जाने वाला निरोध अब एड्स को नियंत्रित करने औस षारीरिक सम्बन्धों में मददगार सिद्ध हो रहा है। यही तो हमारा देष है... जिये प्यारे और लगे रहो.... कि अब तो धोखे में भी कुछ कर डालो तो है न गोली.....
February 26, 2009 9:40 AM
Anonymous said...
गंदा ही क्यों सोचते हैं आप..मैं कई विषयों पर आपके लेख पढ़ रहा हूं, मुझे ऐसा लगता है कि आपकी सोच ही गंदी है, चाहे इस लेख में हो या आपकी पुरानी प्रेमकथाओं में, अपने आपको आप इतना महत्वपूर्ण क्यों बना लिया है ( शायद इसके पीछे आपका पारिवारिक संस्कार होगा)। आप गर्भनिरोध की गोली को चरित्र से जोड़ देते हैं, आपके दिमाग में इसके दुरूपयोग की ही बात क्यों आई, और क्या कोई अगर गलत कर भी रहा है और इस गोली से एक अनाथ जीवन धरती पर आने से बच रहा तो इसमें गलत क्या है। क्या आज ही लोगों का चरित्र हनन हो गया है, आदिमकाल से यह चल रहा है, लेकिन तब एक अनाथ के रूप में कोई गटर, नाली या कहीं और से जीवन शुरू करता था, यहां भगवान इंद्र का जब चरित्र ठीक नहीं था, उन्होंने अहिल्या के साथ क्या किया था पता है, ये चीजें रूकने वाली नहीं है, बात आपकी सोच का है आप इसे किस तरह सोचते हैं, मुझे तो आपकी सोच ही गलत लगती है, जैसा मैंने इससे पहले आपकी प्रेमकथाओं में पढ़ा, गलत सोच के साथ इतना अभिमान ठीक नहीं...
February 26, 2009 1:29 PM
ज्ञान said...
चलिए लिखने वाले ने तो अपनी बात लिख दी। अब इस माइक्रो पोस्ट पर आयी टिप्पणियों का माइक्रो एनालिसिस किया जाये, बोले तो छिद्रान्वेषणपाबलाजी पूछते हैं: क्या किसी धर्माचार्य या राजनेता ने ऐसे उत्पादों पर बंदिश की बात की है?अब बतायो भई कोई इनको कि आये दिन खबरों में जिन महानुभावों के अड्डों से ऐसा ही कुछ मिलता है, क्या वे इस तरह की बात करेंगे?भाटियाजी कहते हैं: मेरे पास कुछ पत्रिकाये हिन्दी मै आती थी …उन के हर दस्वे पेज पर यही कुछ लिखा होता था। अंदाजे बयान से लगता है कि अब नहीं आती। द्विवेदीजी कहते हैं: विज्ञापन का स्वरूप ही बहुत भोंड़ा है। जनाब, ऐसी वस्तुयों का विज्ञापन देना ही भोंड़ा है।धीरू जी का कहना है: सरकार भी चरित्र पतन को बढावा दे रही है। अरे, एक से भले दो।कुश जनसंख्या विस्फोट और पति पत्नी की भूल के बारे में बातें करते हुए भूल गये कि बात विज्ञापन के प्रस्तुतीकरण की हो रही है।ज्ञानदत्त जी तो आमजन की खोपड़ी को उद्देलित करन वाले विज्ञापन को जटिल बता कर खास हो गये।सुजाता जी तो इसे प्रकृति के खिलाफ जाने का उचित हथियार मानते हुए, स्त्री के नजरिये से लिखती हैं कि अपनी अस्मिता और पहचान बनाने मे सबसे ज़्यादा बड़ी बाधक उसके शरीर की यह रहस्यमय परिस्थितियाँ हैं, जिसके कारण वह गर्व महसूस करती है कि पूरूष को उसी ने जनम दिया है। स्त्रियों की सबसे बड़ी अनूभूति को भी नकारते हुये कह दिया कि वह जान ही नही पाती कि कब उसके शरीर ने क्या रचना शुरु कर दिया!! अरे वे तो कहती हैं कि हर गर्भनिरोधक का प्रचार दर असल व्यक्ति की आज़ादी को और मज़बूती से रेखांकित रखता है। अब इन्हें कौन सा परेशान व्यक्ति पूछे कि किसी की पिछली पीढ़ियों ने कितनी गुलामी झेली है, विचारों, आचारों, व्यवहारों, मानसिकता में? जो आज गर्भनिरोधक के प्रचार से अपने आप को आजाद मान रहे हैं।