एक महान विचारक और कथित समाज सुधारक ने अपने ब्लोग पर लिख मारा है कि छतीसगढ का मीडिया विनायक सेन के मामले मे खामोश है क्योंकि उसे चुप रहने का पेमेंट मिल रहा है। अब अगर हम कहे एक सुर मे विनायक सेन की रिहाई के लिये रोने वाले देश भर के रूदाली सिर्फ़ इसलिये रो रहे है क्योंकि उन्हे रोने का पेमेंट मिल रहा है तो बुरा लगेगा ना। हमको भी बुरा लग रहा है जब कोई दिल्ली मे बैठकर छतीसगढ के मीडिया जगत को बिकाऊ कह रहा है। अगर उन सज्जन के अनुसार डा विनायक सेन की रिहाई का गीत गाये तो ठीक वर्ना मीडिया बिकाऊ है?
ये कोई बात हुई कि आपको बिकाऊ होने का सर्टिफ़िकेट वे लोग देंगे जिनकी रेल हवाई जहाज और यंहा तक़ की बस की टिकट भी खुद के पैसे से नही खरीदी जाती,यानी हर चीज़ बाहर से मिलती है।बाहर माने घर के बाहर पडोस या मुहल्ले से नही बल्कि विदेशो से मिले पैसे से खरीदी जाती है।वे दिल्ली मे बैठ कर गिरोह चला रहे है विदेशी धन से और अपने शहर मे रह कर अपनी मेहनत से रोज़ी-रोटी चलाने वालो को बिकाऊ कह रहे हैं?
बिकाऊ कौन है?ये सारा देश जानता है।जिस मानवाधिकार का झूठा रोना वाले रूदालियो की आंखो से एक आंसू भी नही टपकता जब नक्सली निर्दोष आदिवासियो के सलवा-जुड़ूम आंदोलन के दौरान कैम्प पर हमला कर अबोध बच्चो का चाकू से गला रेत देते हैं।जब मर्ज़ी तब लैण्ड माईन बिछा कर पुलिस वालो को दुनिया से विदा कर देते हैं।क्या निर्दोष आदिवासियों का या पुलिस वालो का मारा जाना मानवाधिकार का हनन नही है?क्या उनके लिये एक आंसू बहाना भी पाप है?क्या आंसू सिर्फ़ विनायक सेन के लिये ही बहाये जाने चाहिये?क्या सिर्फ़ विनायक सेन के लिये बहाये जा रहे आंसू ही असली है?क्या विनायक सेन के अलावा किसी और के लिये आंसू बहाना बिकाऊ होने का सबूत है?
पता नही क्या सोच कर छतीसगढ के मीडिया को बिकाऊ कह डाला भाई ने।ज़रा अपने गिरेहबान मे भी झांक लेता तो शायद शर्म से डूब मरता।मगर उसे शर्म आये तो आये कैसे जिसके खाने-पीने से लेकर पहनने-ओढने तक़ का ईंतज़ाम विदेशी पैसों से हो रहा हो।जिन्हे फ़ूट-फ़ूट कर रोने के लिये जम्कर रुपये मिलते हों।जिनकी कीमत दूसरो को बिकाऊ कहने पर डबल हो जाती हो।खैर उन सज्जन के खिलाफ़ आज छ्त्तीसग़ढ पत्रकार महासंघ ने अपने पथरिया ईकाई द्वारा आयोजित सम्मेलन मे निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया है।वैसे वे उस लायक भी नही है क्योंकि उनके कनेक्शन सारे छतीसग़ढ के लोग अच्छी तरह से जान्ते हैं।
23 comments:
अनिल जी, आपकी हिम्मत की दाद देता हूँ। हम आम नागरिक है इसलिये खुलकर बोलने की हिम्मत नही कर पाते है। फिर भी हम आपके साथ है। छत्तीसगढ मे खुलकर नक्सलियो को समर्थन दे रहे Communist Goon Net (CGnet) पर भी कभी लिखियेगा। प्रदेश के भोले-भाले लोगो को फसाकर ये दिल्ली मे बैठे लोग नकसलियो का खुला समर्थन कर रहे है। पता नही हमारी चुनी सरकार किससे डरती है जो इस ग्रुप को हडकाती नही है।
भोला छत्तीसगढिया का मितान
यदि व्यक्ति-विशेष की रिहाई के बारे में बात उठेगी/दबेगी तो एक ही व्यक्ति का फायदा/नुकसान होगा। लेकिन यदि कानूनों और समाज के रवैये पर बात उठायी जाये तो सैकड़ों का भला होगा।
कई जनसेवक यानी एनजीओ वाले भी भ्रष्ट नेताओं से कम नहीं हैं। बल्कि ज्यादा बड़ेवाले हैं। नेताओं का भदेस अक्सर खुद ही उनकी पोल खोलता रहता है। ये चिकने चुपड़े सफेदपोश तो हमारे बीच में रहते हुए ग़ज़ब का खेल खेलते हैं।
