Wednesday, April 22, 2009

बढती पोलिटिकल ब्लैकमेलिंग,खरीद-फ़रोख्त और समझौतों के लिये ज़िम्मेदार कौन?

रोज़ नये बयान।रोज़ नये विवाद।रोज़ नये समझौते।रोज़ नये गठबंधन।रोज़ नये इक्वेशन,और उनमे उलझ कर रोज़ मरती ज़नता।आखिर इन सबके लिए ज़िम्मेदार है कौन? पोलिटिकल पार्टियां?पोलिटिशीयन या फ़िर पब्लिक?चुनाव के दौरान रोज़ हो रहे नये-नये तमाशों को देख ये सवाल मन मे बार-बार उमड़ता है कि आखिर बढती पोलिटिकल ब्लैकमेलिंग,खरीद-फ़रोख्त और समझौतों के लिये ज़िम्मेदार है कौन?

पिछ्लो कुछ सालों से देश के लोकतंत्र मे जो तमाशे हुयें उसकी कल्पना शायद अपनी जान की बाज़ी लगाकर देश को आज़ाद कराने वालो ने सपने मे भी नही की होगी।अगर उन्हे पता होता कि ऐसा होगा तो शायद वे आज़ादी दिलाने से पहले सोचते।संसद के अंदर गोलाबारी तो एक बार समझ मे आता है कि दुश्मनों ने की थी,मगर नोटों की नुमाईश तो हमारे ही लोगो ने की।उसके लिये तो पड़ोसी को गाली नही दे सकते।

क्या नही हुआ हाल के सालों मे पैसे लेकर सवाल पूछने से लेकर रिश्वतखोरी,दल-बदल जैसी गंदगी से एक नही कई बार तर-बतर हुआ है दुनिया का सबसे बड़ा?लोकतंत्र्।इस लोकतंत्र मे सब कुछ है सिर्फ़ लोक या लोग नही है।उनकी गरीबी,उनकी दुर्दशा,उनके हक़ की बात करने वालों की सात नही सत्तर पीढियों की गरीबी दूर हो गई है।और मज़े की बात है आज़ादी के बाद से भारत किसानो का देश है,ये गावों मे बसता है,जैसे निबंध और पाठ स्कूल से पढाते आने वाले लोगो ने न तो किसानो की सुध ली है और न गांवो की हालत सुधारी है।आज भी बिजली प्राथमिकता के आधार पर सिर्फ़ शहरो को ही दी जाती है।क्या उद्योगों को और शहरियो को ही बिजली लगती है,देहाती या ग्रामिण जिसे सबसे बड़ा वोट बैंक माना जाता है,उन्हे बिजली की ज़रुरत नही है,गर्मियो मे वे भट्टी से तपने वाले मकाने मे चने की तरह भुनते रहे और शहर मे लोग पंखे,कूलर और एसी मे ठंडक का मज़ा लें।

या तो बाढ,या फ़िर सूखा ये शायद नसीब बना दिया गया है इस देश के ज्यादातर लोगो का,ज्यादातर लोगो के मतों के भरोसे चलने वाली व्यवस्था मे। हर साल उनसे निप्टने के तमाशे होते हैं और हर साल राहत काम मे घोटाले।जिनको राह्त मिलनी चाहिये उन्हे कभी राहत नही मिली लेकिन उन्की मुसीबत को रोना रोने वालों को ज़रूर मलाई मिलती रही।इतना सब हो जाने के बाद भी जब भी चुनाव आता है,पता नही कैसे फ़िर से जनता का खून चूसने वाले फ़िर से उनका वोट चूसने मे सफ़ल हो जाते हैं।

आखिर क्यों सालो से पोलिटिकल ब्लैकमेलिंग और समझौते की परिस्थितियां बनी हुई है।आखिर अस्थिरता के इस दौर से कब निकलेगा लोकतंत्र?कब तक़ वो सरकार बनाने के नाम पर गठबंधनो के बनने-बिखरने का तमाशा देखता रहेगा। आखिर कब तक़ इस कवायद मे विभागो की बंदर-बांट होती रहेगी?आखिर जनता के फ़ैसले का मुट्ठी भर लोग अपने गणित और अपने हिसाब से कब तक़ फ़ायदा उठाते रहेंगे?आखिर कब तक़ हम सांसदो के बिकने-खरीदने का तमाशा देखते रहेंगे?आखिर कब तक़ इस देश की जनता के मतादेश का मज़ाक उड़ाया जाता रहेगा?

