मोमबत्तियों वालो के पाखण्ड से खराब हुआ मूड अभी ठीक भी नही हुआ था कि एक और महापाखण्ड से सामना हो गया।लोगों का दोगलापन इतना ज्यादा ओरिजिनल था कि साले काले-काले ज़हरीले सांप भी उनके सामने लेट जाते और पूछते आखिर ऐसा कैसे कर लेते हैं आप लोग?मैं भी ऐसा ही सोचता रहा दिन भर और कुछ तबियत भी बिगड़नी शुरू हो गई थी सो चिडचिडापन बढता ही चल गया।
कल ईद थी।सुबह से लोगों ने इसे मनाने की तैयारियां शुरू कर दी थी।सिर्फ़ मुसलमान भाईयों ने ही नही घोर हिंदूओं ने भी।ईदगाह मे नमाज़ के बाद जो गले मिलने का सिलसिला चला वो सालों से वैसा ही चला आ रहा है।एक और कांग्रेस के नेताओं का झुण्ड तो दूसरी ओर भाजपाईयों का,और नई-नई पार्टियों के लोगो के साथ वे लोग भी हाज़िर थे जिनकी दुकान ही मुसलमानो को गालियां देने से चलती है।प्रेस फ़ोटोग्राफ़रों की भीड़ भी अपनी-अपनी पसंद के चेहरों को ईशारे से फ़्रेम मे आने की समझाईश देकर तब तक़ फ़्लैश चमकाते रही,जब तक़ उनको मन-माफ़िक मैनेज तस्वीर नही मिल गई।बच्चों को पहले से प्रोग्राम के मुताबिक़ सेट करके तैयार करके पहुंचे लोग,अजनबियों की भीड़ मे हैरान-परेशान बच्चों को जबरन मुस्कुराने के लिये मान-मनौव्वल से लेकर धमकी-चमकी तक़ देते लोग।आखिर कितनी मुस्किल से उन्होने अपने अपने बच्चों को कल किसी न किसी अख़बार मे फ़्रंट पेज पर दिखाने के लिये सेट किया था।
और सब कुछ वैसा ही हुआ।अखबार वैसे ही मैनेज तस्वीरों के साथ ईद के सोल्लास मनाये जाने की सूचना दे रहा था।एक अख़बार तो वर्दी मे सिख्ख और मुसलमान भाई की हंसते-खिलखिलाते गले मिलने की तस्वीर छाप कर शायद ये बताने की कोशिश कर रहा था कि कंही कोई गड़बड़ नही है।सब कुछ ठीक-ठाक है,यंहा भी वर्दीधारियों मे भी।लेकिन क्या ये तस्वीरें वही कहती नज़र आई जिसे बताने की गरज़ से उन्हे छापा गया?क्या इतना सब करने के बाद हम दिलों मे पनप रही नफ़रत की फ़सल को खतम करने मे सफ़ल हो पायें हैं?रटे-रटाये बयान,नेताओं से लेकर समाजसेवियो और सो काल्ड सोशलाईट्स के,क्या दिलों की बीच बढती दूरियां कम पा रहे हैं?क्या कि किसी वारदात के बाद ज़हर उगलते बयानों से कड़ुवी हुई खीर ऐसे फ़र्ज़ी-फ़ार्मल बयानों से मीठी हो सकती है?बहुत से सवाल कल से मेरे सर्दी,खांसी और सांस की तक़लीफ़ से बीमार हो चले दिमाग पर और ज़ोर डालते रहे।
कल मैने देखा था कट्टर धार्मिक नेताओं को हंस कर गले मिलते और तस्वीर खिंचवाते?क्या सच मे वे गले मिल रहे थे या एक ऐतिहासिक घटना की रिहर्सल कर रहे थे!क्या सिर्फ़ फ़ार्मेलिटी के लिये गले मिलने से दिल मिल सकते हैं?क्या गले मिलने से दिलों का मैल धुल सकता है?क्या ये गले मिलने कि प्रेक्टिस तनाव के दिनो मे दुहराई जा सकती है?पता नही ऐसा,कैसे कर लेते हैं लोग?
