बढते वृद्धाश्रम और उसमे बढती माताओं की संख्या!क्या हमे मदर्स डे मनाने का हक़ है!ये सवाल मुझे कल से बेचैन कर रहा है।मदर्स डे पर स्पेशल स्टोरी के लिये कुछ ने पुछा तो मुझे कुछ सुझा भी नही।मुझे यंहा के बाल आश्रम मे रहने वाले बच्चे भी याद आये जिन्होने मुझे गांधी जयंती पर खाना खिलाया था।उन्होने तो मां को देखा भी नही होगा शायद।फ़िर याद आया यंहा करीब की बस्ती माना का वृद्धाश्रम!पिछ्ले साल गर्मियों मे गया था!पानी की किल्लत झेल रहे आश्रम मे रहने वाली,दुर्भाग्यशाली बच्चों की माताओं की हालत देख कर, जो आंसूओं ने पलकों की कैद को तोड़ने का विद्रोह किया था,उसे दबाने मे ही हालत खराब हो गई थी,और उसे दबाने के बाद दोबारा वंहा जाने की हिम्मत ही नही हुई।आज फ़िर वो सब कुछ आंखों के सामने घूम रहा है।सुबह से एसएमएस आ रहे है।मदर्स डे पर बधाईयों का सिलसिला थम ही नही रहा है।
मैने भी कुछ को धन्यवाद दिया और कुछ को आये हुये एसएमएस फ़ारवर्ड कर दिये।मुझे लगा कि औपचारिकता निभाने मे शायद हम लोगों की मास्टरी हो गई है।हम उस पश्चिम को पुरी तरह आत्मसात करने मे लगे हुये हैं,जो भौतिकवाद की अंधी दौड मे थक़ कर हमारी ओर देख रहा है।पश्चिम की तरह हम भी हर बात के लिये एक दिन मुकरर्र करके अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं।
इसी पिछलग्गूपन की वजह से हम मदर्स डे मनाने मे लगें हुये।इस देश में जंहा मां को भगवान माना जाता है।जंहा नदियों को,जंहा गौ को और जंहा किताबों को मां माना जाता है,उस देश में वृद्धाश्रम खुलना और उसमे माताओं की संख्या का लगातार बढना क्या ये साबित करता है कि इस देश मे मां को भगवान माना जाता है?
खैर वे बदनसीब ही होंगे जिनके जीते-जी उनकी किसी आश्रम मे रहे।ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि मैं उन बदनसीबों मे से नही हूं।पता नही उनकी क्या मज़बूरियां रही होंगी?मगर हम तीनो भाई एक साथ,एक ही घर में अपनी आई के साथ रहते हैं।शायद यही काफ़ी हमारे लिये मदर्स डे मनाने के लिये।दोनो भाई और मैं आपस मे छिट्पुट मतभेदों के बावज़ूद एक साथ रहकर अपनी मां का प्यार पाने मे सफ़ल हैं,मैं समझता हूं कि ये ईश्वर का सबसे बडा वरदान है।सच मे मां,मां है उसका कोई विकल्प नही।आज जो कुछ भी हूं,उसके आशीर्वाद से ही हूं।आई आपका आशीर्वाद सदा बना रहे।ब्लाग जगत मे भी बहुत सी मातायें हैं मैं उनसे भी आशीर्वाद की कामना करूंगा और ईश्वर से प्रार्थना करूंगा कि इस देश मे किसी भी माता को कभी किसी आश्रम का दरवाज़ा न देखना पड़े।
27 comments:
अनिल जी भेड़ चाल से हटकर कुछ सार्थक विषय को पोस्ट में उठाने के लिए धन्यवाद / आज सबसे बड़ी समस्या है लोगों के जमीर और स्वार्थ की / लोगों का जमीर लगभग खत्म हो चुका है ,स्वार्थ पहले भी था लेकिन उसपे जमीर का दबदबा होता था ,लेकिन आज जमीर पड़ स्वार्थ बुडी तरह हाबी है ,जिससे कर्तव्य और जिम्मेवारी खत्म होती जा रही है / हम लोगों को मिलकर इस दिशा में एकजुट होकर कुछ ठोस उपाय करने होंगे ,जिससे इस देश में जमीर और सामाजिक जिम्मेवारी को जिन्दा किया जा सके /
बात तो सही उठाई है आपने। जब भी वृंदावन जाता हूं, वहां गलियों और मंदिरों में घूमती बेसहारा माताओं को देखकर मन विचलित हो जाता है।
वृद्धाश्रम मै अपनी मां को भेजने वाले ही मदर डे मनाते है जी, बाकी तो मेरे आप जेसे रोजाना ही मां के चरण स्पर्श कर के यह दिन मनाते है
आखिरी पंक्ति के लिए मैन भी 'आमीन' कहूँगा भैया.. आपकी चिंता जायज़ है. इस दिशा में कुछ करने की सख्त जरूरत है. कहीं कई बच्चों के पास माँ नहीं हैं तो कहीं कई दुत्कारी गई माएं हैं.. दुखद..
