सोनिया के नाम पर कांग्रेस कुम्भकर्णी नींद से जागी थी मगर पाखण्ड,झूठ और फ़रेब के नकली कुम्भ पर वो खामोश ही है।शायद चोर-चोर मौसेरे भाई कहावत का असली उदाहरण बन कर्।इस आयोजन मे आने वाले एक भी संत और साधू महात्मा?ने ये सवाल आज तक़ नही उठाया कि कुम्भ हर साल कैसे हो सकता है?क्या यंहा कुम्भ के आयोजन के लिये कोई धार्मिक आधार है?सिर्फ़ पांच साल हुये हैं इस कुम्भ को?इतना ताज़ा कुम्भ कैसे अस्तित्व मे आया?क्यों आया?किसके लिये आया?जैसे सवाल वंहा महानदी की रेत के नीचे दबे पड़े हुयें है।
राजधानी रायपुर से मात्र 45 किलोमीटर दूर है छत्तीसगढ का तीर्थराज राजिम।यंहा महानदी,पैरी और सोंढूर नदियों का पवित्र त्रिवेणी संगम है और फ़सल कटाई के बाद उत्सव मनाने के लिये पूर्णीमा को हर साल मेला लगा करता था जिसे हम लोग बचपन से पुन्नी मेला के नाम से जानते थे।पुन्नी याने पूनम का मेला।छोटे-मोटे मीनाबाज़ार और खाने-पीने वालों की फ़ौज़ यंहा जमा होती थी और आसपास के लोग इसका आनंद लिया करते थे।सदियों से चले आ रहे इस मेले को भाजपा ने सत्ता मे आते ही हाईजैक कर लिया और सीधे इसीके जरिये हिन्दू कार्ड खेलना शुरु कर दिया।ये खेल आज भी बदस्तूर जारी है।
यंहा देश के चार कुम्भों की तरह साधू-संतो की भीड़ खूद नही खिंची चली आती,बल्कि उन्हे निमंत्रण देकर बुलाया जाता है।निमंत्रण भी सूखा नही बल्कि आने-जाने के खर्च के अलावा मोटी दक्षिणा की गारंटी के साथ्।यंहा दर्शनार्थी,श्रद्धालू भी आये नही बुलाये जाते हैं।इसके लिये पब्लिसिटी कैम्पेन चलता है।सरकारी खजाने का मुंह खोल कर आलोचकों के मुंह बंद कर दिये जाते हैं।धर्म के नाम पर हो रहे अधर्म के खिलाह खुल सकने वाले मुंह मे पहले ही दक्षिणा ठूंस दी जाती है।भ्रष्टाचार का कुम्भ नही महाकुम्भ साबित होता जा रहा है ये नकली राजिम कुम्भ्।घोषणा के बावज़ूद आज तक़ मेला प्राधिकरण नही बनाया गया शायद हिस्सेदार बढाना नही चाहते भाई लोग।
सबसे दुखःद तो कुम्भ के बाद त्रिवेणी संगम की स्थिति होती है।महानदी का सीना चीर कर जगह-जगह सड़के बना दी जाती है जो बाद मे अपने मुरूम और गिट्टी की वजह से रूई जैसी नरम मखमली रेत मे फ़ोड़े-फ़ुंसियो की तरह नजर आती है।अव्यवस्था का तो ये आलम है कि लोग जंहा मौका मिलता है वंही शौचादि से निवृत हो लेते हैं।पता नही ऐसे समय मे पर्यावरणवादी कंहा होते हैं।शायद इसमे उनकी रूची भी बहुत ज्यादा नही होती।पोलिथीन,बचा-खुचा खाना,पकवान और मल-मूत्र की दुर्गंध कई दिनों तक़ नकली कुम्भ के पाप का सबूत देती रहती है।पता नही कब तक़ चलेगा ये अनास्था और अधर्म का मिलाजुला खेल्।जय हिंद,जय छत्तीसगढ्।
19 comments:
नकली ने असली को पीछे धकेल दिया है. हर चीज में.
विचारणीय पोस्ट !
