छत्तीसगढ के डीजीपी विश्वरंजन के बारे मे प्रसिद्ध?जनहित?वकील प्रशांत भूषण ने यंहा कहा कि उन्हे गोली मार दी जायेगी या वे जेल जायेंगे।अब सवाल ये उठता है कि उन्हे कैसे पता कि डीजीपी की मौत गोली लगने से होगी और अगर नही होगी तो वे जेल जायेंगे।एक कथित जिम्मेदार जनहित वकील का ये कहना इस बात के संकेत तो दे ही रहा है कि दाल में कुछ काला है।या तो उन्हे अपने क्लाईंट कथित मानवाधिकारवादियों या वे जिनके समर्थन मे छत्तीसगढ आ रहे हैं,उन नक्स्लियों से उन्हे हिंट मिल चुका है गोली मारने के बारे मे या फ़िर एडवांस मिल चुका है डीजीपी के खिलाफ़ अदालती मुक़दमेबाज़ी शुरू करने के लिये।अगर ऐसा नही है तो कोई भी इतना दावे से कैसे कह सकता है कि फ़लाने को गोली मार दी जायेगी और वे मर जायेंगे,ऐसा तो सड़क छाप मिट्ठूबाज़ ज्योतिषी भी दावा नही करते हैं तो फ़िर एक ज़िम्मेदार वकील ये सब भविष्यवाणी कैसे कर सकता है?
खैर ये तो सनसनीखेज बयान है ही उसके साथ ही उनकी एक बात और गौर करने वाली है।उन्होने यंहा के मीडिया को गैर जिम्मेदार कहा और उन्होने बाक़ायदा मीडिया का वर्गीकरण करते हुये कथित राष्ट्रीय मीडिया को सही ठहराया।अब बताईये भला प्रशांत भूषण जी को कौन समझाये कि जिसे वे राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं उसे फ़ीडबैक कंहा से मिलता है।क्या दिल्ली मे बैठे लोगों को बस्तर के रिमोट एरिया मे होने वाली बात जादू के आईने पर नज़र आती है?या फ़िर जो उनके क्लाईंट के स्पांसरड टूर पर उनके क्लाईंट द्वारा दिखाई गई चीज़ों के अलावा क्या नज़र आता है?उनके क्लाईंट क्यों अपने साथ कथित ज़िम्मेदार मीडिया को अपने दौरे मे साथ लेकर चलते हैं?क्यों वे उन जगहों पर अलग से दौरा नही करते?बस्तर का गरीब आदिवासी उन्हे एअर टिकिट कंहा से दे सकता है?मंहगी शराब,महंगी एसी ठहरने की व्यवस्था,घूमने के लिये महंगी एसी कार कौन देता है सब जानते हैं?
जिस मीडिया को वे जिम्मेदार कह रहे हैं उसकी हालत आज किसी से छीपी नही है।महंगाई के बहाने थोक मे छंटनी की गई?छत्तीसगढ जैसे नक्सल प्रभावित राज्य मे राष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक भी स्टाफ़ नही है?शायद इसीलिये वे जिम्मेदार हैं?क्योंकि न उनका यंहा स्टाफ़ है और न नक्सलियों के उत्पात की खबर वे दिखाते हैं?मुम्बई बम धमाकों के समय उनकी भूमिका पर सारे देश मे बहस हो चुकी है?वकील साब जिस मीडिया को एक रात मे कैंप मे सोये आदिवासियों पर हमला और दर्ज़नों निर्दोष और निरिह आदिवासियों का क़त्ल नज़र तक़ नही आता?डेढ साल की बच्ची की गला रेत कर हत्या मानवाधिकारवादियों को नज़र नही आती?नाव मे गश्त कर मल्कानगिरी के पहाडों मे 40 से ज्यादा जवानो को रात के अंधेरे मे घेर कर डुबो देने जैसी कायराना हरक़त विजियुल के अभाव मे नेशनल न्यूज़ नही बनती नज़र आती,वे तो आप के लिये ज़िम्मेदार होंगे ही वकील साब क्योंकि जाने-अंजाने वे आपके क्लाईंट का फ़ायदा जो कर रहे हैं।
आप क्या हर किसी को अपने फ़ायदे के लोग जिम्मेदार नज़र आते हैं वकील साब।अब भला आपको वो मीडिया क्यों जिम्मेदार लगने लगा जो सारी दुनिया को ये बता देता है कि नक्स्लियों ने पूरे बस्तर को अंधेरे मे डुबो दिया है।जो ये बताता है कि बिजली के अभाव मे पानी की किल्लत है,लोग परेशान हैं,अस्पताल बंद हो गये हैं,लोगों का जीना हराम हो गया है।अरे हां याद आया आप तो शायद जनहित वकील है ना?तो क्या बिजली,पानी,सड़क बस्तर के जन के हित का मामला नही है?नही है?अच्छा समझा मामला मोटी फ़ीस का है?हां तो फ़िर विदेशी फ़ंडिंग से चलने वाले एनजीओ और कथित समाजसेवी संगठनो जीतनी फ़ीस तो बस्तर का गरीब आदिवासी दे ही नही सकता तो फ़िर वंहा जनहित का मामला आयेगा ही कंहा से?आपके जनहित का तो मतलब बड़े-बड़े औद्योगिक घरानो को परेशान करने मे छीपा और विकास की गति मे ब्रेक लगाने से होने वाले विदेशी फ़ायदे मे छीपा हित है शायद?
