Saturday, March 20, 2010

भले ही रोमेंटिक मूड़ की ऐसी की तैसी हो गई पर मेरी छाती पर कोई बोझ नही बढा!

दो दिनों से अच्छा-खासा रोमेंटिक मूड़ मे चल रहा था कि आज अचानक़ एक एमरजेंसी मीटिंग आ गई।पुराने दिनो की खूबसूरत यादों के नख्लिस्तान मे चैन की बंसी बजाता देख शायद किसी को अच्छा नही लगा और उसकी नज़र क्या लगी एक बेहद कठीन परीक्षा से गुज़रना पड़ गया।मुझे आज मेडिकल कालेज की एण्टी रैगिंग कमेटी की बैठक अटैण्ड करनी पड़ी।एजेण्डा भी एक ही था।एक छात्र ने तीन छात्रों के खिलाफ़ रैगिंग की शिकायत कर दी थी।
रैगिंग इस शब्द से कौन वाकिफ़ नही होगा।छात्र जीवन की सुनहरी यादों मे सीनियर होने के बाद के रूपहले पन्ने ज़रूर जुड़ जाते हैं।हमने तो रैगिंग ली भले नही थी मगर हमारी भी रैगिंग हुई थी।फ़िर छात्र नेता बन जाने के बाद अघोषित रूप से हास्टल मे गुज़ारे समय के दौरान रैगिंग और उसके बाद बने रिश्ते आज भी सालों बीत जाने के बाद उतने ही मज़बूत हैं।पता नही समय को क्या हुआ,लोग कहते हैं कि समय बदल गया है,मगर मुझे तो लगता है की समय तो वैसा ही है बस हम बदल गये हैं। और इस बात का एहसास मुझे मीटिंग मे हुआ।राजधानी के सरकारी मेडिकल कालेज की एण्टी रैगिंग कमेटी का मैं भी मेम्बर हूं।सबसे ज्यादा इर्रेग्यूलर लेकिन आज बैठ्क में उपस्थित था।मेरे अलावा उस कमेटी मे कोई भी गैर सरकारी सदस्य नही था।मेडिकल कालेज के डीन,प्रोफ़ेसर,छात्रावासों के वार्डन,एक राजपत्रित प्राशसनिक और पुलिस अफ़सर के अलावा इकलौता मै गैर सरकारी सदस्य बैठक मे था।बैठक शुरु होने के पहले ही डीन ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी और मैं अपने कालेज के दिनों मे लौट चुका था।हम लोग भी खूब मारपीट किया करते थे और शायद इसके लिये हमे घर से या परिवार से कभी कोई परमीशन नही मिली थी।तो भी आये दिन हम लोग भिड़ते रहते थे।
और ऐसा ही कुछ हुआ था मेडिकल कालेज के हास्टल में।बैठक शुरू होने के पहले ही मेरी छाती पर मानो टनो बोझ चढ गया था।अजीब सी बैचैनी मुझे परेशान करने लगी थी।मुझे एक ऐसे मुकदमे में पंच बनाया जा रहा था जो गुनाह मैं हमेशा करता आया था।उस गुनाह की सज़ा देना जो मेरे लिये कभी शौक हुआ करता था,मुझे पागल किये दे रहा था।
बैठक शुरू होते ही डीन ने बता दिया कि आरोपी लड़को ने गुनाह क़बूल लिया है और उनके घरवालों ने शपथपत्र देकर दोबारा गलती नही होने की गारंटी ले ली है।उन्होने बताया कि आरोपी तीनो छात्र निम्न आय वर्ग के परिवारो से है और उनके पालक बड़ी मुश्किल से उन्हे पढा पा रहे हैं।इसके बाद अचानक़ उन्होने मुझसे पूछ लिया अनिल तुम बताओ क्या करना चाहिये?गलती तो उन्होन की है ये तय है।सबकी नज़र अब मुझ पर थी।मेरे गले मे तो जैसे कांटे उग आये थे और शब्द उनमे फ़ंस कर चिथड़े-चिथड़े हो रहे थे।फ़िर पता नही मुझे क्या सुझा और पता नही कंहा से ताक़त आ गई और मैने बिना रूके कहना शुरू कर दिया।मैने कहा कि ये मामला पता नही क्यों मुझे सोचने पर मज़बूर कर रहा है और मैं चाहुंगा कि आप भी इस पर विचार करें।इस मामले मे आरोपियों को सज़ा देते हैं तो उनके साथ-साथ उनके पालक भी सज़ा पा जायेंगे जिनका कोई दोष नही है।और अगर सज़ा नही देते हैं तो उस छात्र के साथ अन्याय होगा जिसे उन लोगों ने पीटा था।इसके अलावा इस फ़ैसले से कालेज मे भी संदेश जाना है कि भविष्य मे ऐसी घटना करने का अंजाम क्या होना है।
इसके बावज़ूद मैने कहा कि पहले ये तय कर लेना चाहिये कि ये मामला साधारण मारपीट का है या रैगिंग का।इस बात पर कुछ प्रोफ़ेसर ने आपत्ती की जिसे मैने ये कहकर टाल दिया कि हम दोषी को बचा नही रहे है मगर उन्हे ऐसी सज़ा नहो जिससे उन्का भविष्य ही तबाह हो जाये,इस बात का ख्याल कर रहे हैं।सज़ा द्ने के नाम पर आम सहमति बन गई थी।मैने कहा कि कभी-कभी इंसान अपनी सुरक्षा के लिये बनाये गये कानून का इस्तेमाल हथियार की तरह कर लेता है,और रैगिंग उनमे से एक अचूक हथियार साबित हो रहा है।
इस बात को डीन शायद पहले ही समझ चुके थे।उन्होने तत्काल पीडित छात्र को बुलाया और उससे पूछताछ कीड़ीन के सवालों के सामने वोटिक नही पाया और उसने कबूल किया कि उन लोगों ने उसे अचानक़ भड़क कर पीट दिया था,रैगिंग जैसी कोई बात नही थी।इतना सुनते ही मेरी छाती पर लगातार बढ रहा बोझ एकदम से ह्ट गया।मैने कहा कि आप जो चाहे इन लोगों को सज़ा दे,मुझे आपत्ति नही है,मगर उनके भविष्य के खयाल के साथ-साथ पीड़ित छात्र और बढती उद्दण्ड प्रवृति पर रोक लगाने के लिहाज़ से सज़ा ज़रुर दिया जाना चाहिये।
सज़ा तो उन्हे मिलनी ही चाहिये थी और मिली भी मगर आप ही बताईये अगर उन्हे इस मामले मे रैगिंग का आरोपी मान लिया जाता तो निष्कासन तय था।तो क्या वो सज़ा सिर्फ़ उन्हे ही मिलती?पेट काट-काट कर उन्हे पढाने के लिये रूपये इकट्ठा करके सपने देखने वाले पालकों को क्या वो सज़ा तोड़ कर नही रख देती?क्या रैगिंग कानून का इस्तेमाल अपने बचाव की बजाये दूसरे को फ़ंसाने के लिये किया जाना उचित है?पता नही क्या क्या सवाल मेरे दिमाग मे उमड़-घुमड़ कर दो दिनों के रोमेंटिक मूड की ऐसी की तैसी करते रहे।इसलिये खूबसूरत यादें आज नही कल।

