Monday, May 4, 2009

इससे अच्छा तो जेल मे ही सड़ा देते!

एक औरत राजधानी मे शरण के लिये भटक रही है।उसके ससुराल वालो ने उससे नाता तोड़ लिया है और मायके वाले घर-बार छोड़ कर जा चुके हैं।गांव वालो ने भी बहिष्कार कर दिया है और समाज के लोग भी संबंध रखना नही चाह्ते। ऐसी स्थिति मे आखिर वो जाये तो जाये कहां?आखिर उसका दोष क्या है? उसकी इस हालत के लिये ज़िम्मेदार कौन है?क्या पुलिस जिसने उसे 9 महिने पहले अपने मंदबुद्धी पति की हत्या मे जेल मे ठूंस दिया था या फ़िर वे सरकारी वकील जिनकी जिरह से उसे अदालत ने उसे दोषमुक्त करार देकर जेल से बाहर निकाला?अब वो बाह्र है और एक छ्त के लिये भटक रही है और कायदे से देखा जाय तो ऐसा लगता है इससे अच्छा तो उसे जेल मे ही सड़ा देते!

ये दर्दनाक मामला है राजधानी से बिल्कुल लगे या समझ लिजिये उसके बाहरी हिस्से के गांव सरोना खार का।वंहा की एक ग्रामीण और अशिक्षित महिला पर पुलिस ने अपने ही मंदबुद्धी पति की हत्या का आरोप जड़ दिया था।उसके पति की लाश मिली थी।उस्की सिर पर पत्थर पटक कर हत्या की गई थी।उस समय लगातार हत्या हुई थी और दबाव मे चल रही पुलिस ने पता नही क्या और कैसी जांच की और उसने पत्नी को हत्या के आरोप मे गिरफ़्तार कर अदालत मे पेश किया वंहा से उसे जेल भेज दिया गया।

वंहा से उसका दुर्भाग्य शूरू हुआ।एक तो गरीबी पहला अभिशाप और दूसरे अशिक्षा,तीसरे हत्या का आरोप और वो भी अपने ही पति की हत्या का। इस बात से नाराज़ ससुराल वालो ने उससे रिश्ता कह्तम कर दिया।बदनामी से डर कर मायके वाले भी रूठ गये। हालत ऐसी थी नही कि खुद वकिल रख लेती।उसकी ओर से कोई वकील नही देख उसे निःशुल्क विधिक सहायता दी गई और अधिवक्ता अमर गुरुबख्शानी ने उसके माम्ले की पैरवी की। अदालत मे पुलिस की कहानी टिक नही पाई और अदालत ने उस मात्र 21 साल की पुलिस द्वारा हत्या की आरोपी बनाई गई महिला को दोषमुक्त करार दे दिया।

मामला यंहा खतम नही हुआ,बल्कि यंहा से शुरू हुआ है। अब उस जवान महिला के सामने पहाड़ जैसी ज़िंदगी है और उसके पास सिर छुपाने के लिय छत तक़ नही है।महिला के मायके के ही एक अधिवक्ता यशवंत यदु ने उसे अपने घर मे शरण दी और उसके बाद अमर गुरूबख्शानी और यशवंत ने गांव जाकर उसे वंहा छोडना चाहा तो पूरा का पूरा गांव उसका विरोध करने के लिये तैयार मिला।उसके माय्के वाले घर पर ताला जड़ कर रोजी-रोटी के लिये सपरिवार गांव छोड़ चुके हैं।ससुराल मे वापसी तो अब असंभव है।