जाने दिजीये वकील साब बस्तर के शोषण की लम्बी कहानी है जिसे आपके हिसाब से गैरजिम्मेदार लोकल मीडिया ही जोरदार ढंग से उठाता है?वो नक्सलियों और पुलिस दोनो के आतंक की चक्की मे पिस कर भी अपना काम कर रहा है।वो दिल्ली से आकर स्थिती को आपके क्लाईंट के चश्मे से नही देखता और न देखेगा।आप भी जनहित के काम तक़ फ़ीस के लिये करते होंगे शायद जभी तो आपको फ़ीस लेकर रिपोर्ट लिखने वाले जिम्मेदार नज़र आ रहे हैं और अपनी नौकरी और जान का खतरा मोल लेकर काम करने वाले आप को गैर जिम्मेदार नज़र आ रहे है क्योंकि वे फ़ीस नही लेते,साफ़-साफ़ कहूं आपही के शब्दों मे वे उनकी तरह बिकाऊ नही है जिन्हे आप मज़बूरी मे बिकाऊ नही कह पा रहे हैं और जिन्हे कह बिकाऊ कह रहे हैं उन्हे भी बिकाऊ कहने की शायद आपको फ़ीस मिली होगी।
हो सकता है कि आपका डीजीपी के खिलाफ़ दिया गया बयान भी मोटी फ़ीस के बदले आया हो।वरना आपकी डीजीपी से कोई पर्सनल अदावत तो है नही?फ़िर ऐसा क्या कर डाला डीजीपी ने कि आपने उनकी मौत की घोषणा कर डाली?ऐसा तो मेरे खयाल से आपके क्लाईंट मानवाधिकारवादी के समर्थक नक्सली भी नही करते?आपके बयान को आखिर समझे तों क्या समझें?क्या ये डीजीपी को उन पर होने वाले हमले की पूर्व चेतावनी है,जैसा कि माओवादी देते हैं?या ये उन्हे इन्डायरेक्ट धमकी है?या फ़िर आपको ऐसा होने की पूर्व सूचना मिल चुकी है?आपकी दूसरी बात जो उन्हे ज़िन्दा बच जाने जेल भेजे जाने की धमकी है शायद?इस बात के संकेत तो नही है कि उनके खिलाफ़ मानवाधिकारवादी फ़र्ज़ी मुकदमेबाज़ी की तैयारी कर रहे हैं और आपको ये सब पता हो?
जाने दिजीये वकील साब बात निकलेगी तो फ़िर बहुत दूर तलक़ चली जायेगी?एक बात याद रखिये किसी को भी गैर जिम्मेदार ठहराने से पहले खुद के गिरेबां मे झांकना चाहिये।आप से हमारी कोई दुश्मनी नही है लेकिन मीडिया के प्रति आपका दुराग्रह ये साबित करता है कि आपको वही सब नज़र आ सकता है जो आपको फ़ीस देने वालों को नज़र आता है।फ़िर जिसे पीलिया हो गया उससे सफ़ेदी के बारे मे क्या बात की जाये?
