Tuesday, January 26, 2010

खून की नदियां बहाना डेमोक्रेटिक और उनके समर्थकों का विरोध करने वाले अनडेमोक्रेटिक,वाट ए क्लासीफ़िकेशन सर जी!

कल एक फ़ोन आया।उधर जो विद्वान थे उन्होने बिना किसी औपचारिकता के रायपुर प्रेस कलब को अनडेमोक्रेटिक ठहरा दिया।कारण रायपुर प्रेस क्लब की बैठक मे लिया गया फ़ैसला था,जिसमे बाहर से आकर स्थानीय मीडिया को बिकाऊ और गैर ज़िम्मेदार कहने वालों का विरोध किया गया था।बैठक मे ये फ़ैसला भी लिया गया था कि ऐसे लोगों को और उनके समर्थकों को प्रेस क्लब अपना मंच नही
देगा।बस यही उन्हे नागवार गुज़रा।इसे उन्होने सीधे-सीधे अभिव्यक्ति पर हमला समझा और लगे ज़िरह करने।जिस तरह से वे ज़िरह कर रहे थे ऐसा लगता है कि वे स्वतंत्र या निष्पक्ष न हो कर उन लोगों के पैरवीकार हो जो बस्तर के हरी-भरी वादियों को खून से लाल क रहे हों।मुझे ये समझ नही आया कि घर मे घुस कर बेवज़ह बिना किसी ठोस आधार के हम सब लोगों को कोई अगर बिकाऊ कहता है तो उसका विरोध करना अनडेमोक्रेटिक कैसे हो गया?या फ़िर हमारे प्रदेश मे खून की होली खेलने वालों के पक्ष मे कांट्रेक्ट पर रोने वाले रूदाली डेमोक्रेट कैसे हो गये?जिनका डेमोक्रेसी पर विश्वास ही नही है,जो बंदूक की नोक पर या खूनी क्रांति के जरिये सत्ता हासिल करना चाहते हैं,उनका समर्थन करना डेमोक्रेटिक कैसे है?ऐसे लोगों को जो डेमोक्रेसी पर विश्वास नही करते,का विरोध अनडेमोक्रेटिक कैसे हो सकता है?


खैर जाने दिजिये! ऐसे लोगों के लिये सिर्फ़ और सिर्फ़ ईश्वर से प्रार्थना ही की जा सकती है कि उन्हे थोड़ी बहुत सद्बुद्धी दे।वैसे जिस फ़ैसले को सारे छत्तीसगढ मे समर्थन मिल रहा है और जिस फ़ैसले पर शहर के बुद्धिजीवियों ने भी एक बैठक लेकर समर्थन की मुहर लगा दी वो फ़ैसला अनडेमोक्रेटिक कैसे हो सकता है?हो सकता है कि दिल्ली के सज्जन शायद दिल्ली यानी देश की राजधानी मे रहने के कारण देश के दूसरे हिस्सों मे रहने वाले लोगों से ज्यादा समझदार हों! या देश के अन्य छोटे शहरों मे रहने वाले लोग निपट गंवार या देहाती हो और वे ही सिर्फ़ होशियार हों!जो भी मुझे ये समझ नही आया दिल्ली मे बैठे लोगों को रायपुर प्रेस क्लब और उससे जुड़े साथियों के सक्रिय होते डेमोक्रेसी की चिंता क्यों सताने लगी?उन्हे इस बात पर कभी चिंता क्यों नही होती कि बस्तर के भीतरी क्षेत्र मे रात को ज़िंदगी ठहर जाती है।जंगलों में अब पक्षियों का कलरव नही बंदूक के फ़ायर गूंजते रहते हैं।शेर की दहाड़ तो कब की गायब हो चुकी है अब तो सिर्फ़ बारूदी सुरंगों के धमाके सुनाई देते हैं।अब जंगलों मे महुये की मदमस्त कर देने वाली खूश्बू नही बल्कि खून की बदबू फ़ैली हुई है।जंगल ऊपर से भले ही हरे दिखते हो अंदर जाओ तो खून से लाल हो चुके हैं।जिस आदिवासी के साथ हुये अन्याय की बात और वंहा विकास न किये जाने की आड़ लेकर खूनी संघर्ष चल रहा है उसी बस्तर मे स्कूल भवन,पंचायत भवन और विकास की ओर जाने वाली सड़कों को नक्सली बारूद से उड़ा दे रहे हैं।विकास की बात करते हैं तो स्कूल अस्पताल,पंचायत भवन और रेस्ट हाऊस क्यों तोड़े जा रहे हैं।सबसे चौंकाने वाली बात तो ये है बस्तरिहा के साथ अन्याय होने का रोना रोने वाले सभी रूदाली आंध्र-प्रदेश और दूसरे प्रांतो के हैं।बस्तर या छत्तीसगढ के लोगों को उनके नेतृत्व मे काम करना पड़ता है जिनके खुद के प्रदेश में विकास के लिये लड़ाई लडने के बहुत से कारण साफ़ नज़र आते हैं।मगर वे वंहा क्यों ऐसा करेंगे?वे तो वंहा तब संघर्ष करते थे जब वंहा कांग्रेस की सरकार नही होती थी।जब से वंहा कांग्रेस सत्ता मे आई है शायद विकास का पैमाना ही बदल गया है और उनके चशमे से विकास मे अब भाजपा शासित छत्तीसगढ और बीजद शासित उड़िसा ही बाकी रह गया है।