एक अनाम महोदय तो घबड़ा गये कि उनकी गंदी सोच शायद ज़्यादा ना फैल पाये तो दो बार फैला दी, अपनी … और फिर अनिल जी की पुरानी प्रेमकथाओं में, अपने आपको इतना महत्वपूर्ण दिखाने से ही खुद के पारिवारिक संस्कार याद आने लगे, फिर अपने दिमाग की बजाय पहचान को बुरके के पीछे रखकर कहने लगे कि कोई गलती करके एक अनाथ को लाने से बचा रहा है तो बेचारी गोली की गलती क्यों बताते हो? मेरे ख्याल से ये भी गटर, नाली या कहीं और से जीवन शुरू करते ही बेचारे अनाथ होंगे तभी तो अपनी पहचान लेकर नहीं आये। वरना अपनी सोच को सामने रख्कर, दूसरों की सोच को गलत बताते हुये इतना अभिमान कैसे कर रहे हैं कि सही गलत भूल गये, अपनी सामजिक जिम्मेदारी भूल गये। शायद इन अनाम महाशय ने किसी का भी दूध नहीं पिया वरना एक मर्द की तरह आकर अपनी सही-गलत बातों पर हम जैसे लोगों की टिप्पणियां पाने वाले अनिल पुसदकर जी पर अपनी गटर की गंदगी न झाड़ते।वैसे अनिल जी मैं भी परिवहन से जुड़ा हुया हूँ, कभी मुलाकात जरूर करूंगा। आपके मोतीबाग का कार्यालय मुझे ज्ञात है।
February 26, 2009 11:16 PM
मुकेश कुमार तिवारी said...
अनिल जी,आज के दौर की व्यवसायिकता के मुँह और हमारे गिरते हुये नैतिक मूल्यों पर एक करारा तमाचा मारता हुआ लेख.मैं भी जब तकरीबन २३ साल पहले मुंबई पहली बार गया था और लोकल ट्रेनों में गर्भपात कराने वाले अस्पतालों के विग्यापन देख कर खुद ही शर्मिंदा हुआ था पर आज टी. व्ही. देखते हुये आदत सी हो आई है बिल्कुल भी क्षोभ नही होता.अच्छे लेख के लिये बधाईयाँ.मुकेश कुमार तिवारी
February 27, 2009 12:01 AM
हरि said...
डा0 अनुराग सही कह रहे हैं।
February 27, 2009 5:52 AM
NIRBHAY said...
"KYA BHOOL HO GAYI?",agar shadi shuda hai toh phir yeh kya bhool hai? ya phir woh kisi doosare ki beebee thee. Shadi kiya hai, but natural hai kee Sukhad Dampatya Jeevan ek good sexual life se relate karta hai phycologist logon ka kehana hai. Advertisement hamesha emotions ko hit karta hai aur apne tamam social limitations ignore karta hai. Dharmik/Politicians is ka kya karen, Laloo toh poori ki poori cricket team le aaye dharti par, but Rabdidevi kabhi kahti hai kya Bhool ho gayi. India me Jansankhya ka visfot chal hee raha hai, koi nahi bolta bhool ho gayi, Ek bar Indira Gandhi ne jabardasti pakad pakad kar " NASBANDI" karvayi thi us ke baad unko kahna pada hamse bhool ho gayi. advertisement me mahila ka chehra aisa dikhta hai jaisa ek hee saptah me usko "BACHHA" ho jayega. Idiot hai advertisement ko bhee sensor board se pass karvana chahiye. Uddeshya sahi hai par Tariqa galat hai. Wah! re bhool ho gayi. Pahli aur aakhri bhool toh tumne shaadi karke kee, phir kya aage tumhe agarbatti stand dikhega.
सारे विचार पढ कर मुझे लगा की मै अपनी बात रखने मे पूरी तरह सफ़ल नही रहा। आप सभी की प्रतिक्रियाओं ने मुझे इस बारे मे सोचने पर मज़बूर क दिया।और मै इस नतीजे पर पहूंचा हूं कि उस विज्ञापन के स्वरूप और उस उत्पाद की उपयोगिता से ज्यादा ज़रूरी है,विज्ञापनो के भौंडे होते स्वरूप पर रोक लगाने के लिए सेंसर की ज़रूरत पर बात की जाय्।मेरा उदेश्य इस पोस्ट के जरिये किसी को ऊंचा या नीचा दिखाना नही है।बस मन मे खयाल आया कि क्या कहते है लोग मेरे लेखन पर वह भी सामने आना चाहिये।
17 comments:
आप ने सही कहा...गलत दवा नहीं है दोष उसके प्रस्तुतीकरण में है...ये दवा भी उतनी ही जरूरी है जितनी किसी और रोग की दवा...अब इसका उपयोग अगर कोई गलत काम को छुपाने के लिए करे तो इसमें दवा का क्या कसूर...अब किसे मालूम था की लोग खांसी की दवा को और यहाँ तक की दर्द की दवा आयोडेक्स को नशे के रूप में प्रयोग करने लगेंगे?