22 comments:

शरद कोकास said...

कौन कहता है कि इस वाकये से आपके रोमांटिक मूद की ऐसी तैसी हो गई ? अरे भाई कॉलेज के ज़माने की रैगिंग याद आयेगी तो क्या सिर्फ रैगिंग ही याद आयेगी । मुझे तो अपनी रैगिंग याद आ गई जो सीनीयर दीदियों ने ली थी वह भी छात्रावास मे ले जाकर । बाद में पढाई मे पुस्तको से लेकर पैसे तक भी मदद मेरे सीनियर्स ने की । यह इस रैगिंग का एक उजला पक्ष भी है । रैगिंग यदि परपीड़ा की प्रवृत्ति से न की जाये तो यह एक प्रकार का परिचय की प्रक्रिया है । लेकिन इसके लिये सज़ा ज़रूरी नहीं है क्योंकि इस उम्र मे आप किसी को भी ज्ञान की बाते बताये उसे समझ मे नही आयेंगी । इसलिये उन्हे माफ करना ही उचित है ।

Udan Tashtari said...

भड़क कर हुई मार पीटी, जो कि सुनियोजित रैगिंग का हिस्सा नहीं थी और अमानवीय नहीं हुई, तो निष्कासन तो निश्चित ही ज्यादा हो जाता.

PD said...

मेरे अनुभव से तो कई मामले ऐसे ही होते हैं.. कालेज में हमारे बैच ने सीनियर से मार-पिट कि थी, मगर कभी कोई रैगिंग का रोना नहीं रोया था..

Satish Saxena said...

