शब्द नही चित्र!पिछ्ले दिनों यंहा एक सरकारी कार्यक्रम हुआ जिसमे सरकारी लोगों को आना था।कार्यक्रम की तैयारी पूरी हो चुकी थी और मंच भी सज-धज कर तैयार था,बस इंतज़ार था तो उद्घाट्न की औपचारिकताओं के बाद कार्यक्र्म की शुरूआत का,तभी सरकारी से भी ज्यादा एक असरकारी ने पता नही क्या सोचा और सीधे चढ गया मंच पर्।वंहा तो कोई परेशानी नही थी लेकिन उसके बाद भाषा की समस्या थी,सो बेचारे बगले झांकने लग गये,शायद उन्हे किसी दुभाषिये की तलाश थी।आप भी देख लिजिये कौन हैं ये सरकारी लोगों से ज्यादा महत्व
पूर्ण असरकारी शख्सियत!
30 comments:
ha-ha-ha-ha-ha-ha.... thats really gr8 anil ji. Sateek .
शायद अपने और साथियो के इन्तज़ार मे है
शायद अपने और साथियो के इन्तज़ार मे है
हा-हा-हा
बहुत बढिया
पहले छोटे जी आ गये
प्रणाम
पहुँच तो गये वहाँ, पर अब उसे पछतावा हो रहा है यह सोचकर कि ये तो मुझसे भी निकृष्ट लोगों के लिये बनाया गया मंच है, बड़ी भूल हुई जो मैं यहाँ आ गया।
ऐसा भी क्या सरकारी होना कि भाषा की समस्या हो जाए :-)
मेरे ख्याल से ये सोच रहा होगा कि 'आयम द बेस्ट'
avadhiya ji.....
aapne to sone pe suhaaga wali baat keh di....
kunwar ji,
मुझे तो हंसी भी आ रही है और तरस भी...
:) :) ..अवधिया जी ने सही कहा है
भविष्य नें पहले ही आकार ले लिया. तालियां .... स्वागत करो श्रीमान की. :)
कैमरा भी न जाने क्या क्या करता है :)
सोच रहा होगा -
शुरू कहां से करूँ.......मुद्दे तो बहुत हैं :)
dhansu, photographer ki nazar ko man na pdega..
देखा दुसरा जन्म ले लिया लेकिन आदत नही बदली, अजी यह पहले जन्म मै इसी देश का एक बहुत महान ओर बडा नेता था.... जिस का भाषण सुनने के लिये करोडो लोग आते थे, ओर चारो ओर चमचो की भीड होती थी..... आज कोई इन्हे पहचान ही नही रहा..... वक्त वक्त की बात है....
ha ha ha ...good one.
vaise esa kai baar hota hai :)
हा हा!!
नेता जी आने वाले होते तो हम इसे ट्रेलर मान लेते. :)
ये इधर उधर इसलिए देख रहे हैं क्योंकि मंच पर पता नहीं लग रहा कि माइक किधर हैं?
यह भी संभव है कि गडकरी जी के आरोप का जवाब देने आया हो.
संजीत त्रिपाठी से सहमत ! सही समय पर कैमरे का सही प्रयोग ! साधुवाद !
कुछ तो परदे में रहने देते अनिल जी । सारे राज़ खोल दिए ।
आप इसी ताक में बैठे थे क्या? कमाल
अरे ये तो कभी कानपुर के ग्रीनपार्क स्टेडियम में होने वाले मैचों के मुख्य अतिथि हुआ करते थे...
आपसे गड़करी के प्रवक्ता के लिये ऎसी पोस्ट की अपेक्षा नहीं थी ।
चित्र तो धाँसू है !