21 comments:
अनिल भैया-यह तो सीधा-सीधा किसी प्रदेश के डीजीपी को धमकाने का मामला बनता है। इस तरह की धमकी देकर ये लोग पुलिस का मनोबल तोडने का प्रयास कर रहे है। जब सीधा डीजिपी को धमकाया जा सकता है तो आम पुलिस की क्या बात करें।
आपने सही कहा-जब बात निकलेगी तो दूर तक जाएगी।
देखा जाये तो जवाब भी आप ही दे रहे थे भाईसाहब,
प्रसिद्द? जनहित?
ये दो शब्द और उस पर "?" का निशान सब कह जाता है..................
डीजीपी को तो इन्हे धमकी के आरोप में गिरफ्तार कर लेना चाहिए . आज ही पढ़ा देश के मुख्य न्यायाधीश का बयान कि प्रभावशाली लोग मुक़दमे की कार्यवाही प्रभावित करते हैं. ये बड़े वकील हैं तो प्रभावशाली भी होंगे .
बदला लेंगी आदिवासी बालाएँ
नोबेल मिलना चाहिये वकील साहब को.
इस जानकारी के लिए धन्यवाद।
aapne achchha likha hai. yahi kaaran to baahari log yahan aate hain to jaane ka naam nahin lete. ab aise logon ke khilaaf ekjutta dikhani hi hogi, hum hamesha ki tarah aapke saath hain. aap aadesh karen to main kamaan samhaalne ko bhi taiyyar hun.
प्रशांतभूषण का बयान बहुत आपत्तिजनक और गैर जिम्मेवाराना और निंदा के योग्य है।
गंभीर मुद्दा
बी एस पाबला
हम भी ललित भाई की टिपण्णि से सहमत है, आगे आप ने बहुत अच्छी तरह से ओर सही धंग से सारी बार लिखी.
धन्यवाद
अनिल जी इसे कहते हैं रिन की धुलाई , एक दम झकाझक सफ़ेद कर देने वाली । हालांकि ,प्रशांत भूषण जी को पहले भी एक आध मुकदमों की बाबत जानता पढता रहा हूं ,मगर इस बार उनकी ये बात हमें भी नागवार गुजरी । और मुझे लगता है कि बात वही होगी , जो कुछ आपने दिखाया/बताया उससे अनजान होंगे , इसलिए कह गए होंगे
अजय कुमार झा
Aisa hi likha karo Bhau!
करारा जवाब दिया है आपने वकील साहब को. धन्यवाद भइया.
इससे सम्बन्धित कडी - प्रशांत भूषण ने कहा है
खुली नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का,
बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का...
जय हिंद...
बहुत गंभीर मामला है.
रामराम.
प्रशांत भूषण को पढ कर तो लगता है हमें आरती सजा कर नक्सलियों के आगे जाना चाहिये और "तुम ही हो माता पिता तुम्हीं हो" गाना चाहिये। जिस तरह से ये महानुभाव धमका रहे हैं इस बात का संज्ञान लिया जाना चाहिये।
मैं इस बात से आश्चर्य से भर उठता हूँ कि किस तरह ताल ठोंक कर झूठ बोला जाता है। नक्सली आतंकवादियों का खुलेआम समर्थन ही गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर रहा है वरना बस्तर क्या है इससे किसी के "बाप" को मतलब नहीं है।
दो बार नक्सलियों ने बस्तर संभाग को ट्रांसमिशन लाईन उखाड कर घुप्प अंधेरे में धकेल दिया.... पूरे देश का मीडिया भूत दिखाता रहा क्योंकि बस्तर से उनकी टी आर पी बढनी नहीं थी। टी आर पी तो बढती है जब कोई नक्सली पकडा जाता है और फिर उसकी पैरवी करने वाले रायपुर या दंतेवाडा में इकट्ठे होते हैं।
नक्सलियों नें कितने आदिवासियों को मारा यह तो किसी के लिये सवाल ही नहीं है? नक्सलियों नें कितने जवानों को शहीद किया यह तो किसी की पीडा ही नहीं? पीडा है कि नक्सलियों के सफाये के लिये सरकार गंभीर हो रही है।
नक्सली हैं तो बहुतों की दुकाने हैं फिर उनका क्या होगा? कौन उनकी वैचारिक बकवास पर "कवरेज" देगा?