इन सब सवालो का बहुत ध्यान से जवाब खोज़े तो मेरे हिसाब से सबसे करीबी ज़वाब आता है,वो है,जब-तक़ पब्लिक यानी हम, एक स्थिर या बहुमत वाली सरकार नही चुन लेते तब-तक़ ये पोलिटिकल ब्लैक्मेलिंग चलती रहेगी।तब-तक़ पार्टियो को समझौते करने पड़ेंगे।तब-तक़ खरीद-फ़रोख्त होती रहेगी।मै समझता हूं कि लोकतंत्र को जकड़ चुकी इस बीमारी से मुक्ति का ये सबसे ताकतवर उपाय है और इसके लिये प्रयास् तो हमे यानी जनता को ही करना होगा।इस लिहाज़ से देखे तो सारे सवालो का जवाब भी जो निकल कर आता है वो ये है कि पोलिटिकल ब्लैकमेलिंग,खरीद-फ़रोख्त और समझौतो के लिये न तो पार्टियां ज़िम्मेदार है, और नाही पालिटिशियन,बल्कि ज़िम्मेदार है पब्लिक जो इतने सालों से अस्थिर सरकार के तमाशे,मज़बूरिया और बुराईया देख कर भी फ़िर से एक अस्थिर सरकार चुन लेती है,जिससे लोकतंत्र का खुले आम बाज़ार बनाने और सजाने वालो को फ़िर से मौका मिल जाता है।उस्के लिये अनुकूल परिस्थितियां हम बना कर दे रहे हैं इस लिये ज़िम्मेदार भी हम है। हो सकता है बहुत से विद्वान भाईयो और बहनो को मेरे विचार पसंद न आये और वे उससे सहमत न हो।ये उनका अधिकार है,मगर मुझे जैसा मह्सूस हुआ मैने बिल्कुल वैसा ही लिखा है।मै किसी पार्टि विशेष या विचारधारा विशेष का प्रचार भी नही कर रहा हूं और न ही उसका विरोध इस्लिये मैने लोकतंत्र को तमाशा बनाने वाले मदारियो के नामो का उल्लेख नही किया है क्योंकी उन्हे आप सब जान्ते हैं।आप की प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा क्योंकी उससे गल्तियों को सुधारने के साथ-साथ सीखने का भी मौका मिलता है।

12 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बाद में होने वाले ये गठबंधन नहीं हैं बल्कि ठगबंधन हैं जो सत्ता को पाने के लिये जनता को ठगने का उपक्रम करते हैं.

ताऊ रामपुरिया said...

मेरे हिसाब से सबसे करीबी ज़वाब आता है,वो है,जब-तक़ पब्लिक यानी हम, एक स्थिर या बहुमत वाली सरकार नही चुन लेते तब-तक़ ये पोलिटिकल ब्लैक्मेलिंग चलती रहेगी।

बहुत सही कहा आपने.

रामराम.

Anonymous said...

अनिल जी,
क्‍या आप वाकई मानते हैं कि सही अर्थों में यह लोकतंत्र ही है जब आम लोगों की बुनियादी जरूरतें ही पूरी नहीं हो पातीं। सारे दल क्‍या एक ही थैली के चट़टे बट़टे नहीं हैं फिर किसी की भी सरकार बन जाये उससे बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला वह भले ही किसी एक पार्टी की हो या गठबंधन हो
आयुष

आशीष कुमार 'अंशु' said...

TAU JI,
JAB TAK KSHETRIY PARTIYAA HAI STHIR SARAKAAR KEE BAAT KARNAA BHEE MUJHE BEMAANI JAAN PADATI HAI...

अनिल कान्त said...

