देश मे जिस तरह से चड्डी को लेकर बवाल मचा है,उससे तो ऐसा लगता है इस देश मे चड्डी से बडी कोई और समस्या है ही नही।या फ़िर ऐसा लगता है कि हमारे देश की चड्डी पडोस का दुश्मन उतार कर ले भागा है। जिस देश के अधिकांश नौजवानो के सामने बेरोज़गारी जैसी समस्या हो,अनाज उगाने वाले कर्ज़ मे डूबे किसानो के सामने आत्महत्या के सिवाय और कोई चारा न हो? मज़दूरो के सामने रोजी-रोटी का संकट हो।दुध मुहे बच्चो के लिये जंहा पौष्टिक तो दूर इंसानो के लायक आहार एक सपना हो। गांव देहात के बच्चो के लिए ढंग की शिक्षा सपने से कम न हो। आधी से बहुत ज्यादा आबादी जहां गरीबी से जूझ रही हो उस देश मे प्यार के नाम पर चड्डी छाप बवाल दुर्भाग्य से कम नही है।
मै तमाम डिज़ायनर चड्डीधारियो से क्षमा सहित कह रहा हूं कि जितना बवाल आज गुलाबी और खाकी को लेकर मचा है क्या उतना मेरे नए-नवेले छोटे से प्रदेश छत्तीसगढ के आदिवासियो के सलवा-जुडुम आंदोलन कैम्प मे हुए नरसंहारो पर हुआ है।क्या नक्सलवाद कोई समस्या नही है।क्या इस समस्या के कारण आदिवासियों,पुलिसवालों और चाहे वे नक्सली क्योंन हो ,की जान जाना कोई बडी बात नही है?क्या जन आंदोलन के लिये पीडित पक्ष का अल्पसंख्यक होना ज़रुरी है?क्या आदिवासियो के लिये सरकार को चड्डी पहनाने की ज़रुरत किसी को महसूस नही होती। क्या उडीसा की भूखमरी के बारे मे गुलाबी चडडी बांट रहे लोगो को पता नही है?क्या टीवी पर बाईट देने वाले हक़ की पैरवी करने वाले रटे-रटाए मिट्ठूओं को अपने और किसी हक़ की याद नही है।
क्या अकाल पडने के बाद हर साल राहत के लिये तरसने वाले लोगो के लिए स्थाई उपाय के लिए सरकारो की चडडी उतारना ज़रूरी नही है?क्या बांध बनने के बाद विरोध का डेरा डंडा लेकर घुमने वालो के समर्थन मे आंदोलन ज़रूरी नही है?क्या टीवी वाले महान देशभक़्तो को इस देश मे कोई और खबर या समस्या नज़र नही आती?क्या दर्शक खिंचने के लिए चड्डी दिखाना ज़रुरी है?
मेरा किसी से व्यक्तिगत विरोध नही हैं।न मै प्यार के इज़हार पर बल-प्रदर्शन का समर्थक हूं,न उसके विरोध मे चड्डी बांटने वालो कां। न मुझे संस्कार के ठेकेदारो से शिकायत है,न उस्का विरोध कर रहे कथित अधिकारवादियों से। मुझे तो हैरानी हो रही है की हर साल इस बात पर बवाल मचता है और फ़िर सब शांत हो जाता है,जैसे कुछ हुआ ही नही।इस दौरान होटल वालो,ग़्रिटिंग वालो,गिफ़्ट और फ़ुल वालो की चांदी हो जाती है।जिसे प्यार करना है वो तो प्यार करके रह्ता है,उसके लिए कोई दिन मुकर्रर नही होता।उसके बाद भी हर साल सारे देश मे बवाल को फ़लाया जाता है।
