Sunday, June 7, 2009

प्लाईवुड बेचने वाले मज़ाक उड़ा रहे है न्यायपालिका का?

पेश है एक और माईक्रोपोस्ट्। प्लाईवुड बेचने वाली एक कंपनी अपने विज्ञापन मे खुले आम अदालती प्रक्रिया के लम्बे होने का मज़ाक उड़ा रही है।ये विज्ञापन काफ़ी समय से दिखाया जा रहा है और इसमे हमारी न्यायपलिका को अपना प्लाईवुड बेचने के लिये बतौर माडल इस्तेमाल किया गया है।इसमे कोई शक़ नही कि हमारी अदालतो में जजों,कर्मियों और अदालतों की कमी के कारण फ़ैसला होने मे देर तो होती है।मगर क्या इस्का मतलब ये समझा जाय कि हर मामले मे ज्वान बूढा हो जायेगा मगर,वकील बुढे हो जायेंगे,मगर प्लाईवुड वैसा का वैसा ही रहेगा।मेरी तो इस मामले मे ज्यादा समझ है नही आदरणीय द्विवेदी जी से इस मामले मे प्रकाश डालने का अनुरोध ज़रूर करूंगा और यदि इस पर रोक लगाने का कोई उपाय हो तो वो भी जानना चाहूंगा।

18 comments:

NIRBHAY said...

"nyay" ka fundamental principal hai kee Defence ko poora vaqt dena chahiye aur yeh anivarya bhee hai. Agar yeh na ho toh farjee banae hue cases ke kaie "balee" chadh jayenge.

वीनस केसरी said...

महोदय,
ये मज़ाक नहीं न्याय समाज पर व्यंग है

वीनस केसरी

राज भाटिय़ा said...

अनिल जी बहुत सुंदर, आप ने सही लिखा, द्विवेदी जी ही इस बारे मै राय दे सकते है

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह विज्ञापन हमारी न्याय व्यवस्था पर सटीक व्यंग्य है। एक स्वीकृत सत्य को कहने में किसी का मान-अपमान नहीं होता। लेकिन न्याय-व्यवस्था की इस से अधिक दुर्दशा नहीं हो सकती कि राज्य के एक आवश्यक अंग की हालत इतनी जर्जर हो जाए कि उस के प्रति व्यंग्य को एक उत्पादक अपना माल बेचने का साधन ही बना ले।

डॉ महेश सिन्हा said...

न्यायपालिका भी बेजार है जिस तरह से खुले आम आन्दोलन कर के न्याय पालिका पे दबाव बनाया जा रहा था ओर उसका परिणाम क्या हुआ जग जाहिर है

Unknown said...

भाऊ, मेरे मत से तो यह विज्ञापन सिर्फ़ एक कड़वी सच्चाई दर्शाता है, इसमें न्यायपालिका की अवमानना ढूंढना सही नहीं है। वैसे भी न्यायपालिका का क्या है, पता नहीं किस बयान या कृत्य से "अवमानित" हो जाये…। जज साहब तो लाट साहब होते हैं और लाट साहबों की अवमानना छोटी सी बात पर भी हो जाती है…, न्यायपालिका में फ़ैले भ्रष्टाचार की बात करने पर भी। "नाक पर गुस्सा" वाली मसल सुनी है ना आपने?

kaustubh said...

व्यंग्य नहीं, बुरा है व्यावसायिक इस्तेमाल
न्याय प्रणाली पर किया गया व्यंग्य बुरा नहीं, पर इसका व्यावसायिक हित में एक विज्ञापन के रूप में प्रयोग किया जाना जरूर आपत्तिजनक हो सकता है । वैसे भाई साहब हमारी न्यायपालिका में भी अंधेरगर्दी कम नहीं है । इस बारे में मैं सुरेश जी की टिप्पणी से भी सहमत हूं । इलाहाबाद हाईकोर्ट हमारे दफतर से चंद कदमों की दूरी पर ही है । इसलिए हमें तो वकीलों की अराजकता और बदतमीजियां हर दूसरे-चैथे रोज देखने को मिल जाती हैं । चाय-पान की दुकानों पर अदालतों में जजों से होने वाली सेटिंग-गेटिंग की चर्चाएं भी यहां आम हैं । कुल मिलाकर भ्रष्टाचार और अंधेरगर्दी किसी मायने में कम नहीं है यहां भी । कई बार लगता है कि कानून की पोथियों को कांख में दबाए ये ‘ कानून के रखवाले ’ वाकई निरंकुश हैं । अनिल भाई, आप एक वरिष्ठ पत्रकार और उससे भी बढ़कर एक साहसी और अंतर्रात्मा की आवाज सुनने वाले आदमी हैं । आइये कभी कुछ करते-लिखते हैं इसके खिलाफ मिलकर ।
- कोलाहल से कौस्तुभ

लोकेश Lokesh said...