नीरज
यह बाजार है। बाजार में चीजें बंद नहीं होतीं चलती रहती हैं। वैसे ये विज्ञापन इतने भी बुरे नहीं हैं। मन लगा रहता है।
आपका सवाल बिलकुल सही है, लेकिन सवाल यह है कि सेंसर बोर्ड होकर भी क्या करेगा? ऐसा क्या हो रहा है जो सेंसर बोर्ड के होने पर न होता?
आदरणीय अनिल जी विचारो की असहमतिया ही एक नये विचार को जन्म देती है ..दरअसल दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो विज्ञापन बनाने के बाद उसे सार्वजनिक करने से पहले किसी संस्था या किसी कमिटी के सामने से गुजरना पड़े ....एक या दो विज्ञापनों पर उनके निकले जाने के बाद काफी हो हल्ला मचने के बाद कार्यवाही हुई है .शायद मधु सप्रे का कोई विज्ञापना था ओर दूसरा पूजा बेदी का कंडोम को लेकर ....
विज्ञापन की भाषा ,ओर उसके लिए जरूरी कुछ मापदंड तय तो जरूर होगे पर शायद दूसरे कानूनों की तरह उनका पालन नहीं हो रहा ... आप देखिये फेयर एंड लवली गोरा बनाने का दावा करती है .दूसरी कई कम्पनिया भी .एक विज्ञापन सिर्फ अपने दूध को शुद्ध बताते हुए अजीब तरह का प्रचार करता है....पेप्सी ओर कोक के विरुद्ध उस महिला की लडाई इस मुनाफे के खेल के पीछे पीछे ही दब गयी ....
सहमत हूँ. विज्ञापन भी उतने ही महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली होते हैं जितना कोई अन्य कार्यक्रम. इसलिए उनके स्वरुप पर ध्यान देना भी बहुत ज़रूरी है. बाकी टिप्पणियों पर "no comments."
इष्ट भाई की बात से सहमत
खेद है अनजाने में मैं इस महत्वपूर्ण परिचर्चा से जुड़ नहीं सका -मुदा तो विवादित है -मेरे विचार में सेक्स से जुड़े विज्ञापनों को भी शालीनता से प्रस्तुत किया जा सकता है पर क्या कीजियेगा यह ठहरा जाहिलों का देश बिना तड़क भड़क के लोगों की इच्छाए नहीं जागती और विज्ञापणदाता कम्पनियों का व्यवसाय नहीं होता !
विज्ञापनों को अगर बिना भोंडेपन के दिखाएँगे तो क्या क्या गर्भनिरोधक गोलियाँ अपना कमाल नहीं दिखाएंगी ? या स्वछन्द नारियों तक यह संदेश नहीं पहुंचेगा ?
गर्भनिरोध के साधनों के सदुपयोग से किसे आपत्ति हो सकती है? वह भी तब जब की हम 117 करोड हो चुके हों। लेकिन उन के प्रचार के तरीके पर तो हो ही सकती है। आप का सवाल सही है। विज्ञापनों को लिए सेंसर बोर्ड नहीं एक एप्रूवल बोर्ड की जरूरत है।
आप की यह बात पसंद आई कि आप ने असहमति के स्वरों को आगे से पाठकों के सामने रखा।
अनिल जी , यह दवा बिलकुल नही खराब लेकिन इन के विग्यापन इस ढंग से देने बेकार है, अब जिने जरुरत है वो तो जरुर इन्हे रखेगे अपने पास या कॊई अन्य ढंग अपनायेगे, क्यो कि आज के जमाने मै कोई भी व्यक्ति इतना वेबकुफ़ नही की हर साल नया बच्चा पेदा करेगा, क्या पहले परिवार नियोजन नही था ?
पहले फ़िल्म मै ओर फ़िल्मी गीतो मे सभी बाते होती थी, जो आज कर के दिखाते है, पहले उसे इशारो मे समझाते थे, ओर बडी उमर के लोग सब समझ जाते थे, मुझे लगता है आज से ५, १० साल बाद यह सब कर के समझायेगे कि भाई जी अप ने यह भुळ इस तरह की है अगर यह करते तो .... साला चत्रिर गया भाड मै.
