रात को एक जाने-माने टीवी चैनल पर विशेष कार्यक्रम देख रहा था।वैसे तो देखना ही नही चाहिये मगर कई दिनो के बाद ऐसा लगा कि टीवी वाले सुधर गये हैं।असंतुलित और असंयमित भाषा के राजनीति मे बढते प्रयोग पर था कार्यक्रम।शुरुआत अच्छी थी और विषय भी अच्छा था,मगर एक एंकर ने सवाल करते-करते कह डाला कि आपको शर्म नही आती ऐसी पार्टी मे रहते हुये।अब बताईये अपने से दुगनी उम्र के नेता को जुम्मे-जुम्मे आठ दिन हुये कलम या माईक पकड़ने वाले से ये कहना कि उन्हे शर्म नही आती?क्या ये संतुलित,संयमित और सभ्य भाषा है?क्या उन्हे ऐसा कहने का अधिकार है?क्या ऐसी भाषा का प्रयोग करने वालों को दूसरो की भाषा पर उंगली ऊठाने का हक़ है?
ये बात सही है कि राजनीति मे इस्तेमाल की जा रही भाषा का स्तर लगातार गिरते जा रहा है।इस मामले मे किसी एक पार्टी या नेता को दोष देना गलत होगा।सभी इस मामले मे बराबर के ज़िम्मेदार हैं।कहीं कोई कंट्रोल नही।जो जी मे आया बक़ रहे है।ये भी नही सोच रहे है कि सारे देश की नज़र उन पर है और बहुत से लोगो के लिये वे आदर्श भी हैं। नेताओ की रोज़ अभद्र होती भाषा पर जब टीवी वालो को चिंता करते देखा तो अच्छा लगा मगर थोड़ी देर मे ही मोह भंग हो गया।अब जिनकी खुद की भाषा संतुलित और संयमित ना हो वो दूसरो की भाषा सुधारे तो हो गया बेड़ा गर्क़्।
खैर जो भी हो एक अच्छी पहल हुई है,मगर न्यूज़ चैनल वालों को ज़रा टीवी पर चलने वाले अपने ही ग्रुप के दुसरे मनोरंजक चैनलो पर हो रही भाषा पर भी तो ध्यान देना चाहिये।कुछ मनोरंजक चैनल पर तो गालियों को समझ मे आने तक़ हल्की बीप के साथ बोला जा रहा है।मां-बहन की गालियां वो भी लड़कियो के मुंह से निकलवा कर उसे अपने कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाने के लिये इस्तेमाल करना क्या चिंता का विषय नही है?क्या इस पर बहस नही होना चाहिये?क्या न्यूज़ चैनल पर मनोरंजक हास्य कार्यक्रमो के क्लिप्स दिखाते समय इस बात का खयाल नही रखा जाना चाहिये कि उसमे दोहरे अर्थ वाले संवाद न हो?क्या बच्चो को फ़ूहड़ और द्विअर्थी संवाद बोलते दिखाने बहस का विषय नही हो सकता?
एक बात और है,ये टीवी वालो को सुधारने के लिये शायद नेता ही मिलते हैं।शायद उनकी चर्चा मे बने रहने की मज़बूरी का भरपूर फ़ायदा उठाने से नही चुकते टीवी वाले।मालूम है नेता नाराज़ हो नही सकता और हो भी गया तो उसके पीछे लगने मे कितना समय लगता हैं। नेता भी इस बात को जानता है और ह्टाओ जाने दो का तरीका अख्तियार करने मे ही भलाई स्मझ कर खामोश रह जाता है।
इसमे कोई शक़ नही है कि मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो गई है।सारे देश मे बहुत कम समय मे वे एक खबर को पहुंचा देते है और इसलिये उस्का प्रभाव तेज़ी से बढा है। ऐसे मे उसका नेताओ की भाषा पर नकेल डालने की कोशिश करना अच्छी बात है मगर उसी कार्यक्रम मे एंकर का गलत भाषा का इस्तेमाल करना उसके वास्तविक उद्देश्य यानी टीआरपी बढाने के हिडन एजेंडे को सामने ला देता है।
21 comments:
अरे माडर्न भाई बहनों को परोसे जा रहे कार्यक्रम में तो इस कदर भाषा के साथ बलात्कार किया जाता है की पूँछो मत ....एम.टीवी. रोडीज को ही ले लो
चौथा खम्भा अब कहाँ टी वी और अखबार।
उठा के अपनी लेखनी इस पर करें प्रहार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
गली-बाजार के छोकरे जो भाषा इस्तेमाल करते हैं। टीवी पर तो वे भी संयत हो लेते हैं। लेकिन लगाता है। बाजार के दौर में भाषा का बाजारू होना जरूरी है।
" बेहद सही और संवेदनशील मुद्दे को उठाया है आपने.....मगर हर टीवी चैनल पर यही हाल है.....गलियां तक ऐसे इस्तेमाल करते हैं जैसे किसी की तारीफ कर रहे हो.....दुखद है.."
