मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं के आंदोलनो पर नज़र डाले तो ऐसा लगता है कि उन्हे छत्तीसगढ कहें या देश के अन्य सभी ईलाको की पुलिस पर हो रहे हमले या उनकी नौकरी के दौरान हमलो मे हो रही मौत नज़र ही नही आती। कभी-कभी तो मानवाधिकारवादियो की उपेक्षा देख कर सोचने पर मज़बूर हो जाता हूं कि क्या पुलिस वाले मानव नही है?क्या उनके कोई अधिकार नही है?क्या उनके लिये दो आंसू भी बहाना मानवाधिकारवादियो के लिये पाप है?क्या बस्तर मे लोकतंत्र के महाकुम्भ यानी देश के आम चुनाव मे अपने प्राणो की आहूती दे रहे पुलिस वाले इंसान नही है?कल फ़िर चुनाव के पहले मतदान केन्द्र का निरीक्षण करने जा रही पुलिस पार्टी पर हम्ला करके नक्स्लियो ने 1O जवानो को मौत के घाट उतार दिया।वंहा आये दिन जवान शहीद हो रहे मगर इस मामले मे खामोशी देख कर कहना पड़ रहा है कि अरे ओ मानवाधिकारवादियो,ज़रा बस्तर मे शहीद हो रहे पुलिसवालो पर भी तो नज़र डालो।
बस्तर मे चुनाव कराना राष्ट्रसेवा है या चुनाव का बहिष्कार करना?ये एक महत्वपूर्ण सवाल बन कर उभर रहा हैं। नक्सलियो ने उस ईलाके मे बहिष्कार की घोषणा कर दी है और वे इस सिलसिले मे लगातार बैठके ले रहे हैं,पोस्टर-बैनर लगाकर जनता को चुनाव से दूर रहने की चेतावनी दे रहे हैं।दूसरी ओर पुलिस वाले हैं जो चुनाव आयोग के आदेश को सर-माथे पर रख कर दुरूह और पहुंच विहिन इलाकों मे भी मतदान के लिये अपनी जान पर खेल कर सुरक्षा-व्यवस्था उपलब्ध करा रहे हैं।
ऐसे ही काम पे निकली थी जवानो की एक टोली। लगभग 60 जवान जब चिंतागुफ़ा इलाके के एक नाले के पास पहुंचे तो दोनो ओर पहाडी पर आड़ लिये नक्सलियो ने हमला कर दिया। हमले मे एक डिप्टी कमाण्डर समेत दस जवान शहीद हो गये।दो की हालत नाज़ूक बनी हुई है।29 वर्षीय शहीद डिप्टी कमाण्डेण्ट दिवाकर तिवारी की मात्र छः माह पहले ही 55 वी बटालियन मे पोस्टिंग हुई थी। दिवाकर तिवारी की गलती क्या है? क्या सरकार की नौकरी करना पाप है? क्या चुनाव कार्य मे लगी ड्यूटी पूरी करना गलत है?क्या चुनाव जैसे महत्वपूर्ण काम मे लगना गलत है?
अगर ये सब गलत नही है तो फ़िर नक्सलियो से संबंध होने के आरोप मे गिरफ़्तार डा विनायक सेन की रिहाई के लिये हर सप्ताह छतीसगढ की राजधानी मे बिना नागा प्रदर्शन करने और गिरफ़तारी देने वाले मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओ को क्या बस्तर मे बिना कारण मरने वाले पुलिस वाले नज़र नही आ रहे हैं।बस्तर के शिविरो मे रह रहे आदिवासियो की ज़िंदगी उन्हे नर्क नज़र आती है तो क्या शहीद होने वाले जवानो के परिवार को स्वर्ग का सुख मिल रहा है?क्या पुलिस वाले मानव नही है?क्या उन्हे ज़िंदा रहने का अधिकार नही है?क्या उनके मानवाधिकार नही है?क्या उनकी मौत पर दो शब्द संवेदना व्यक्त करना बिना सोचे समझे एक विचारधारा के तहत आंदोलन करने वालो का कर्तव्य नही है?यदी ऐसा है तो उन्हे पहले घोषणा कर देना चाहिये कि हमारे संगठन के लिये पुलिस मानव की श्रेणी मे नही आती।
22 comments:
मानवाधिकार का धंधा करने वाले तो विदेशी पैसा पाये अरुंधंती छाप अघाये हुये लोग होते हैं, इनसे आम आदमी का क्या वास्ता?