इस बात की जानकारी कलेक्टर को दी गई उन्होने पुलिस की मदद से उसे गांव भिजवाने की कोशिश की मगर फ़िर गांव वाले विरोध पर उतर आये।वंहा गांव और समाज मे विवाद की स्थिति बनती देख सभी वापस लौट आये।पुलिस और प्रशासन उसे सुरक्षा देने की बात तो कह रहा है मगर फ़िलहाल वो महिला अधिवक्ताओ की शरण मे हैऽब अधिवक्ताओ के सामने भी सवाल है एक महिला को आखिर वे कितने दिनो तक़ अपने घर मे शरण दे सकते हैं।इस सारे मामले मे उस महिला की स्थिति कठपुतली के समान हो गई है जिसे समय अपने हिसाब से नचा रहा है।कभी हत्या का आरोप?कभी जेल?फ़िर दोष्मुक्त?फ़िर समाज से बहिष्कार?फ़िर अधिवक्ताओ के घर शरण!फ़िर से नये ठिये यानी घर की तलाश?फ़िर रोजी-रोटी का संकट?फ़िर समाज मे घूम रहे नरपशुओं से खुद को बचाने की ज़द्दोज़हद?फ़िर ज़िंदा रहने का संघर्ष?क्या इस सब के लिये वो खुद दोषी है?या वो पुलिस वाले जिन्होने उस पर हत्या का आरोप जड़ा था?या फ़िर वे अधिवक्ता,जिन्होने उसे अदालत से बरी करा दिया?सारी बातो पर विचार करो तो ऐसा लगता है कि इससे अच्छा तो वो जेल मे ही थी जंहा उसके सर पर छ्त थी। चाहे जैसी भी हो दो व्क़्त की रोटी भी नसीब थी। रिश्तेदार तो अब भी नही है जेल मे कम से कम साथ मे बंद महिलाये तो थी। हो सकता है मेरी बातो से आप सभी सहम्त ना हो मगर मुझे जैसा लगा मैने वैसा ही लिखा।मेरी गल्ति बताई जायेगी तो उसे सुधारने का ज़रूर प्रयास करूंगा।

17 comments:

दिगम्बर नासवा said...

आपने जीवन के कड़वे सच को प्रस्तुत किया है...........जाने अनजाने हम उस को दोषी मान लेते हैं जो प्र्स्चारित हो जाता है किसी भी माध्यम से..............और इस बात में मीडिया की सब से ज्यादा भूमिका है...............हमारे समाज को भी इस बात से ऊपर उठाना पड़ेगा की सच और जूठ का फैंसला करने का अधि कार उन्हें नहीं है ..........बल्कि इस देश के कानून को है

vineeta said...

bahut dukhad...

Abhishek Ojha said...

पूरा का पूरा गांव जो उसका विरोध करने के लिये तैयार है. ये समाज के ठेकेदार. इनको और कोई काम नहीं होता क्या ?

पाथॆ said...

एक महिला क्यों, ऐसी कई महिलाएं और कई पुरुष होंगे, जिनकी जिंदगी पुलिस के निकम्मेपन और अपनी खाल बचाने की कोशिशों के चलते बरबादी की ओर बढ़ जाती है। जितनी निरंकुश अपने देश की पुलिस है, उसे देखते हुए ऐसी न जानें और कितनी कहानियां सामने आएंगी।
आपने उस बेबस, मजबूर महिला के बारे में लिखा। हो सकता है उसे कहीं से मदद मिल जाए। ताकि वो अपनी जिंदगी नए सिरे से जीने की व्यवस्था कर सके।

डॉ महेश सिन्हा said...

महिला शसक्तीकरण

दिनेशराय द्विवेदी said...

अनिल भाई, कहानी बहुत दर्दनाक है। लगता है देश में समाज नाम की संस्था समाप्त हो गई है, सरकार भी नहीं है। खैर!
राजधानी रायपुर में असहाय नारियों के लिए कोई तो संस्था होगी, जहाँ अस्थाई रूप से इस महिला को आश्रय दिया जा सके। हमारे यहाँ कोटा में तो इस तरह के किसी मामले में तुरंत करनीनगर विकास समिति द्वारा संचालित आश्रयगृह में अस्थाई आवास मिल सकता है। विशेष परिस्थिति में राज्य का भी दायित्व है कि इस तरह की महिला को राज्य के अधीन सेवा दे कर उस का पुनर्वास करे।

हरकीरत ' हीर' said...

कभी हत्या का आरोप?कभी जेल?फ़िर दोष्मुक्त?फ़िर समाज से बहिष्कार?फ़िर अधिवक्ताओ के घर शरण!फ़िर से नये ठिये यानी घर की तलाश?फ़िर रोजी-रोटी का संकट?फ़िर समाज मे घूम रहे नरपशुओं से खुद को बचाने की ज़द्दोज़हद?फ़िर ज़िंदा रहने का संघर्ष?क्या इस सब के लिये वो खुद दोषी है?या वो पुलिस वाले जिन्होने उस पर हत्या का आरोप जड़ा था?या फ़िर वे अधिवक्ता,जिन्होने उसे अदालत से बरी करा दिया.......???

क्या कहूँ......? निशब्द हूँ .....!!
अभी कल ही कुछ इसी तरह की नज़्म अपने ब्लॉग पे डाली है ...जिसे लिखते वक़्त न जाने कितनी बार आँखें नाम हुई होंगीं ...और अब ये आपकी पोस्ट......