कल हम लोगों का दोपहर का भोजन डा जवाद नक़वी के घर पर था।शानदार खाने मे कंही भी गले मिलने जैसी बनावट नही थी।बिरयानी से लेकर दालचा-रायता के साथ नान-वेज की कई और डिश भी थी और हमारे लिये भी सवादिष्ट शुद्ध शाकाहारी खाना था लेकिन अलग नही, एक साथ लगा हुआ था।खाने वालों मे हिंदू ज्यादा थे।हमारे ग्रुप मे भी ब्राह्मणो की बहुतायत है लेकिन उनमे से ज्यादा मांसाहारी हैं।स्वाद से ज्यादा प्यार से तरबतर दावत का भरपूर आनंद लेकर हम लोग बाहर निकले थे कि गोपाल ने कहा भैया आज असलम ने घर बुलाया है।असलम उसका ड्राइवर है और मैं भी उसे अपने साथ जबलपुर ले जा चुका हूं।
सब एक बार मे तैयार हो गये और बोले थोड़ा रूक कर चलते हैं।कुछ देर बाद पूरा ग्रुप असलम के घर था।असलम सब को जानता ही था।उसके घर पंहुचते ही उसकी नन्ही सी प्यारी सी गुड़िया जैसी बिटिया आई और सीधे मेरे पैर पडने लगी।वो मेरे ग्राऊंड(बास्केट बाल)की स्टूडेंट भी है।मैने उससे कहा नही बेटा आप लोगों मे पैर नही पड़ते।मेरे इतना कह्ते ही असलम के साथ-साथ पर्दे के पीछे से भी आवाज़ आई नही सर हम लोग ये सब नही मानते।आप उसके सर हैं और वो आपका सम्मान कर रही है।उस समय मुझे लगा कि वंदे मातरम का विरोध करने वाले पढे-लिखे विद्वानों को कम पढे-लिखे मगर ज्यादा समझदार असलम के घर लाऊ और सब दिखाऊं।असलम ने भी जी भर कर इंतज़ाम किया था।उससे गले मिलते समय मुझे वो ऐतिहासिक दृष्य नज़र नही आया,जिसमे किसी के पंजे बाघ के थे तो किसी के खंजर जैसे।असलम से गले मिलते समय वैसा ही लगा जैसे बर्सों पुराना दोस्त गले मिल रहा हो।उसके घर के व्यंजनो मे भी उसी प्यार का सवाद मिला जो डा नक़वी के घर की सितारा दावत मे मिला था।
वंहा से निकल कर हमारा ग्रुप शहर मे और भी मुसलिम दोस्तों से मिलता रहा लेकिन कंही कोई फ़ोटो-शोटो नही।कंही कोई दिखावा नही।कंही कोई फ़ारमेलिटी नही।शुद्ध प्यार जो सिर्फ़ दिखावे के गले मिलने से कभी नही मिल सकता।शायद मै गलत हो सकता हूं पर मुझे तो ऐसा ही लगा,आपको कैसा लगा बताईगा ज़रूर्।दो लाईनो के साथ बात खतम करता हूं।
हमसे मत किजिये दुश्मनों का गिला,
हम तो हैं दोस्तों के सताये हुये,
फ़िर रहे हैं यंहा आज कुछ मेहरबां,
आस्तीनों मे खंजर छुपाये हुये॥
22 comments:
जी आस्तीनों में खंजर छुपाये लोगों से ही अमन चैन का खतरा है !
अनिल भाई,
गले तो मिलते हैं पर दिल नही मिलते
खुश तो सब हैं पर खुशदिन नही मिलते
मिलो तो दिल से जियो तो जिंदादिली से
वंदे मातरम्।
अनिल जी,
दोस्ती ये भी सच्ची थी
आदर से पैरों में झुकना
उस से भी सच्चा था
उन का वहाँ जमाने के सामने
गले मिलना, फोटो खिंचवाना
भी सच्चा था।
बस खटकती थी तो उनकी
वो खूँखार मुस्कुराहट
कहती थी कितना उल्लू बनाया
हमने लोगों को,
इक दूजे से मरवाया
वो दुनिया को मिटाने को आतुर थे
इधर दुनियाँ को सब्ज
करने का जज्बा था
दोस्ती ये भी सच्ची थी
दोस्ती वो भी सच्ची थी।
ye gale milne wale neta darasal do munh wale saanp hai...jo foto ke liye har jagah pahunch jate hai...
"नही सर हम लोग ये सब नही मानते"
असलम और उसके परिवार के जज्बे को सलाम
अनिल जी,
सच तो सिर्फ़ यही है जो आपने बयान किया आज भी आम लोगों में मजहब , भाषा, जाति को लेकर द्वेष वैसा नहीं है जैसा इन राजनितिज्ञों द्वारा बताया दिखाया जाता है ..
अजय कुमार झा
'फोटो शूटआउट शो'की लाइव कमेंट्री सुनते / पढ़ते बुरा हाल है,पेट दुखने लगा है हँसते हँसते !