यह तथाकथित मानवाधिकार वाले लोग जब मानव और आतंकी का मतलब समझ ले तभी अपनी जुबान खोले . यह शल्य की भूमिका निभा रहे है मनोबल तोड़ रहे है पुलिस का और जनता का
मानवाधिकार आयोग को पहले मानव और उस मानव के अधिकार की परिभाषा सभी को बता देना चाहिये तब कम से कम यह तो पता चलेगा कि मानव श्रेणी में कौन कौन आता है।
भाई पुलिस वाले भी तो मानव है उनके लिए भी देश में अधिकार प्रदान किये गए है . उनकी और भी तो इस संगठन को ध्यान देना जरुरी है इन को आँख बंदकर कार्य नहीं करना चाहिए . abhaar
ये धंधा है साहिब. विदेश से पैसा मिलता है. पूलिस पर आँसू बहाने के कोई ढेला नहीं देता. तो देशद्रोही, हत्यारे देवता है और पुलिस वाले मानव भी नहीं है इनके लिए.
जनता को और देश को पुलिस वालों का एक ही रूप बता है भ्रष्टता का ...वो ये देख ही नहीं सकते की वो शहीद हो रहे हैं ...या एक पुलिस वाला भी इंसान हो सकता है उसके बच्चे और परिवार भी होता है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
यह टिपण्णी मानवाधिकार आयोग ने मुझे मेल के माध्यम से भेजी है.. उनके यहाँ से पब्लिश नहीं हो रही थी..
पुलिस वाले ही तो है क्यों टाइम वेस्ट करे.. कोई आतंकवादी हो तो खबर कर देना..
बीजेपी का घोषणा-पत्र देखा आपने, सेना को करमुक्त वेतन देने का वादा हो रहा है। दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं है सिवाय बांग्लादेश के (जानकारी गलत भी हो सकती है मेरी)। मार्शल ला वाले देश की सेना भी इतने विशेषाधिकार नहीं लेती होगी। इसमें कोई बुराई नहीं। लेकिन बीजेपी छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की चांदमारी के शिकार हो रहे पुलिस वालों के बारे में भी तो कुछ सोचे। एक विनायक सेन को पकड़ लेने से थोड़े ही नक्सलवाद खत्म हो जायेगा। जो लोग लड़ रहे हैं, मर रहे हैं उनकी कुर्बानी भी तो याद करो, कमल छाप राष्ट्रवादियों। सेना को सिर में लगाने के नवरत्न तेल से लेकर पैर की हवाई चप्पल तक मुफ्त में या भारी रियायत पर देते हो। लेकिन जंगलों में मर रहे जवानों को मच्छर मारने की दवा तक मयस्सर नहीं है। कई-कई दिन सो नहीं पाते हैं बेचारे। आधी नींद में लड़ेंगे तो कहां बचेंगे। मैं फिर कह रहा हूं शहादत में भेदभाव मत करो। सेना तो आपने कश्मीर में लगा रखी है नॉर्थ ईस्ट में लगा रखी है, उस पार से आने वाले देशद्रोहियों से निपटने के लिये। देश में अंदर के देशद्रोहियों से निपटने वालों से भेदभाव और उनकी अनदेखी बंद होनी चाहिये। कहीं ऐसा ना हो कि मरता जवान, अपने बेटे से पुलिस या अर्धसैनिक में ना जाने का वचन लेकर ही प्राण त्यागे।
तर्क संगत...असरदार...
साथ ही ख़बरदार करती बेबाक पोस्ट.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अफसोसजनक्।
इस तरह के सभी आयोगों का यही हाल है, चाहे वो महिला आयोग हो, बाल आयोग हो, मानवाधिकार आयोग हो। इनकी नींद तभी खुलती है जब कोई हंगामा, कथित मीडिया के जरिये नज़र आ जाये।
पुलिसकर्मी अपना कर्तव्य करते हुए शहीद हुए हैं। उन्हें भावपूर्ण श्रद्धांजलि।
यह एक अलग प्रसंग है जिसे मानवाधिकार से जोड़ना उचित नहीं। अपितु पुलिस की रणनीतिक असफलता से जोड़ा जाना अधिक प्रासंगिक होगा। जब पुलिस को पहले से पता है कि उस क्षेत्र में यह सब हो सकता है। तब उस क्षेत्र में वैसी ही रणनीति बनानी चाहिए थी। वर्तमान सरकार के पाँच वर्षों के कार्यकाल में सारे उपाय कर लेने के उपरांत भी छत्तीसगढ से कथित नक्सल समस्या का समाधान नहीं कर सकी फिर आज वही दल आतंकवाद से सुरक्षा की गारंटी दे कर वोट मांग रहा है, उस पर कैसे विश्वास किया जाए?