इस दौर के भगवानों के खिलाफ आवाज़ बुलन्द करने का साहस ? साधुवाद ।
देखिये धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष इसमें से किसी न किसी की पूर्ति के लिए ही यह सब हो रहा होगा. पुरूषार्थ है जी. :)
अनिल जी! यह तो सरकारी कुम्भ हैं इसीलिये हर साल होता है।
अनिल जी! यह तो सरकारी कुम्भ हैं इसीलिये हर साल होता है।
आप ने पिछले साल मिलने पर इस नकली कुंभ का उल्लेख किया था। चाहे कांग्रेस और या भाजपा। ये दौर ऐसा है जब सब राजनैतिक दल स्वार्थों की राजनीति कर रहे हैं। लेकिन यह अधिक दिन चलने वाली नहीं है। जनता मूर्ख नहीं होती, वह सब पहचानती है।
वाह वाह - जय महाकुम्भ!
???
जाने कितने पाखंडों में जी रहे है हम।
तभी तो गंगा और यमुना मैली होकर सूख रही हैं।
जिम्मेदार कौन ---हम जनता ही तो। फिर विरोध कौन करे ।
पार्टियाँ भी अपना उल्लू सीधा कर लेती हैं इसी बहाने।
....विरोध करना, यानी भिडना, भला भिडने की हिम्मत कौन करेगा, कोई भी पार्टी भिड कर "वोट बैंक" खराब करना नहीं चाहेगी!!!!
बड़ी साहसी पोस्ट...भगवान की खिलाफत :)
जय हो इस आस्था मईया की.
ओर तो ओर हिन्दुयो के इस त्यौहार में .................. का क्या कम है ? एक उर्द्रू पत्रिका को बीजेपी के पारिवारिक होने के ५० हजार का तोहफा वाला विज्ञापन वाह - - वाह
bahut aacha laga sahamt
करो नदियों का शोषण
और आने वाले विनाश का पोषण
अनिल भैया,
यह सरकारी कुम्भ है. इसलिए हर साल होता है और आम जनता इस सरकारी आयोजन का मजा भी लेती है, लेकिन पीठ पीछे ठगी जाती है. क्योंकि इसके आयोजन में खर्च होने वाले कोरोडों रुपये तो जनता की गाढ़ी कमाई ही तो है. सबसे ज्यादा मजा तो संस्कृति विभाग के मंत्री, आला अफसर और उससे जुड़े लोगों की हैं. हर साल करोड़ों का वारा-न्यारा आसानी से कर लेते हैं और कोई पूछने वाला भी नहीं है. इसलिए तो इसे हर साल होना ही है. भैयाजी अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा. तो इस बहती त्रिवेणी संगम में हाथ धोने से कौन चुकेगा.
It reminds me of a song in my childhood.."Tahun Jaabe Mahu Jahun Rajim Mela" It has always been Rajim Mela in our memories. Renaming an old mela as kumbh is actually a loss to Chhattisgarhi culture. Plus for a party that champions the cause of Hinduism, ignoring the rules of what should be called a Kumbh and what should not is strange!
-Hitendra
-Sorry, due to nonavailability of Indic IME on this computer, could not write in Hindi]
साहब आप ने बहुत अच्छा लेख लिखा है....ये सब इन नेताओ के काले धन को सफ़ेद करने का एक जरिया है....और ये सब पैसा उन जानता का है जो अपने मेहनत से उस को हासिल करते है....और उन से कर के रूप में वसूल कर लिया जाता है.....और यही सब पैसा उन को फंड क रूप में मिलता है.....और वो बहुत अच्छे से जनता को धोका दे क ये सब कार्य करते है....अंत में मई ये ही कहूगा..
जितने हिस्सों में जब चाहा उसने हमको बाँटा है
उसको है मालूम हमारी सोचों में सन्नाटा है
तुम उससे ना जाने क्या उम्मीद लगाए बैठे हो
जिस दिमाग़ में चौबीस घंटे सिर्फ़ लाभ और घाटा है
धर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है । धर्म के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है ।
धर्म पालन में धैर्य, विवेक, क्षमा जैसे गुण आवश्यक है ।
ईश्वर के अवतार एवं स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । लोकतंत्र में न्यायपालिका भी धर्म के लिए कर्म करती है ।
धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
अधर्म- असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म है । अधर्म के लिए कर्म करना, अधर्म है ।
कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म (किसी में सत्य प्रबल एवं किसी में न्याय प्रबल) -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मंत्रीधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक एवं परमात्मा शिव की इच्छा तक रहेगा ।
धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर के किसी रूप की उपासना, दान, तप, भक्ति, यज्ञ) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है । by- kpopsbjri
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