आदिवासियों ने अनेकों बार अपनी आवाज बुलंद की है कि नक्सली और इस तरह के "इम्पोर्टेड" प्रवक्ता उन्हे नहीं चाहिये। सलवा जुडुम नक्सलियों की खिलाफत है और हाल में मेधा पाटकर और उनके साथियों को भी जिस तरह आदिवासियों नें बाहर का रास्ता दिखाया है वह एक चेतावनी है कि जुबानी जुगाली सच को ढक नही सकती।
ओपरेशन ग्रीन हंट आवश्यकता है और प्रशांत भूषण जैसे लोगों की बौखलाहट समझी जा सकती है।
प्रशांत भूषण की टिप्पणी अमर्यादित और असंवैधानिक है । एक सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता के रूप में नाजायज और गैरजिम्मेदारानापूर्ण फतवा है । दरअसल प्रशांत भूषण की टिप्पणी को उस कड़ी में देखा जाना चाहिए जिसमें क्रमशः 1. नक्सलियों का बस्तर में आतंक, हिंसा व विकास विरोधी गतिविधियाँ 2. भारत और राज्य सरकार द्वारा नक्सलियों से मुक्ति हेतु संयुक्त अभियान की कार्यवाही 3. संयुक्त आपरेशन के विरोध के क्रम में तथाकथित मानवाधिकारवादियों का देशभर में बौद्धिक हंगामा व उसी तारतम्य में गांधीवादी एनजीओ हिमांशु कुमार का भ्रामक, नक्सली अंदाजवाली जनसुनवाई का आदिवासियों द्वारा घोर विरोध 4. उपवास के दौरान ही लापता हो जानेवाले हिमांशु के आव्हान पर मेधा पाटकर आदि सामाजिक कार्यकर्ताओं के दंतेवाड़ा पहुँचने पर आदिवासियों द्वारा विरोध 5. कथित मानवाधिकारवादी कॉलीन गोन्सालविस द्वारा बिलासपुर में अधिवक्ताओं के समक्ष न्यायालय पर नक्सलवाद के विरोधी होने के अमर्यादित चीख-पुकार आदि शामिल हैं जो एक ही हफ्ते में राज्य में घटा है । प्रशांत भूषण की टिप्पणी अगला पायदान ही था, जिसमें उन्होंने पहली बार किसी डीजीपी को मार दिये जाने का फरमान जारी किया है । इसलिए मेधा पाटकर सहित ऐसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का विरोध जायज है और किसी भी तरह प्रायोजित नहीं है। हिंसा से प्रभावित लोगों को बचाने के लिए जिस पुलिस को अपने सैकड़ो जवान गंवाने पड़ रहे हों यदि वह मेधा पाटकर के जन विरोध का थोड़ा आनंद ले लेती है तो उसमें बुराई क्या है ? खास कर तब जब ये नक्सली हिंसा का प्रकारांतर से सपोर्ट करते हैं । केवल एक दो पुलिसिया कमजोरी का उदाहरण देकर बस्तर में आदिवासियों को बचाने के अभियान को ध्वस्त करना चाहते हैं ।
मूल बात पर आऊँ - दुखद पहलू तो यह है कि यह प्रलाप उन्होंने राज्य के जाने-माने वकील व साहित्यकार श्री कनक तिवारी के घर किया । वह भी राज्य के वरिष्ठ पत्रकार व हिंदी ग्रंथ अकादमी के संचालक श्री रमेश नैयर, साहित्यकार श्री सुशील त्रिवेदी, पत्रकार श्री रूचिर गर्ग, श्री अनल जी, आदि के सामने । वैसे कनक जी कहते हैं कि वे श्री भूषण से पहली बार मिले और उन्हें इस बात का दुख है कि उनकी उपस्थिति में ऐसा हुआ । किन्तु मैं लोकायत में कुछ ही दिन पहले छपे श्री कनक जी की उस टिप्पणी को भी याद करता हूँ जिसमें उन्होंने विश्वरंजन के साहित्यकार होने को कटघरे में खड़े करने की कोशिश की है और इतना ही नहीं प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान और उससे जुड़े साहित्यकारों को भी । खैर... हमें या कम से कम मुझे भी साहित्यकार होने