आतंकवाद से निपटने में असफल होने पर सत्ता मानवाधिकारों को कुचलने लगती है। मानवाधिकार एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस तरह हम उस का मजाक उड़ा कर शायद भविष्य की तानाशाही के लिए मार्ग प्रशस्त तो नहीं कर रहे हैं।
मानवाधिकार का धंधा चल पड़ा है. ये हरामखोर लोग नक्सलवाद को बनाये रखना चाहते हैं. जब कांग्रेसी राज करेंगे तभी समझ में आयेगा कि उन्होंने भस्मासुर को पाल रखा है. ये कांग्रेसी भी ... अब हम से मत कहलवाएं.
झारखण्ड में भी ऐसी ही स्थितियां है ..बेचारी पुलिस आतंकवादियों को पकडे भी तो नेताओं के फोन आतें हैं उन्हें छुडाने के लिए.
साहब, जिस दिन हिंदुस्तान से ये मानवधिकार वाले और ये कम्युनिस्ट वाले चले जाये, हिंदुस्तान की आधी परेशानी खुद ब खुद कम हो जाये। ये सा* विदेशी पैसे के फ़ेरे मे कही भी झंडा लेकर खड़े हो जायेंगे। लेकिन बात जहाँ पुलिसवाले की आये,कही भी नज़र नहीं आयेंगे। इनकी दुकान वतन से गद्दारी से ही चलती हैं।
मानव अधिकारी आयोग कभी दाएं या बांये नहीं देखता। वह तो केवल सीधे भारत की ओर देखता है। यदि कोई अल्पसंख्यक मारा जाएगा तो शोर उठेगा, यदि कोई नक्सली पकडा गया तो शोर उठेगा पर कोई पुलिसकर्मी मारा भी गया तो उसके दांत में कील बैठ जाता है। कश्मीर में आतंकी मारा गया तो मानवाधिकार का मुद्दा है, तालीबान मासूम लोगों को मारे तो........????????
गंदा है
पर धंधा है ये
जय 'मानवाधिकार'
दुर्भाग्यपूर्ण है।
ब ये अपना धंधा देखें या पुलिस वाले देखे? कोई कमी पड गई क्या?
रामराम.
अभी कोई असाक मसाब कसाब होते तो तुरंत खडे हो जाते. आप समझते क्यों नही हैं ? जबरन बेचारों का धंधा खराब करने खडॆ हो जाते हैं.
रामराम.
सर, मानवाधिकार की हिमाकत करने वाले लोगों का क्या कहना? मुझे तो उनके नाम से ही शर्म आती है. ये सब नाम के भूखे भेरिया हैं. उनका काम सिर्फ और सिर्फ हल्ला करना है. न उन्हें गरीबी से कोई मतलब है और न ही गरीबों से. उन्हें बस नाम से मतलब है. उन्हें आतंकवादी अफज़ल नज़र आता है पर उन्हें मारे गए हजारों शहीद नज़र नहीं आते.
बढ़िया पोस्ट है। रक्षाबलों को अग्रिम पंक्ति के ऐसे खतरों से जूझना ही पड़ता है। मानवाधिकारवादियों के मुखौटे के पीछे भी एक अलग व्यवस्था छुपी रहती है। पर निरपेक्ष भाव से देखें तो मानवाधिकार और पुलिसकर्मियों की घात लगाकर हत्या दोनो अलग मामले हैं।
देशसेवा की खातिर सेना, पुलिस और अर्धसैनिक बल में जाकर हम लोगों के लिए जान देने वालों की जान की कीमत अपराधियों, आतंकवादियों और अराजक तत्वों की जान की कीमत से किसी भी तरह कम नहीं हो सकती है. जनता और सरकार दोनों को ही इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है की उन्हें सम्पूर्ण सुरक्षा मिले और उनकी अवांछित मृत्यु-दर में कमी आये. इस सब से ऊपर, हममें इतनी नैतिक और राजनैतिक इच्छाशक्ति हो की हम सीमा-पार और अंदरूनी आतंकवाद की समस्या पर नियंत्रण पा सकें.
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