अनिल भाई इस 'द्वैध' पर क्या कमेन्ट करूँ !
अनिल जी,
उन्हीं खंजरों से तो बच कर रहना और रखना है।
किसी के पंजे बाघ के थे तो किसी के खंजर जैसे!
यही सब तो है आज के माहौल की राजनीति में।
असलम के परिवार जैसों की भावनायों का अभिनन्दन
बी एस पाबला
फ़िर रहे हैं यंहा आज कुछ मेहरबां,
आस्तीनों मे खंजर छुपाये हुये॥
जब तक उन्हें इत्मीनान है कि क़ानून-व्यवस्था, प्रशासन और इच्छाशक्ति की कमियों के रहते वे अपने खंजर चलाते रह सकते हैं और बारूदी सुरंगें बिछाते रह सकते हैं, तब तक वे सुधरने वाले नहीं: शठे शाठ्यम समाचरेत
لاتوں کے بھوت باتوں سے نہیں مانتے
भाईसाहब, जिन महा सापों का जिक्र आपने किया है यदि वे ही सुधर जाएँ तो समस्या ही निपट जाए.
अनिल जी आप ने सही कहा, ओर मै भी अपनी हर टिपण्णी मै हमेशा यही कहता हुं की आम आदमी तो सब हमारी तरह से ही है वो चाहे किसी भी धर्म से हो, सभी एक दुसरे के धर्म की इज्जत करते है, ओर मेने तो दुनिया भर के लोगो को अलग अलग देखा है, लडवाने वाले यह नेता है जो चार पत्थर इधर से तो चार पत्थर उधर से फ़ेंक कर दंगा फ़साद करवाते है, ओर अपनी सीट सलामत रखते है, बस अब जनता को इन की यह चाले समझ आनी चाहिये.
धन्यवाद आप का इस सुंदर लेख के लिये
आदरणीय अनिल भैया......
बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट..... मैं तो आपके प्यार से अभिभूत हूँ..... बस ऐसे ही आशीर्वाद और प्यार अपने इस छोटे भाई पर सदैव बनाये रखिये.....
सादर
महफूज़.....
ईद की बधाई।
अनिल भाई,
गर हम ही हम हैं तो क्या हम हैं,
गर तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो...
साथ बैठो तो बात बने वरना पहले से ही क्या कम गम हैं...
जय हिंद...
ईद मुबारक, हम भी तो यही कह रहें हैं, इन कुर्सी के भूखे नेताओ से बच के रहो, इनको ना महगाई की फ़िक्र है ना आम आदमी की, बस इन की एनर्जी तो भाषा और संस्कृति बचाने मैं खर्च हो रही है,
लोग टूट जाते हैं इक घर बनाने मैं
तुम तरस नही खाते बस्तिया जलाने मैं
अनिल जी,
यही तो अपने हर हाट, गली, मोहल्ले और चौपालों पर पनपने वाला भारत...मुझे अभी भी याद हैं मेरे पिताजी के मित्र सिद्दीकी अंकल जो हर ईद में अपने बच्चों के साथ हमे भी इदी दिया करते थे... और हमारे पिताजी हर हिन्दू पर्व पर मेले के लिए उनके बच्चों को पैसे...बरेली, लखनऊ, गोरखपुर और उदयपुर रहते हुए मैंने यह संस्कृति भी देखी और (सियासी ) रंग चढ़े इसके विकृत रूप भी...पर बस ईश्वर से प्रार्थना हैं की आमजन को सैदव सदबुधि प्रदान करे और आपसी भाईचारा पनपता रहे...
कंही कोई गड़बड़ नही है।सब कुछ ठीक-ठाक है..
और आप दिल जला रहें है.... :)
कभी कभी लगता है पाखण्ड पर दुनिया चलती है.
फ़िर रहे हैं यंहा आज कुछ मेहरबां,
आस्तीनों मे खंजर छुपाये हुये ....
आज अपने देश वासियों को ऐसे ही आस्तीन में छुपाए खंजर वालों से सावधान रहने की ज़रूरत है .......
अनगिनत मुखौटे लगाये इंसानों के बीच आप जैसे सीधे सच्चे इंसान इस दुनिया में भी है यह क्या इस दुनिया के टिके रहने के लिये काफी नहीं है ?
कास कि ऐसा जज़बा हर एक के दिल में हो...तो मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना- कितना सार्थक होता॥
मैने सोचा नई पोस्ट आ गई होगी ..चलो अब आ ही गया हूँ तो सलाम करता चलूँ ....
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