अपनी ही नज़्म की अंतिम पंक्तियाँ पेश कर रही हूँ.......

रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुंआ -धुंआ सी
ज़बह होती रहेगीं ......!!

मग्लूब-पराजित ,जबह-वध

ताऊ रामपुरिया said...

जीवन की बहुत कडवी सच्चाई है.

रामराम.

नीरज मुसाफ़िर said...

मेरी गल्ति बताई जायेगी तो उसे सुधारने का ज़रूर प्रयास करूंगा।
.
आपकी गलती ये है कि आपने "गलती" ही गलत लिखा है.
वैसे इस मामले में पूरी तरह ससुराल वाले ही जिम्मेदार हैं. पुलिस सबूतों पर काम करती है. हत्या के समय किसी ससुरालिये ने कह दिया होगा या थोड़े बहुत सबूत भी दे दिए होंगे. इस तरह पुलिस ने अपना काम किया. वैसे भी हम कभी भी पुलिस से मानवता की उम्मीद नहीं कर सकते.

P.N. Subramanian said...

बड़ी दर्दनाक और निराशाजनक स्थितियां हैं

योगेन्द्र मौदगिल said...

सोचनीय, विचारणीय, दुखद प्रकरण... अभी सदियां लगेंगी हमें सुधरने में..

योगेन्द्र मौदगिल said...

सोचनीय, विचारणीय, दुखद प्रकरण... अभी सदियां लगेंगी हमें सुधरने में..

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

अजीब दर्दनाक दास्तान . एक बार को लगता है जेल में ही सही थी बेचारी

L.Goswami said...

किसी पत्नीहंता का सामाजिक बहिस्कार होते मैंने नही देखा ..लानत है ऐसे समाज पर ..छिः

Pawan Kumar Sharma said...

bahut khub. acha likhte hain aap

गौतम राजऋषि said...

हद ही हो गयी ये तो..जाने ये तमाम पाशविकता कहां जाकर थमेगी

NIRBHAY said...

yeh post padhkar hum "sihar" uthaten hai.
Kahan rahten hai hum?
Humari indian society & culture ka kya vazood hai?
Law enforcement agency kees tarah karya kar rahi hai?
Desh kahan ja raha hai?
Kya aise hee Aazad Hindosta kee "hasrat" thee humare veer shaheedon ki shahadat me?

ek bebas "Abla" naaree ko jo kee gramin parivesh se hai jhoothe case me voh bhee uske pati ke murder case me phans diya gaya. Nyayalay ne "Ba-Ijjat" usko reeha kiya aur samaj usko "Be-Ijjat" kar raha hai, kyon?
Matra is liye kee unhe us-samay kee "dooshwariyan" yaad hai jab yeh investigation chal raha tha aur "bar-m-bar" police Gaon ke chakkar laga rahi thi, har ko dar laga rahta tha kee hume na phansa de, "chalo achha hua uski Joru phansi baki kee jaan chhuti". Yehi basic thought rahen hai jo gaon walon ke dilo-dimag me utar gayen hai. Woh us Abla Naaree ko chah kar bhi accept nahi karna chahte.
Fir desh/sarkar kee kya jimmedari banti hai? kam se kam uske rehabilation kee jimmedari aakhir sarkar ko leni chahiye.
.
Jail aakhir jail hee hai, vyaktigat swatantra chhinee jati hai bhagwan ke liye use vapas jail kee jindagi ko yaad na dilaya jaye.

Samaj/society ko "sharm" aani chahiye lekin ab yeh kis parinde ka nam hai aisi soch ban gayi hai.

kahan hai woh naari mukti aandolan wale aur "Mombatti Chaap" log, kahan hai. Desh ke andar kya ho raha hai "jhank" kar dekho, yehi itna kam hai aap logon ke paas kee fursat nahi milegi, akhbar ke chand katarano me aur channel me thobda dikhane se fursat pao.

Advocate "Shree Amar gurubakhsani sahab" "nih-sandeh" badhaie ke patra hain. Unhono apna kaam imandari aur dedication se kar diya hai.
baki Sarkar/Samaj/aur humari jimmedari hai kee aage hum kis prakar se yeh karya karten hai.
yaad aata hai ek doha:-

"deen hee saban ko lakhat hai,
deene lakhey na koy.
jo deen ko lakhat hai,
so deenbandhu sam hoy."

ek sher bhee yaad aa raha hai:-

" jo ho sake toh bantiye apni masrrtein,
yeh sochana galat ke jamane se kya mila".

KADAM SABKO AAGE BADHANA HAI.