या न होने के लिए किसी वकील के सार्टिफिकेट की कोई ज़रूरत कतई नहीं । कई बार लगता है कनकजी जैसे लोग सूरत बदलने के लिए नहीं सिर्फ हंगामा करने के मकसद कर्म करते हैं । (दुष्यंत कुमार की आत्मा को ईश्वर शांति प्रदान करे कि उनके मुरीद ही उन्हें निपटाने पर तुले हैं ।) दुखद यह भी है कि मीडिया के जागरूक प्रतिनिधियों की उपस्थिति में ही स्थानीय मीडिया को माँ-बहिन करने के बाद भी अब तक नैयरजी, त्रिवेदीजी, गर्ग जी, अनल जी आदि की टिप्पणी राज्य के जागरूक जनता के लिए अब तक नहीं आयी है । शायद न भी आये । यह दीगर बात है कि सुशील त्रिवेदी जी मुझे कह रहे थे कि प्रशांत भूषण को उन्होंने ही कटघरे में उस वक्त खड़े करने की कोशिश की थी । और शायद रूचिर गर्ग भी यही कहें । पर जनता कैसे जानेगी कि उन्होंने प्रशांत भूषण जैसे गैरजिम्मेदार वकील को राज्य के खिलाफ टिप्पणी पर विरोध जताया है ?
आप पहले पत्रकार हैं जो भूषण के गर्दन पर हाथ डाले हैं । यह भूषण नहीं प्रदूषण है समाज का । देश का, जिस प्रदूषण को प्रायोजित तौर पर राज्य का कोई वकील अपने घर में बैठाकर राज्य के डीजीपी और साहित्यकार के मारे जाने का फतवा नहीं सुनेगा और ताली भी नहीं बजायेगा ।
आपका यह कार्य न केवल राज्य की अस्मिता के रक्षार्थ कदम है, बल्कि यह बेस्ट मीडिया नहीं, बेस्ट मीडिया वर्मर की नैतिकता भी है । ऐसे तत्वों की ऐसी टिप्पणी का एक मतलब राज्य की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर जनता के मन में आशंका भर देना है । अब तक जिसे नक्सली नेता नहीं कह सके, उसे सुप्रीम कोर्ट के उस वकील न कह दिया जो मानवाधिकार के नाम पर विदेशी प्रोजेक्ट का पैसा खाता है । शायद यही माओवादी भी चाहते हैं कि बस्तर में मानवाधिकार के प्रश्नों पर राज्य व्यवस्था घिरी रहे और माओवादी के जनहितैषी होने का भ्रम बना रहे ।
पुसदकर जी, उसने राज्य की मीडिया को भी कटघरे में खड़े करके तीन लात मार दिया है । आशा है आपके नेतृत्व में उसकी निंदा राज्य भर के शब्दजीवी करेंगे, बहुत जल्द । आमीन...
प्रशांत भूषण पर पहले भी सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का दंड मिल चुका है । शायद यह कनक तिवारी को पता नहीं । भूषण जैसे सिरफिरे वकील की टिप्पणी को राज्य में प्रसारित करने के पीछे कनक तिवारी जैसे वकीलों की भूमिका का भी परीक्षण होना चाहिए । कनक तिवारी जैसे लोग पहले कांग्रेसी थे । फिर गांधीवादी बनकर दिग्गीराजा को बेवकूफ बनाते रहे । कुछ प्रयास किया था रमन सिंह के साथ जुड़ जायें । चली नहीं । अब माओवादी टिप्पणी के लिए अपने घर में वातावरण देकर राज्य की फिजा को जहरीला बना रहे हैं । दोष सिर्फ प्रशांत भूषण का नहीं, उनका भी है जो ऐसे लोगों को अपने यहाँ बुलाते हैं । मित्रों को उनकी सुनने के लिए आमंत्रित करते हैं । फिर पेपर में छपवा कर लोगों को परेशान करते हैं । यह फर्जी राज्यहितैषी लोगों पर भी नजर जानी चाहिए...
जयप्रकाश जी को सादर नमन
यह खबर थी। हमने हेडलाइन्स से आगे नहीं पढ़ी। :)
naksliyo ke dalalo ko juta maro salo ko bharat yogi
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