आखिर ये दोगला पन क्यों?



खैर ये उनका अपना मामला है लेकिन सिर्फ़ रायपुर प्रेस क्लब के ही विरोध करने से इतनी बैचैनी क्यों?इतनी तेज़ हलचल क्यों?यंहा के विरोध की शुरूआत से दिल्ली मे बैठे लोगों को तक़लीफ़ क्यों?उन्हे ये अनडेमोक्रेटिक नज़र आ रहा है क्यों?क्या चुपचाप गालिंया सुनना ही डेमोक्रेटिक होता है?मैने उन सज्जन को बार-बार बताने की कोशिश की,कि उन्हे हम बोलने से नही रोक रहे हैं।उन्हे जो भी बक़वास करना है करे लेकिन उन्हे हम अपने घर मे बैठ कर बक़वास करने नही देंगे।उन्हे ये भी बताया कि अगर हम लोग मानवाधिकारवादियों के विरोधी होते तो हम लोग प्रेस क्लब मे आई मेधा पाटकर,संदीप पाण्डेय का प्रायोजित विरोध करने वाले से लडते-भीड़ते नही।तमाशाई बनी पुलिस के सामने मेधा एण्ड कंपनी को मारपीट पर उतारू भीड से बचाकर सुरक्षित नही ले जाते और तो और उन्हे प्रेस क्लब मे कान्फ़्रेंस की अनुमति ही नही देते।मगर ये सब बातें उनके दिमाग मे क्यों घुसती भला।वे तो लगता है मोटी फ़ीस लेकर निर्दोष लोगों का खून बहाने वालों की पैरवी करने को डेमोक्रेसी मानने वाले विद्वान थे।


खैर जिसे जो समझना है समझे मुझे लगा कि गणतंत्र दिवस पर मैं भी इस नये क्लासीफ़िकेशन का मतलब आप लोगो से पूछ लूं। हो सकता है मुझे कुछ और नई परिभाषा जानने को मिल जाये।
खून की नदियां बहाना डेमोक्रेटिक और उनके समर्थकों का विरोध
करने वाले अनडेमोक्रेटिक,वाट ए क्लासीफ़िकेशन सर जी!

16 comments:

दीपक 'मशाल' said...