जनता को समझना चाहिए की जो नेता अपने आप को गरीब साबित करते हैं ...चुनाव के लिए लड़ते वक़्त ...वो खा खा कर लाल पड़े हुए हैं ...उनके बच्चे विलायत में पड़ते है ...राजसी थाट बात से रहते हैं ...और गर्मी में चलते ही जिनका दम निकलने लगता है ...जिनके भाषण भी आई.ए.एस. लिखते हैं ......और खुद को गरीबों का हिमायती बताते हैं ...ऐसे लोगों को कब तक वोट देते रहेंगे ......हम सबको जागना ही होगा

Unknown said...

हम यानी मतदाता ही जिम्मेदार है, वह जब तक "मेंढकों" को चुनता रहेगा, ऐसा ही चलेगा…

डॉ महेश सिन्हा said...

इसमें तो कोई विवाद नहीं होना चाहिए और अगर हम स्थिर सरकार नहीं चाहते तो उसका परिणाम भुगतते रहे . दोषी हम है क्योंकि हम बिखरे हुए हैं . अगर हम एक हो जाये तो किसकी हिम्मत जो मनमानी कर सके

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

जब तक रहेगा समोसे में आलू
तब तक रहेगा पालिटिक्स में लालू
ऐसे स्लोगन पर जब तक जनता ताली बजाती रहेगी, हमारी राजनीति का स्तर यही रहेगा और हमारे नेता भी इसी स्तर के रहेंगे... इसके जिम्मेदार हमारे नेता है जो साठ वर्षों की आज़ादी के बाद भी जनता को अनपढ़ ही रहने दिया और अपनी कुर्सी सम्भाले रहे। जिस दिन जनता शिक्षित हो जाएगी, तब तक यही दृश्य दिखते रहेंगे॥!!

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

क्या हम कुछ कर सकते है इस बारे में .................कुछ नहीं

गौतम राजऋषि said...

ये सवाल जवाब तो माँगते हैं अनील जी, मगर जवाब देने वाले कौन हो?

अनूप शुक्ल said...

जब तक लोग जागरूक नहीं होंगे कुछ नहीं बदलेगे अलबत्ता बदलने का भ्रम बना रहेगा।

NIRBHAY said...

Yeh bahoot badi "Vidambana" hai kee.. Insaan ke "Vote" ki keemat hai par yehan "Insaan " ki keemat nahi. Kya yehi elections ka Code of Conduct hai?
Kya isme Chunav Aayog ka hath nahi hai? jo kee elections ke code of conduct ke 49.0 code me state karta hai kee "Sabhi candidates ko nakarne ka option hai", use kya ek extra click button ki jagah EVM Machine me nahi mil sakti? Kyon special form bharne ka ya apne nam ko note karane ka chakkallas daal rakha hai? Kyon compell karta hai Chunao Aayog "Gupt" matdaan ko open /"Khula" karne ka? Wah apne ander kyon nahi jhankta, IAS,IPS officer ke transfer aur Varun Gandhi jaise immature logon ke statement par apni bhi immature reaction immediate deta hai.
Ek extra button EVM me laga kar toh dekho yaron, sari vyavastha hee badal jayegi.
Vote daalne ko advertisement se Badhya karta hai vahi is sambhandh me Jagriti kyon nahi laata, is kee kami ka fayda Communism & Naxalism leta hai aur Democracy ko "Horror Show" saabit karne lagta hai.
Excess Punjiwaad ka natija hum sabhi dekh hee rahe hain America ki haalat past aur sabhi desh bhi jamin chaat rahen hai.
Constitution ke "Niti Nirdeshak Tatvon" ko sahi dhang se lagoo kyon nahi kiya ja raha? kisi bhee party dwara.
Badi Tejee se desh ke Mahanagaron, Nagron, Tehsil places me "Slums" failti jaa rahi hain jahan par Insaan toh matra ek "Bilbilate Keede" kee tarah jeene ko vivash hai. WAh to matra poonjiwadiyon ka Hath aur vahi dusri taraf politicians ka "Vote Bank" ban kar rah gaya hai. Itni bhayanak tarike se Niti Nirdeshak Tatvon ko darkinar kar diya ja raha hai.
Badkismati yeh hai kee ki "Rajya ke Niti Nirdeshak Tatvon" ko Judiciary lagoo nahi kara sakti.
Maine toh suna tha kee Mil Baat kar Khane me jyada anand milta hai par is vyavastha me har koi Dusre ka chhin kar khata hai aur jama karta hai. Kabtak chalega?