भगवान् का शुक्र है आप उस कमिटी में थे , अन्यथा इस तरफ के सेंटीमेंटल आरोप पर अक्सर प्रश्न नहीं किये जाते और किसी को फांसी देकर गर्व महसूस कर लिया जाता है !

मुनीश ( munish ) said...

Every Law is a Double edge sword. It can be used as well as misused.
Chances of Ragging law being misused are very thin and perpetrators of this crime must be given an exemplary punishment .
In this post i see u tilting in favour of erring seniors.
Now seniors are not able to rag the juniors like before and so they are resorting to violence out of frustration sir.

Unknown said...

पंच बनना वास्तव में बहुत मुश्किल कार्य है, अनेक प्रकार की दुविधाएँ उपस्थित हो जाती हैं, अपने स्वयं के द्वारा किये गये घृणित कार्य आँखों के सामने आकर नाचने लगते हैं। किन्तु हमारी संस्कृति में पंच को परमेश्वर माना गया है और उसके मुख से न्याय के सिवाय कुछ और निकल ही नहीं पाता। एक पंच के भीतर क्या उहापोह मचता है इसका वर्णन प्रेमचंद जी की अपनी कहानी "पंच परमेश्वर" में बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है।

अजित गुप्ता का कोना said...

वार्तालाप के बाद ही कई समस्‍याओं का हल निकलता है। जब भी हम पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर फैसला करते हैं अक्‍सर गलत होता है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जीवन में अनुभव बहुत काम आता है....आपने अपने अनुभव से छात्रों के लिए इतना सोचा..अन्यथा तो उनके साथ साथ माता पिता भी सजा पाते....आपकी लिखने की शैली छाप छोडती है...

Khushdeep Sehgal said...

अनिल भाई,
ये तो अच्छा हुआ, आप यहां थे और मामला सुलटा दिया...
लेकिन रैंगिंग का नासूर फ्रेशर बच्चों के लिए कितना घातक साबित होता है, इस पर लगता है मेरी टिप्पणी से ही बात नहीं बनेगी... एक दोस्त के छोटे भाई के साथ रैगिंग के नाम पर क्या हुआ, जल्दी ही पूरी पोस्ट लिखकर बात स्पष्ट करूंगा....

जय हिंद...

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।

Ajay Tripathi said...

aapne chatro ke lafade samne lakar ghatna ko naya mode de diya

kshama said...

Aapne aalekh achha likha hai,lekin ragging mujhe manzoor nahi...bachhon pe sanskar palak karte hain...gar bachhe galat kaam karte hain, to saath,saath palak bhi zimmedar hain...chahe wo kisibhi tapqe ke hon..Bina kisi ragging ke, college jeevan ki hamaree bhi madhur yaden hain!

दिनेशराय द्विवेदी said...

दंड का उद्देश्य समाज में अपराध की समाप्ति और सुधारात्मक ही होना चाहिए। दूसरा यह कि किसी भी अपराधी द्वारा किए गए अपराध का सही विश्लेषण होना चाहिए और दंड उसी के अनुरूप होना चाहिए। दंड का उद्देश्य बदला नहीं हो सकता। यदि ऐसा हो तो हम फिर से बर्बर युग में चले जाएंगे।
आप ने इसी दृष्टिकोण की पुष्टि की है।

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर किया आप ने धन्यवाद

Urmi said...

बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है आपने! हर समस्या का समाधान तब होता है जब हम दूसरों के साथ आलोचना करते हैं और हमें नया सुझाव भी मिलता है जिससे हम फैसला कर पाते हैं! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!

Gyan Dutt Pandey said...

एक बार तो टांग ही दिया जाये बन्दों को। बाद में माफी देना ठीक रहे।

प्रवीण पाण्डेय said...

गलती स्वीकार कर लेना सुधरने की पहली निशानी है ।

डॉ महेश सिन्हा said...

इस देश में कानून पहले बना दिया जाते हैं विमर्श बाद में होता है . दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग एक जीता जागता उदाहरण है .

डॉ टी एस दराल said...

रैगिंग एक अभिशाप है , इसे रोका तो जाना ही चाहिए । ज़रा सोचिये उन लोगों के दिल पर क्या बीती होगी जिनके बच्चे ने शर्म के मारे आत्म हत्या करली रैगिंग के बाद।
हाँ, लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए ।
इसीलिए इंक्वारी बैठाई जाती है , अगर निष्पक्ष हो तो।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

सज़ा इतनी ही काफी होती है कि किसी को क्रिमीनल ही न बना दे.

संजय भास्‍कर said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।

संजय भास्‍कर said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।