मज़े की बात ये कि मैं ऐसे भी समाज सेवकों को जानता हूं जो अपनी जमात में पटरी न बैठने पर बड़े प्रेम से सेठाश्रित पत्रकारिता में इस वक्त चैन से गुज़र कर रहे हैं और वे सारे कारनामे कर रहे हैं जिन्हें लेकर वे पत्रकारों को कोसते थे। कुछ ऐसे भी हैं जो पत्रकारिता से अघा कर एनजीओ में चले जाते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो एनजीओ से इधर आ जाते हैं। वैसे एक बार एनजीओ का चस्का लगने के बाद लौटना मुश्किल होता है।
छत्तीसगढ़ के पत्रकारों पर बिकाऊ होने का आरोप लगाना हर हाल में निन्दनीय है।
छत्तीसगढ़ और देश के आदिवासी क्षेत्रों में जो कथित नक्सलवाद पनपा है उस का मूल वहीं है जहाँ वह पनप रहा है। शरीर में कोई भी संक्रामक जीवाणु या विषाणु तब तक कोई उत्पात नहीं कर सकता जब तक कि शरीर में प्रतिरोध क्षमता न हो। छत्तीसगढ़ में इस स्थिति का मुकाबला सलवा जुडूम के कैंप नहीं हो सकते। सरकार और छत्तीसगड़ की जनता को विश्वास दिलाना होगा कि जंगलों के आदिवासियों के जीवन के उत्थान के लिए वे कृत संकल्प हैं। उस के लिए वहाँ के पत्रकारों और जनता को सरकार पर दबाव बनाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए।
आपको बिकाऊ होने का सर्टिफ़िकेट वे लोग देंगे जिनकी रेल हवाई जहाज और यंहा तक़ की बस की टिकट भी खुद के पैसे से नही खरीदी जाती,यानी हर चीज़ बाहर से मिलती है।
सही कहा आपने. उनको इस बात का भी पेमेंट मिलता है.
रामराम.
नाम क्यों लिखा आपने उनका। मेरी राय है कि निंदा प्रस्ताव से कुछ नहीं होगा। किसी अच्छे से वकील से सलाह-मशविरा करके उन पर मानहानि का मुकदमा ठोकना चाहिये।
बढ़िया. ऐसे लोगों की जम कर मजम्मत की जानी चाहिए. कुछ दिन पहले संजीत त्रिपाठी का आलेख, जिसमें अरूंधति जैसों के धरना प्रदर्शन पर प्रश्नचिह्न लगाए गए थे, एक तथाकथित छत्तीसगढ़ी मेलिंग लिस्ट पर डाला था मैंने. परंतु वामपंथी-नक्सलपंथी झुकाव वाली सूची के मॉडरेटर महोदय जो बिनायक सेन को रिहा करने के समाचारों आग्रहों वाली चीजों को समूह में भरते रहते हैं, ने इस आलेख को प्रकाशित ही नहीं किया! हद है!!
ऐसे लोग जनता को मूर्ख नहीं बना सकते. दरअसल ऐसा काम कर वे अपने आपको ही मूर्ख, बल्कि महामूर्ख साबित कर रहे होते हैं.
बिनायक सेन? कौन?
मुझे इस बारे में ज्यादा जानकारी नही है. छतीसगढ़ के हालात से अनभिज्ञ हूँ ..परन्तु आपसे शब्द प्रति शब्द सहमत.
क्या लगता है चंदा खाने वालों को निंदा से कोई फर्क पड़ेगा ? जो परिजीवी बन चुके हैं उनकी सारी डोर उनके जीवनदाता के हाथ रहती है. जिस तरह एक नसेडी बिना नशे के छटपटाता है वैसे ही इनका हाल बिना चाटुकारिता किये होते है . कुछ लिखने से पहले जरा भी शर्म नहीं आई या इमान नहीं याद आया किसके बारे में क्या कह रहे हैं? ये किसी एक व्यक्ति नहीं पूरे समूह पर मिथ्यरोप है . अब ये इतने गिर जायेंगे सोचा नहीं था . ये तिलमिलाहट उसे ही होती है जिसके हाथ से तोते उड़ गए हों या मालिक ने लात लगाई हो.
एक बंधू ने को मेरे ब्लॉग में चित्र देखकर इतना कष्ट हुआ कि वो बात कहीं और लेगये!
छतीस गढ़ क्या देश के हर एक मीडिया ग्रुप पर बिकाऊ होने के आरोप लगते रहते हैं. ऐसे आरोप सभी वर्गों से आते हैं वामपंथी, दक्षिणपंथी, सेकुलर-स्यूडो सेकुलर, राष्ट्रवादी-स्यूडो राष्ट्रवादी ... सभी तरफ से
आपकी नज़र पड़ती ही होगी ढेर सारे इमेल्स और कुछ ब्लोगरों पर आपसे कुछ छिपा थोडी न है बशर्ते आप उन चीजों को स्वीकारते हों
हम छत्तीसगढ़ के पत्र-पत्रिकाएं नहीं पढ़ते इसलिए नहीं जानते कि वहाँ के मीडिया ने क्या और कैसा लिखा है पर आपका रुख विनायक सेन विरोधी सा लगता है
आपका रुख सही भी हो सकता है आखिर आप छत्तीसगढ़ के हैं पर जितना हम विनायक सेन को जानते हैं , उन पर ज्यादती हो रही है.