मेरे मत से भी यह अवमानना नहीं एक सटीक व्यंग्य है

समयचक्र said...

बहुत ही सटीक विचार. धन्यवाद.

परमजीत सिहँ बाली said...

यह मजाक नही एक सही व्यंग्य है।न्याय का सही चित्रण किया है।

अनूप शुक्ल said...

ये भी एक सच है।

नितिन | Nitin Vyas said...

ये तो सच्चाई है

Sundip Kumar Singh said...

वैसे गलत क्या है. देश में कई ऐसे मामले चल रहे हैं जो बहुत ज्यादा लोगों के हित से जुड़े हुए हैं लेकिन उनका फैसला अबतक नहीं हो सका. ऐसे कई घोटाले हैं जो अभी भी अदालतों में लंबित हैं और उनके आरोपी दुनिया से निकल पड़े. क्या होगा उन मामलों में.....अगर इसपर कोई व्यंग्य हो भी रहा है तो इसमें बुरा क्या है. गलत बातें उठाने का हक़ है हमें...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

देरी हमारी न्याय प्रक्रिया के कारण होती है जिसे उच्चतम न्यायालय ने भी स्वीकार किया है। परंतु हमारी सरकार और न्यायविद इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं और सदियों पुरानी प्रणाली को बदलने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है। अभी भी समय है कि कानून को चुस्त-दुरुस्त करके तुरंत न्याय देने के प्रावधान बनाए जायें।

कडुवासच said...

... न्यायपालिका पर कठोराघात अथवा मजाक उडाने जैसी कोई बात विज्ञापन मे दिखाई नही जान पडती है किंतु आपने जो मुद्दा उठाया है वह प्रश्नचिन्ह जरुर खडा करता है !!!!!

उम्मतें said...

अनिल भाई , मैं , इस प्रकरण विशेष में द्विवेदी जी से शतप्रतिशत सहमत हूं !

.......विज्ञापनों के मामले में मेरा मानना ये है कि ये तो सेल्स प्रमोशन स्कीम के लिए किया जाने वाला प्रोपेगेंडा (प्रचार ) है ! लक्स कोज़ी पहने वाले को लाटरी लग जाती है , ट्रेक्टर वाला गार्जियन , लड़की दे देता है ! रूपा फ्रंट लाइन पहन कर लाइन (नियम ) तोड़ने का अधिकार मिल जाता है और 'रेमंड' पहने लड़के को ससुर की स्वीकृति हाथों हाथ ! अंडे खाने वाला बच्चा सचिन की हड्डियाँ तड़का देता है ! ....वगैरह वगैरह ! सारा का सारा कल्पना संसार / झूठ का महल ! सच सिर्फ एक ...'ग्राहकी' ! 'खुदा जाने' की सांगीतिक पृष्ठभूमि में युवा पेंटर लड़की के चित्र से धब्बे हटाने को मजबूर हो जाता है ! कोई तर्क नहीं सिर्फ उत्पाद के विक्रय की जुगत ! बालीवुड के नायक नायिका , हमारे पसंदीदा खिलाडी सारे के सारे लोग व्यावसायिकता में भागीदार ! समाज के ये आदर्श , पर इनमें से सच कौन बोलता है ! प्रोपेगेंडा ,फ़कत कमाई के लिए प्रोपेगेंडा !

अनिल भाई विषय अपने जबरदस्त पकडा है इस पर आगे भी लिखिये ! ये एक तरह की ठग विद्या है ! वैसे संतों ने किसी और 'माया' के लिए लिखा था पर मैं इसे विज्ञापनशीलता लिए उद्धृत कर रहा हूं ! 'माया' महा ठगिनी हम जानी !

शुभकामनाओं सहित !

पुनश्च : अनिल भाई सावधान , अब मैं भी एक विज्ञापन बनाने की सोच रहा हूं ! जिसमे बिना आरोप लगे 'टापिक हाइजैक' करने का ज्ञान ब्लागरों को बेचा जाना है !

admin said...

इसे व्यंग्य की श्रेणी में रखा जाता है, जो सत्य को ही दर्शाता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Alpana Verma said...

ek sateek vyangy hi hai..lekin vigyapan bana kar ve [plywood]apne product ki sale badha rahey hain..

Jis ke profit ka ek hissa Nyaypalika ko bhi claim kar lena chaheeye..[:)]-

democracy hai!