Regards
अरे भैय्या, शरम काहे की! कल तक गलबहियां डाले राज कर रहे थे आज गाली गलौच पर उतर आये हैं और वह भी सड़क पर। जब ये ‘प्रौढ़’ नेता ही ऐसी भाषा का प्रयोग करें तो आज के ‘लौंडे’ कैसी भाषा सीखेंगे? :)
वास्तव मे टी वी वालॊ को पैसा चाहिए और नेताओ को वोट।अब इसके लिए कौन कितना नीचे तक गिरता जाएगा कोई कह नही सकता।पता नही ये देश को किस ओर ले जा रहे हैं?आपने सही मुद्दा उठाया है।
आज, हाथ में माइक पकड़ते ही हर कोई बुद्धिजीवी हो जाता है. भाषा और विचारों की परिपकवता का महत्तव ही कहाँ है, एक ही सांस में ढेरों बातें कर डालने के इस धंधे में समय नहीं है भाई.
हालात बिल्कुल खराब हैं. बाजारवाद का कम्पिटिशन ही इसके लिये जिम्मेदार है, आखिर चैनलों को भी तो प्रोफ़िट कमाना है.
रामराम.
sab gir rahen hain to media kyon n gire, use bhi poora adhikar hai.
MTV Rodies की सही बात की अनिल कान्त जी ने... एक दिन यूँ ही देख रहा था... प्रतियोगिओं की बात चीत सुन कर मुझे खुद शर्म आ गयी.
... और एक कार्यक्रम है कलर्स पर... जहाँ बच्चों के मुंह से ऐसी ऐसी बातें सुनने को मिलती है कि बस.......
lagta hain tv ko A grade milne wala hain (kewal vyasko ke kiye)
PUSADKAR JI, BILKUL SAHI KAH RAHE HO.
इस युग में भाषा के कौमार्य को सुरक्षित रख पाने की आस भी छोड़ दीजिए भाई
समझ में नहीं आता कि टेलीविजन वाले इतना चीख चीख कर क्यों बोलते हैं।
बुरा न माने कोई तो कहता हूँ अपनी औकात भूल जाते है मिडिया के लोग
Gentleman !!
आप लोग रोज अनिल जी को पढते है रोज टिपीयाते है ,आपको इनकी भाषा कभी खराब नही लगी जब्की कई जगह इन्होने गाली भी दी है !!
और आज ये और बाकी सब भी गले फ़ाडे भाषा के प्रयोग की चिंता कर रहे है !! हा हा हा हा
आप सब लगे रहिये भाई !!
यू ही ना उंगली हमेशा उठाया किजीये
खर्चने के पहले कमाया किजीये !!
साहित्य को पढना लिखना .,ओर खूब पढना पहले पत्रकारिता का हिस्सा था .अब ????वैसे भी एंकर क्या पत्रकार हुए ?
सही कहा आपने.....अभी तक तो अपना ये हिंदी-ब्लौग जगत बचा हुआ था इससे, किंतु यहाँ भी उसी भाषा का पदार्पण हो चुका है अनिल जी
बहुत अच्छे से पेश किया आपने इसे.. आभार
electronic media mike ka upyog aise karta hai jaise bandook. Aisa lagta hai mahila anchor mein bhi ye bhed chaal ghush gai hai. Kya karein aaj kal do dost milte hain to abhivaadan bhi gaali galoj se hota hai. pata nahi isme unhe koi anand milta hai?
मुद्दा अच्छा उठाया है आपने
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