बात सच है आपकी ऐसे लोग निंदा के लायक भी नहीं है !
अनिल जी ये क्या कर दिया आपने...भई आपको पता होना चाहिये कि नक्सलवादी हिंसा कोई आतंकवादी हिंसा थोङे न हो जो ...आप ने ये सब लिख दिया..अरे भाई ये तो राजनीतिक हिंसा का ही ेक रूप है..क्यों कि इनके आका राजनिती मैं मीडिया मैं सब जगह बैठे है..इनको पूरा हक है लोगों के गले रेतने का..बम फोङने का..
ह्म्म, सो उन 'महान' विचारक की नज़र में छत्तीसगढ़ का मीडिया बिकाऊ है, सिर्फ़ एक अखबार को छोड़कर क्योंकि वह अखबार उनके राग अलापने वाले कॉलम को छापता है?
भैया इन सज्जन की कम्युनिटी के ही सदस्यों से पूछिएगा इनकी हकीकत। वे बताते हैं कि दर-असल बिकाऊ कौन हैं।
दूसरी बात यह कि इनके समर्थक अखबारात हों या वेबसाईट दूसरे पक्ष की बातों को खुलकर छापते ही नहीं लेकिन अपना पक्ष ऐसा महिमामंडित करेंगे कि पूछो मत्।
खुद की निष्पक्षता पर नज़र नहीं डालेंगे ये सब।
क्या भिगो-भिगो कर मारा है? कम से कम किसी ने तो सत्य लिखने का साहस किया.
विनायक सेन के समर्थन में मीडिया क्यों नहीं लिख रहा? अगर यह काम केवल एक समाचार पत्र के द्बारा किया जा रहा है तो समझ में आता है. लेकिन विचारक जी के अनुसार पूरे छत्तीसगढ़ की मीडिया ऐसा कर रही है. इतना कम्पीटीशन है इस मीडिया के क्षेत्र में. लेकिन इतने सारे समाचार पत्र एक ही तरह का आचरण क्यों कर रहे हैं?
दिल्ली में बैठे लोग इस बात का अंदाजा लगा पा रहे हैं?
यह बात तो ठीक ही लगती है कि मानवाधिकार केवल अंग्रेजी मीडिया का चहेता विषय है.
सच यही है कि ऐसे लोग निंदा के लायक भी नहीं हैं। ये तो कठपुतलियां हैं जिन्हें नचाने वाले हाथ नेपथ्य में होते हैं।
मुझे नहीं लगता यहाँ कोई बिनायक सेन का विरोध कर रहा है . विरोध उन ताकतों का हो रहा है जो इस मुद्दे को इतना बड़ा बना रहे हैं . इससे ही पता चलता है कि बिनायक सेन कितनी पहुँच वाले व्यक्ति हैं . जिनके समर्थन में अमेरिका की एमनेस्टी जैसी बड़ी संस्था हो तो उनकी पहुँच का अंदाजा लगाया जा सकता है . एमनेस्टी ने तो फैसला भी कर दिया कि बिनायक सेन निर्दोष हैं . अब तो भारत सरकार को अपने सारे मुक़दमे एमनेस्टी को सौप देने चाहिए . बहुत जल्द यहाँ की न्याय व्यवस्था सुधर जायेगी.
ये कई बार सुन चुका कि हम बिनायक सेन को जानते हैं कोई बताये तो सही उनकी जीवन कथा हम अज्ञानियों को .
छत्तीसगढ़ के लोग जितना उनके बारे में नहीं जानते उससे ज्यादा सारे विश्व के लोग जानते हैं . लोगों के विचार ये हैं कि आगरा में रहने से कोई ताजमहल के बारे में नहीं जान लेता , लेकिन महानगरों में बैठे प्रबुद्धजीवी हब्बल टेलेस्कोप से सब जान लेते हैं , आज के अंतर्यामी यही हैं कहा ये जाता है कि छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि है . क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज वेल्लोर, तमिलनाडु और आगे की कथा हमें भी सुना दें .
आप ये सब क्या लिख रहे हो. आप बिकाऊ हैं, हम बिकाऊ हैं. जो रेल, स्कूल, थाने उड़ा रहें है वे क्रांतिकारी है. समाज सुधारक है. सुरक्षा कर्मियों को मारने वाले देशभक्त है. उन्हे जेल में डालने वाले आतंकवादी है. उनका पक्ष लेने वाले महात्मा गाँधी के अनुयायी है. प्रभु ऐसा मत लिखा करो. जब फरिश्ता कह रहा है, बिकाऊ है तो है.
सही कहा अनिल भाई!
गाली हुज़ूर की तो लगती दुआओं जैसी
हम दुआ भी दें तो लगे है गाली!
बिकाऊ को सब अपने जैसे लगते है . नक्सल वादी ,माओवादी लाल झंडे के नीचे है इसलिए इंसानों का लाल खून उनेह अच्छा लगता है
ये मुद्दा तो प्रेस कौसिल में ले जाना चाहिए
Post a Comment