गीत गुनगुना रहे होंगे नेता भाई यों के लिया
तुम बिन सूनी प्रेम डगरिया
आजा रे आजा हो सनम
रूठने वाले कैसे मनायूं
आसवन के मै फूल चढाऊँ
अनिल जी
दूसरी बार लिख रही हूँ
पढ़ कर हंसी आ गई और पंकज मालिक जी के गीत की पंक्ति निकल गई
छुपो न छुपो ना ओह प्यारी सजनिया
हमसे छुपो न छुपो ना
मिलने को आयें है आकार मिलो अब मान जावो
सजन से छुपो ना
हाहाहाह, बहुत बढियां लगी पोस्ट ।
anilji,
do char khambe hote to ye mahashay sahaj mahsus karte r karykram start ho sakata tha.....aapke jooly nature ka jwab nahi.........
:) अपने सेक्रेटरी का इंतजार करता लग रहा है, आखिरकार स्पीच तो सेक्रेटरी ही लाएगा न्…बेहतरीन व्यंग
इनका तो मुंह भी खुला का खुला रह गया है।
हर तरफ ऐतराज होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूं
दुष्यंत कुमार ने ये शेर पता नहीं क्या सोचकर लिखा था। लेकिन इस कुत्ते को स्टेज पर देखकर मुझे यह शेर बरबस याद आ गया।
ये एक वफादार जानवर है। लेकिन शहरी इंसानों की इस दुनिया में वफा की कदर कहां है?
वह गली का कुत्ता है। किसी रईस का कुत्ता होता तो सज संवर कर स्टेज पर आता। उसे देखकर लोग तालियां बजाते। उसकी तस्वीरें अखबारों में छपतीं।
गली के कुत्ते खतरनाक होते हैं। वे अपनी मरजी से भौंकते हैं और किसी के कहने से चुप नहीं होते। उन्हें पत्थर मारकर भगाना पड़ता है। या खुद चुपचाप उनके इलाके से निकल जाना पड़ता है। आपकी दुत्कार सहकर और खुले आसमान के नीचे सोकर जिंदगी गुजारने वालों से आप हुकम बजाने की अपेक्षा नहीं कर सकते। रईस लोग ऐसे कुत्तों को पसंद नहीं करते।
यह धुर नक्सल इलाकों की तस्वीर लगती है। स्टेज पर जिन्हें होना था वे नहीं हैं। जिसकी अपेक्षा नहीं की जाती वह है। उसके पास माइक नहीं है।
शहरों का प्रशासन अक्सर कुत्तों को जहर देने या उनकी नसबंदी करने की योजनाएं बनाता है। दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो गली के कुत्तों के लिए आश्रम चलाते हैं। मुंबई के किसी महापौर ने कभी कहा था कि हर नागरिक गली के एक एक कुत्ते को पाल ले तो इस समस्या का हल हो जाए।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि गली के कुत्तों को पुलिस के काम के लिए ट्रेन किया जाना चाहिए। ये कुत्ते विषम परिस्थितियों में रहने के आदी होते हैं। इनकी अधिक देखरेख की जरूरत नहीं पड़ती।
लेकिन सरकार आमतौर पर महंगे कुत्ते खरीदती है जिनके खाने पीने और दूसरी सुविधाओं के लिए खूब पैसे खर्च करने का प्रावधान होता है। अब कुत्ता तो बताएगा नहीं कि उसे खाने में अमुक चीज दी जा रही है या नहीं। एक साहब ने कुत्तों को ट्रेनिंग के लिए अमरीका भेजने का सुझाव दिया था।
छत्तीसगढ़ में कुछ समय पहले नागा बटालियन तैनात थी। उसके बारे में मशहूर था कि उसके जवान कुत्ते खाते हैं। वे जिधर से गुजरते हैं वह इलाका कुत्तों से खाली हो जाता है। मुझे एक पुराना लेख याद आता है जिसमें कहा गया था कि जहां फौजें तैनात होती हैं वहां आम आदमी के मानवाधिकार खत्म हो जाते हैं। बंदूक की नोक पर वह सब कुछ होता है जो हो सकता है।
मुझे यह तस्वीर और उस पर लोगों का नजरिया देखकर लग रहा है मानो शहरी रंगकर्मियों के मंच पर कोई लोकनाट्य कर्मी चढ़ गया हो।
या मंत्रालय की रिपोर्टिंग करने वालों के बीच कोई प्रूफ रीडर आ गया हो।
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