उस देश मे जहां, आज भी बेरोज़गारी, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, जैसी गम्भीर समस्या सुरसा की तरह विकराल रुप मे मौज़ूद है,वहां एक विदेशी त्योहार के नाम पर चडडी पहनाने और उतारने का खेल(इसे खेल नही तो और क्या कहा जा सकता है)खेलने मे सारा देश भीड़ गया है।टीवी देखो तो ऐसा लगता है इससे बड़ी इस देश मे कोई समस्या ही नही है।मै तो बस चडडी बांटने और उतारने मे लगे तमाम डिज़ायनर चड्डीधारियों से ये आग्रह करना चाहूंगा कि वे अपने आस-पास भी नज़र दौड़ाए उन्हे बहुत से लोग फ़टी लंगोटी वाले नज़र आएंगे।चड्डी देना ही है तो उनकी मदद करिए शायद आपका दान सही ज़रुरतमंद के काम आ जाए।
18 comments:
भाई जब उनके दूकान की चड्डी बिकेंगी तब ही वो चड्डी पहनने लायक होंगे .....और अगर इतनी ही फुर्सत होती उन्हें इन सब मसलों से तब ना बाढ़ , सूखा , भुखमरी , मंदी , बेरोजगारी की सोचते .....हाँ अपने मुद्दे जैसे राम मन्दिर वगेरह वगेरह उछालना खूब आता है ...मन्दिर की जगह अस्पताल नही भाता ..... क्या करे हमारे देश की युवा पीड़ी इनके ख़िलाफ़ इस तरह से इतनी दिलचस्पी कहाँ दिखायेगी
ये बेचारे नाजुक से हाथ, सामाजिक समस्यायों के विरोध का झंडा तो उठा नहीं पायेंगे। कम से कम इन्हें अपनी चड्डी तो उठाने दीजिए। आप भी ना …
वैसे, लगता है इस बार गुलाबों की बिक्री ठप्प पड़ जायेगी, गुलाबी चड्डी के चक्कर में :-)
गुलाबी चडडी पहन कर ही प्यार का इजहार होता है, या फ़िर झाडियो मे छुप कर ही इस प्यार का इजहार होता है... क्या यह गुलाबी चडडी वाले बातायेगे कि प्यार होता क्या है...बंदर कही के , दुसरो की नकल करने वाले, इन को एक नाम देदो गुलाबी चडडी वाले बंदर बंदरिया....:)
धन्यवाद आप का एक एक शब्द बहुत सही है, लेकिन इन्हे समझाये कोन, सब बिगडे हुये मां बाप की नाजायज ओलाद है यह सब.
धन्यवाद
सर आपने सही सवाल उठाया है
Naxali musalmaan hote to Aatankvadi kahlate aur ye sabse badi samasya hoti....
आपकी बात सोलह आना सच है. मगर अफ़सोस इस बात का है कि हम लोग भावुक ज़रूर हैं मगर इतने समझदार और संवेदनशील नहीं हैं कि ज़रूरी और गैर-ज़रूरी मुद्दे के फर्क को समझें.
न मुझे संस्कार के ठेकेदारो से शिकायत है,न उस्का विरोध कर रहे कथित अधिकारवादियों से। मुझे तो हैरानी हो रही है की हर साल इस बात पर बवाल मचता है और फ़िर सब शांत हो जाता है,जैसे कुछ हुआ ही नही।
शायद हम लोगों की यही विशेषता है कि मौसम के अनुरुप राग अलापते हैं.
रामराम.
वह भी शर्मनाक था यह भी शर्मनाक है -शर्म आनी चाहिए कुत्ते कुत्तियों को !
अनिल भाई, आप ने आज की सर्वोत्तम पोस्ट लिख दी है। देश और जनता की वास्तविक समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने की कोशिशें नाकामयाब राजनेता और विवादों से प्रचारित होने की आकांक्षा रखने वाले लोग लगातार करते रहते हैं। अपने व्यावसायिक हितों के लिए मीडिया भी उन्हीं को हाईलाइट करने में मशगूल रहता है। आप ने इन सब के बारे में सच लिख कर विवाद के गुब्बारे की हवा ही निकाल दी है।
ऐसा ही एक पैगाम राम का नाम लेने वाली सेना के लिए भी हो जाता.. तो मुझे ज़्यादा खुशी होती...