Samasya to ye bhi hai ki sarkar naxalwadiyon ko na pakad ke gareebon ko naxals kah ke maar rahi hai...
Ganatantra diwas par shubhkamnayen
Jai Hind...

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

पढ़ कर हैरानी हुई कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कुछ पैरोकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ही डरते हैं... सद्बुद्धी की केवल आशा या प्रार्थना ही की जा सकती है

संजय बेंगाणी said...

आप अनडेमोक्रेटिक भले. अब हथियार (कलम व झूठ का विरोध) नीचे रखना कायरता होगी.

Unknown said...

क्या शानदार लू उतारी है, सर जी… :)

SACCHAI said...

" shandar aalekh ..aapne aakrosh ko bakhubi se samne rakha hai .."

" badhiya post "

----- eksacchai { AAWAZ }

http://eksacchai.blogspot.com

राज भाटिय़ा said...

गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाऎँ
बहुत सुंदर लिखा आप ने कयाल को गये आप का लेख पढ कर, बहुत सुंदर

Unknown said...

"ऐसे लोगों के लिये सिर्फ़ और सिर्फ़ ईश्वर से प्रार्थना ही की जा सकती है कि उन्हे थोड़ी बहुत सद्बुद्धी दे।"

बिल्कुल सही!

राजीव रंजन प्रसाद said...

दिल्ली में समझदारी सिखाने वालों की कमी नहीं है अनिल जी आखिर देश के अधिकतम बुद्धी(?) जीवियों का जमावडा यहीं पर है :) छतीसगढ के पत्रकारों के निर्णय की जितनी प्रसंशा की जाये कम है।

Bharat yogi said...

chlo bhaiyya achchha hu delhi me rahkar bdi bdi bat karne valo ko pata chal raha hai,ab yaha unki dlali nahi chalne vali hai,,,

Bharat yogi said...

chlo bhaiyya achchha hu delhi me rahkar bdi bdi bat karne valo ko pata chal raha hai,ab yaha unki dlali nahi chalne vali hai,,,

Creative Manch said...

bahut sundar lekh...

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अनूप शुक्ल said...

आम मस्त रहिये जी। शानदार, बिन्दास। बाकी तो लोग कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे!

पंकज झा. said...

अपने स्वाभिमान हेतु तन खड़े रह कर रायपुर प्रेस क्लब ने अपना इतिहास स्वर्णिम कर लिया है. क्लब के रहनुमा के नाते आप साधुवाद के पात्र हैं... लाख मजबूर करे वक़्त का फिरऔन तुम्हे पर न मेरे दोस्त तुम सहरा को समंदर कहना. अनन्य-अशेष बधाई.

शरद कोकास said...

दुश्यंत का एक शेर याद आ रहा है...
" गिड़गिड़ाने का यहाँ कोई असर होता नहीं
पेट भरकर गालियाँ दो आह भर कर बद्दुआ "

ajay tripathi said...

Loktantra me sawtantrta ke mayne or usaka visavlesan press se aachcha KON SAMAJH SAKATA HAI BASTAR KE HALAT OR TATHAKATHIT SAMAJSEVIYO KI JAMAT KI HARKATE LAMBE SAMAY SE HUM LOG DEKH RAHE HAI PURE JIVAN SHASAN KE BADE BADE PADO PAR RAHE OR RITAYARD HO KAR NAHI PATA KISKE ESARE PAR YAHA AATE HAI AAPAKE KADM KO SADHUVAD 26 JAN. KI MANGAL KAMNAYE ajay tripathi

नीरज दीवान said...

ये बातें बेकार है कि दिल्ली में बुद्धिजीवियों का जमावड़ा है। दरअसल यहां देश के सबसे घाघ 543+250 इकट्ठा होते हैं। इसीलिए ये राजधानी कहलाती है। ब्लाग ने हरेक को आवाज़ दे दी है। इसी का लाभ उठाते चलें। यही कामना है बंधु।