"बढते वृद्धाश्रम और उसमे बढ़ती माताओं की संख्या! क्या हमे मदर्स डे मनाने का हक़ है!"...सच्चाई तो ये है कि इन संख्या बढ़ाने वालों को ही बस monder's day मनाने का हक़ है (क्योंकि बाक़ियों को तो एसा कोई दिन मनाने की ज़रूरत ही नहीं है न).
अनिल जी ,
आपकी ये पोस्ट पढ़ मन विचलित हो गया...सच ना जाने कैसे बच्चे अपनी माँ को वृद्धाश्रम भेज देते हैं....रहती होगी सबकी मजबूरी...पर हर कोई ज़रा अपने आप को टटोले कि आज जो वो हैं वो किस बलबूते पर हैं...आज जो बच्चे हैं कल वो माता पिता बनेगें .....बूढ़े भी होंगे.....ज़रा सोचें इस पर भी तो शायद ऐसी समस्या ना आये...
बहुत सार्थक लेख है आज के दिन का ...
पंकज जी ने ठीक कहा . व्रंदावन मे बहुत ही बद्तर हालात मे जी रही है माईया . मंदिरो मे दो दो घंटे कीर्तन के बाद दो मुठी अनाज भी नही मिल पाता इन्हे
बिल्कुल सही बात कही है……………आपकी पोस्ट कल के चर्चा मंच पर होगी।
बहुत सही लिखा है आपने । एक दिन को सेलिब्रेट करके हम अपना फ़र्ज़ पूरा करने का नाटक कर रहे हैं , पश्चिमी देशों की तरह। सच्चा बेटा तो वही होगा जो बुढ़ापे में लाठी की तरह मां का सहारा बने ।
"मगर हम तीनो भाई एक साथ,एक ही घर में अपनी आई के साथ रहते हैं।शायद यही काफ़ी हमारे लिये मदर्स डे मनाने के लिये।"
आप का तो फिर रोज ही मदर्स डे मनाना हुआ :)
मार्मिक विषय उठाया है ।
... आजकल समाज में औपचारिकताएं बढते जा रही हैं तथा मानवीयता व संवेदनाएं मरते जा रही हैं इसलिये ही अक्सर बूढी औरतों को चौक-चौराहों पर भीख मांगते व बेसहारा घूमते देखा जा रहा है !!
... मेरा मानना तो ये है कि एन.जी.ओ. पूरी तरह असफ़ल हैं अगर सफ़ल होते तो कोई बेसहारा भीख मांगते नजर नहीं आता !!!
कपूत कब नहीं हुये और कहां नहीं हुये...
आपकी पोस्ट बहुत बढ़िया है!
मातृ-दिवस पर
ममतामयी माँ को प्रणाम तथा कोटि-कोटि नमन!
बहुत ही सटीक कहा आपने.
रामराम.
bhaii sahab parnam aapki hading se hi sari bate baya ho gaii isake bad kuch rah hi nahi jata salam aapko
ये सब पश्चिम से आए बाज़ारवाद के चोंचले हैं...वहां किसी के पास वक्त नहीं होता...इसलिए वहां साल में एक दिन माता, पिता, दादा, दादी, टीचर के साथ कुत्ते-बिल्लियों (पेट्स डे) को भी याद कर लिया जाता है...ग्रीटिंग्स कार्ड, गिफ्ट, फ्लावर्स, एसएमएस सब को मिला दें तो करोड़ों का बिज़नेस निकलता है अपने इसी देश से, जहां सत्तर फीसदी से अधिक का गुज़ारा मात्र बीस रुपये रोज़ पर होता है...