धन्यवाद,
रोचक पोस्ट है टिप्पणियां तक उद्वेलित करती हुई आप सभी को बधाई
आपके विचारो से सहमत हूँ . धन्यवाद.
main kahna chaunga k aapne aik gambheer mudde ki taraf dhyan kheencha hai
दूसरा होशियार भी मिल गया..
मैंने पिछले लेख पर अपना कमेंट भेजा था, अज्ञात नाम से अभी भी अज्ञात नाम से भेज रहा हूं.. मैंने देखा या ऐसा कहें कि अनिल जी को जैसा मैं बचपन से जानता हूं.. वे वैसे ही निकले। कभी-कभार बहुत हिम्मत दिखा जाते हैं.. जैसा कि उन्होंने मेरी टिप्पणी भी डिस्प्ले करके की. मैं यहां दोबारा उस शख्स के बारे में टिप्पणी कर रहा हूं.. जो कि परिवहन से जुड़ा हुआ है, उसके ब्लाग पर जाओ तो कोई पता-ठिकाना नही है, फोटो नही है और वह मुझे अपनी पहचान छुपाने की बात कर रहा है, ऐसे डेढ़ होशियार लोगों की संगत ही अनिल को ले डूबी है.. बचपन से ही इनके आसपास ऐसे लोग रहे हैं.. अनिल मेरा बचपन का साथी है.. हम आज भी हफ्ते दो-तीन बार मिलते हैं, हमने साथ में दुनिया देखी है.. मैं अपनी पहचान नहीं खोलना चाहता पर बता रहा हूं कि डाक्टरी पेशे से जुड़ा होने के नाते मुझे लगा कि अनिल सही बात नहीं कर रहा है.. मैं उसकी प्रेम कहानी भी जानता हूं.. सब कुछ मेरे सामने हुआ था.. मैं ही नहीं अनिल के सभी दोस्त उसे अभिमानी मानते हैं.. परिवहन वाले ज्ञान जी अनिल के किसी दोस्त से मिलकर अकेले में पूछना.. हम सभी लोगों ने अनिल के परिवार का माहौल भी देखा है.. आज अनिल अगर तन्हा है.. तो उसके पीछे सभी चीजें जुड़ी हुई हैं.. अनिल ने ही मेरी जबान खराब की है.. इसलिए मेरी भाषा सीधी और गरिमामय नही है.. हिम्मत भी है इसलिए यहां प्रतिक्रया दे रहा हूं.. ज्ञान जी आपको सिर्फ अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए... किसी की प्रतिक्रिया का विश्लेषण करने की न तो तुम्हारी औकात है और न ज्ञान। आपकी भाषा देखकर मैं समझ गया था कि तुम अनिल से क्या चाहते हो.. जरूर मिलना अनिल जी से मोतीबाग के पते पर परिवहन के लिए सिफारिश लगवाने के खातिर.. तुम्हें तो अच्छा मौका मिल गया मेरे बहाने अनिल का सगा बनने का।
प्रिय अनिल, दुर्भाग्य से मैं मूल आलेख नहीं देख पाया.
वैचारिक विषयों पर हमेशा विस्तार से लिखना बेहतर है.
विज्ञापनों की विषयवस्तु सभ्य और शालीन तरीके से प्रस्तुत की जा सकती है, और उसके लिये कुछ कानून भी हैं, उसे नियंत्रण करने वाली संस्थायें भी हैं.
इस मामले में जनजागरण करना जरूरी है. लगे रहो!!
सस्नेह -- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
बहुत गम्भीर और सार्थक चर्चा। परंतु जिस देश में कंडॊम सडक के य़ुरिनल के पास मुफ्त उपलब्ध हो, इस पर चर्चा कैसी?! जागो ग्राहक जागो!!
पढ़ रहा हू सुधि ब्लॉगरो की टिप्पणिया....
आप की बात से सहमत हूँ..
फिल्में ,serials, आदि ये सब आज कल वैसे ही परिवार के साथ बैठ कर देखने वाले नहीं रह गए..और अब विज्ञापन भी हद पार कर रहे हैं.सांकेतिक या शालीनता से प्रस्तुत की जा सकने वाली सामग्री को चिल्ला कर दिखाना बेहद फूहड़ लगता है.
'अनिल जी आप ने 'ससुराल गेंदा फूल के मूळ गीत 'सुनवाने की बात कही है...प्रतीक्षा रहेगी.'
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