अरे भैय्ये, इसे रस परिवर्तन कहते है। गरीबी, बीमारी, शोषण तो रोज़मर्रा के टापिक हैं ही। वेलेंटाइन डे रोज थोडे ही आता है। इस ‘इन्डियन’ फिस्टिवल को आखिर मनाना है कि नै:)
अनिल जी,
आदिवासियों के पास क्रय शक्ति नहीं हैं। कंद-मूल खाकर प्रकृति के साथ सहवास करने वाले ये वनमित्र किसी कॉरपोरेट या ब्रांड के काम के नहीं है। ज्यादा से ज्यादा ये वोट हो सकते हैं राजनेताओं के लिए। ऐसे में ये किस कॉरपोरेट के काम के हैं। कॉरपोरेट में मीडिया भी शामिल है। भूख, बेरोजगारी, बुनियादी सुविधाएं अब खबर का कितना हिस्सा बन पाती है ये आप अच्छी तरह से जानते हैं। हां! चड्डी से ब्लाग बिक रहा है, खबरें बिक रहीं हैं, टीआरपी वाली खबर भी है; तब इससे बड़ी समस्या देश के सामने और क्या हो सकती है!
विरोध करने वाले और समर्थन करने वालों का कोई सामाजिक सरोकार तो है नहीं। इनकी अपनी दुकाने हैं। ये वह कर्म करते हैं जिनसे ये दुकाने चलती हैं। लेकिन यदि किसी महिला ने लोकतांत्रिक विरोध का ये तरीका चुना है तो हमें बहस समग्र बिंदुओं पर करनी चाहिए।
राम के नाम लेने वालों को गोली क्यों नहीं मरवा देते, ये राम का नाम लेते ही क्यों हैं?
निसंदेह आपने वाजिब प्रश्न उठाये है ....टी.वी चैनल ओर अखबार समस्याओं की प्राथमिकताये अपनी अपनी टी आर पी के हिसाब से तय कर रहे है .... ओर ये तब है जब बड़े बड़े अखबारों ओर चैनल में दूर दराज के इसी समस्या से पीड़ित राज्यों के मूल निवासी पत्रकारिता कर रहे है.....
पर मेरा एक प्रश्न ओर भी है यदि यहाँ चड्डी के बहाने विम्ब के प्रतीक में 'गुलाब "या जुटा लिया होता तब भी इतना हंगामा होता ....यहाँ ज्यादातर लोगो को विम्ब से ऐतराज है...वैसे भी हम सबने अपनी अपनी समस्याओं को बाँट दिया है ...ये फलाने राज्य की समस्या है .ये फलानी जाति की .ये केवल स्त्रियों की ...
पर इन गैर जरूरी बहसों में अनजाने में मुतालिक जैसे टटपुन्जिये नेता दूसरे राज ठाकरे बन कर उभरेगे ......
आपके विचारों से मैं अक्षरश: सहमत हूं. पता नहीं हम हिन्दुस्तानि अभी तक मानसिक एवं बौद्धिक रूप से इतने परिपक्व क्यूं नहीं हो पाए है.
आज जब समाज में चारों ओर बेरोजगारी,भ्रष्टाचार,आंतकवाद,भुखमरी गरीबी जैसे दानव मुंह बाये बैठे है.तब भी हम लोग अभी तक अपनी मूल प्राथमिकताएं ही तय नहीं कर पाए हैं.
पता नहीं हम लोग किस मिट्टी के बने हुए हैं?
अनिल जी,
इतिहास गवाह है कि जब भी संभ्रांत वर्ग को कोई परेशानी हुई तो शोर ज्यादा हुआ है. अपने देश में समस्यायों कि कमी नहीं, और यह भी कहना मुश्किल है कि कौन सी समस्या ज्यादा परेशानी जनक है, बस जिसकी आवाज वो उठायें जिन्हें अखबार छापते हैं तो तूती बोल उठती है.
आखिरकार पेज थ्री पर पब की खबर ही छपती है, पार गांव की रामदेई की शादी की नहीं.
वैसे यह साफ कर दूं कि मुतालिक ने जो किया वह गलत था, उसे सजा तो मिलनी चाहिये, लेकिन जो अब हो रहा है, वो भी घटियापन ही है.
अरे! आप तो बुनियादी सवाल उठाने लगे? वेलेण्टाईन डे का जश्न और उसका विरोध दोनों ही जितने नकली हैं, वैसा ही कोई नकली चवाल उठाईए। वर्ना पिछडे हुए कहाए जाएंगे।
चाय के प्याले में तूफान उठाने वालों की क्या बात करें।
Post a Comment