जय हिंद...
बाल आश्रम और वृद्धाश्रम के निवासियों को मिलाकर क्या ऐसे परिवार नहीं बनाए जा सकते जहाँ बच्चों को दादा-दादी मिल जाएँ और दादा-दादी को पौत्र-पौत्रियाँ? बाकी आपकी चिंता जायज़ है मगर यह भी सच है कि बूढ़े माँ-बाप को कुम्भ के मेले में या वृन्दावन में छोड़ आने से तो वृद्धाश्रम होना बेहतर है.
अनिल भाई,
यही तो सबसे बडी विडंबना है कि जिन पश्चिमी देशों से हम ये दिवस इत्यादि मनाने की परंपराएं आयात करते हैं, उनसे इनके साथ जुडी सभी बातों को अमल में नहीं ला पाते । ये निश्चित तौर पर मानना होगा कि अपने बुजुर्गों की देखभाल , अपने शहीदों को सम्मान वे हमसे बेहतर तरीके से देते हैं ।
खैर आपने जीवन का सबसे बडा मूल सुख , कि तीनों भाई एक साथ रहते हैं और आई का आशीष पाते हैं ,पा ही रहे हैं ।
sahi kaha aapne
लगता है अनिल जी, कि आप और मुझ जैसे लोगों से दूसरों की खुशी देखी नहीं जाती। लोग तो खुशी मना रहे होते हैं अलाँ-फलाँ 'डे' मनाकर और हम लोग हैं कि आदर्शवादिता, संस्कृति, संस्कार आदि का रोना लेकर बैठ जाते हैं।
आप तो और भी गज़ब ढाते हैं, अब देखिये ना, मदर्स डे मनाते हुए इतने सारे लोगों को आपके इस पोस्ट ने दुखी कर दिया।
लगता है अनिल जी, कि आप और मुझ जैसे लोगों से दूसरों की खुशी देखी नहीं जाती। लोग तो खुशी मना रहे होते हैं अलाँ फलाँ डे मनाकर और हम लोग हैं कि आदर्शवादिता, संस्कृति, संस्कार आदि का रोना लेकर बैठ जाते हैं।
आप तो और भी गज़ब ढाते हैं, अब देखिये ना, मदर्स डे मनाते हुए इतने सारे लोगों को आपके इस पोस्ट ने दुखी कर दिया।
मदर्स डे मनाने की आधुनिक कवायद में औपचारिकता निर्वहन तो शामिल है ही। आप नाहक एक पोस्ट बनाये दे रहे हैं! :)
आधुनिकता का एक पैमाना ये भी चल पडा है - माँ - बाप को वृद्धाश्रम भेज कर साल में एक दिन mothers day, fathers day मना लो | नक़ल और भोड़ेपन की एक सीमा होती है पर हम भारतवासी वो सीमा कब की पार कर चुके हैं | कोई भी पर्व त्वेहार हो कुछ हो ना हो ... 'HAPPY' लगाकर greeting जरुर भेज देंगे |
अनिल जी ऐसा modern बनने से तो अच्छा है देशी ही बने रहो पर माँ बाप को वृद्धाश्रम ना भेजो ....
wakai koi haq nahi hai......
अनिल भाई !
बहुत दिनों से इस महत्वपूर्ण विषय पर लिखने का मन था, अविनाश वाचस्पति के घर पर एक बैठक में खुशदीप सहगल की तरफ से यह सुझाव था कि हम लोग कम से कम अपने मुहल्लों में वृद्धों की स्थिति सुधारने और उन्हें हंसाने का कुछ उपाय क्यों न करें ! लगभग दो माह से सोच रहा था इस पर लिखने के लिए मगर जैसे हम अपने इन बड़ों के साथ, आज कल आज कल करते अपना व्यस्त समय एन्जॉय करते निकाल देते हैं , मैं भी भूल सा गया था !
आज आपने जगा दिया,शुक्रिया ! देखता हूँ कुछ कर पाऊंगा या फिर भूल जाऊँगा ?
बहुत सार्थक लिखा है आपने, आता रहूँगा आपके ब्लॉग पर.
राम त्यागी
http://meriawaaj-ramtyagi.blogspot.com/
Post a Comment